पर्यावरण हमेशा से समाज का हिस्सा रहा है चाहे वह दुनिया का कोई भी समाज हो । इस समय पूरी दुनिया पर्यावरण की समस्या से जूझ रही है। और इस समस्या से निपटने के लिए पूरा विश्व एक मंच पर इस समस्या का समाधान ढूंढ रहा है। हमारे समाज में पहले पर्यावरण को सुरक्षित रखने और उसकी देखभाल करने का दायित्व सभी का होता था, ऐसा इसलिए था कि पर्यावरण हमारे व्यवहारिक ज्ञान में शामिल होता था। फिर धीरे-धीरे पर्यावरण को व्यवहारिक ज्ञान से हटाकर स्कूल के सिलेबस तक सीमित कर दिया गया। और अब पर्यावरण हमारे स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा है जिसका महत्व पर्यावरण के विषय में अच्छे अंक प्राप्त करने से ज्यादा नहीं रह गया है। पिछले 200 वर्षों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई करने के बाद समाज के मन में पर्यावरण के प्रति कोई उत्सुकता नहीं बची। पर्यावरण की समस्या को दूर करने के लिए बहुत से उपाय किए जा रहे हैं तरह-तरह के जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।” पर्यावरण के प्रति जागरूकता” यह सब भारतीय इतिहास में बिल्कुल नया है। भारत सरकार के सर्वे के अनुसार देश में लगभग 40 करोड़ से ज्यादा स्टूडेंट हैं। इसमें स्कूल स्टूडेंट, कॉलेज स्टूडेंट सभी शामिल हैं। स्कूल हमेशा से ही किसी भी समाज के बुनियादी ढांचे को मजबूत करता है। कोई भी समाज आगे किस दिशा में बढ़ रहा है इसमें भी स्कूलों की अहम भूमिका रहती है। जब कोई बच्चा स्कूल जाता है तब परिवार यह सोचता है कि सिखाने की जिम्मेदारी अब उसकी नहीं स्कूल की है और स्कूलों का सिलेबस तो पहले से ही निर्धारित है जहां उसे जानकारी तो बहुत दी जाती है फिर परीक्षा ले ली जाती है और बच्चों को लगता है कि जानकारी का मतलब बस परीक्षा से ही है और उसका व्यवहारिक उपयोग क्या है इस बारे में उन्हें नहीं बताया जाता। हां हम किसी भी दिवस को उत्सव के रूप में मनाते हैं 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। साल के 1 दिन हम पर्यावरण के बारे में जागरूक करते हैं बच्चों को उन्हें होमवर्क में पर्यावरण से संबंधित चित्र लेख भाषण आदि करने को कहा जाता है और फिर तभी मान लेते हैं कि पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई। सभी पर्यावरणविद इस बात पर सहमत होते हैं कि अगर पर्यावरण को बचाना है तो समाज के सभी वर्ग के लोगों की भागीदारी जरूरी है। पहले समाज अपने पर्यावरण की देखभाल खुद ही करता था और इसके लिए उसे कोई पढ़ाई का कोर्स करने की जरूरत नहीं होती थी क्योंकि ये उसके जीवन चर्या में शामिल होता था लेकिन अब ऐसा नहीं है अब हमें लगता है कि पर्यावरण किसीे सरकार, किसी संस्था की जिम्मेदारी है। ऐसा नहीं है कि स्कूलों की शिक्षा प्रणाली को बदलने की पहले कोशिश नहीं की गई , 22 दिसंबर 1901 को भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता रविंद्र नाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन में स्कूल की स्थापना की। जिसकी मॉडलिंग प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के तर्ज पर की थी। वे मानते थे कि हमारी शिक्षा ने हमें प्रकृति और सामाजिक संदर्भ दोनों से दूर कर दिया है। उन्होंने पाया कि शिक्षा को बच्चों के लिए और ज्यादा अर्थपूर्ण बनाने के लिए पहला कदम बच्चे को प्रकृति के संपर्क में लाना होगा। और आज के दौर में हमें इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की सख्त से सख्त जरूरत है।
~मानवेंद्र कुमार सिंह
बहुत ही बढ़िया आर्टिकल है। हमें एजुकेशन के साथ-साथ प्रैक्टिकल नॉलेज भी जरूरी है। वरना पेड़ – पौधे सिर्फ किताबों में ही रह जाएंगे। 👍👍👍👌👌
bhut sahi likha….kyunki hm log padhne ke baad bhi practical implementation nhi kr pa rahe h…hmhe samjhna hoga ki environment hmare liye utna hi jaruri h jitna saans lena…
nice effort buddy …….