गांव से शहरों की तरफ पलायन का एक प्रमुख कारण गांव में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी होना है। श्रृंखला के इस लेख में हम यह समझेंगे कि स्वास्थ सुविधाओं की वर्तमान दशा क्या है। साथ ही हम यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि भविष्य में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है।
इस समय जब सारी दुनिया महामारी से जूझ रही है जब विकसित देशों तक की स्वास्थ्य सुविधाएं चरमरा रही हैं और जब स्वास्थ्य सुविधाओं पर सारी दुनिया में बहस हो रही है। भारत में भी ऐसी सार्थक बहस की जरूरत इस समय सबसे ज्यादा है। आज स्वास्थ्य से जुड़ी हुई बहस को आम जनमानस तक पहुंचाने की सख्त जरूरत है ताकि स्वास्थ हमारे एजेंडे में शामिल हो सके।
यदि हम छोटे शहरों और गांवों की बात करें तो वहां स्वास्थ सेवाओं की स्थिति बहुत खराब है। बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए लोगों को बड़े शहरों का रुख करना पड़ता है। वहां पर भी स्वास्थ्य सेवायें पर्याप्त नहीं है और महंगी भी हैं। अगर स्वास्थ सेवाओं से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो स्थिति अच्छी तो बिल्कुल नहीं कही जा सकती। डब्ल्यूएचओ(WHO) की ग्लोबल बर्डन आफ डिजीज (GBD) की रिपोर्ट कहती है की डायरिया जैसे सामान्य रोग से पांच लाख चालीस हजार लोग प्रतिवर्ष मरते हैं। वहीं मलेरिया से 1 लाख अस्सी हजार लोग प्रतिवर्ष मरते हैं। ये ऐसे रोग हैं जिनका बहुत आसानी से इलाज संभव है, लेकिन बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी के कारण लाखों लोग ऐसी बीमारी का शिकार हो जाते हैं।
भारत अपनी जीडीपी का 1.3 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ सुविधाओं पर खर्च करता है। यदि दूसरे देशों की बात करें तो जर्मनी जीडीपी का 11 प्रतिशत, फ्रांस 12 प्रतिशत , चीन 2.7 प्रतिशत और थाईलैंड 2.8 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ सुविधाओं पर खर्च करते हैं। कहने का अर्थ यह है कि दूसरे देशों की तुलना में हमारा देश जीडीपी का काफी कम हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करता है।
इसका परिणाम यह निकला है कि स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र का बोलबाला बढ़ गया है। बेहतर स्वास्थ सेवायें आम व्यक्ति की पहुंच से बाहर चली गई हैं। आज एक औसत भारतीय व्यक्ति अपने कुल स्वास्थ्य खर्च का दो तिहाई से तीन चौथाई तक अपनी जेब से लगाता है। औसतन एक भारतीय व्यक्ति अपने कुल स्वास्थ्य खर्च का 73% हिस्सा अपनी जेब से खर्च करता है, बाकी 27% खर्च सरकार वहन करती है। अगर अन्य देशों की बात करें तो दक्षिण अफ्रीका में लोग अपने कुल स्वास्थ्य खर्च का 44% हिस्सा अपने जेब से खर्च करते हैं बाकी का खर्च सरकार उठाती है। थाईलैंड यह आंकड़ा 21 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 20 प्रतिशत और नार्वे में 15 प्रतिशत है।
विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकतम हिस्सा सरकार उठाती है। एक तो उनकी जीडीपी का आकार बड़ा है और दूसरा वो लोग जीडीपी में ज्यादा शेयर स्वास्थ्य सुविधाओं को देते हैं। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये औसत आंकड़े है। इसमें दक्षिण भारत के राज्य भी शामिल है जहां बुनियादी सुविधाएं तुलनात्मक रूप से बेहतर है। इसके अलावा इसमें शहरों और गांवों का भेद नहीं है यदि हम उत्तर भारत के कई प्रदेश और गांवों की बात करें तो स्थिति और भयावह हो सकती है।
कुपोषण, बाल मृत्यु दर, एनीमिया मातृत्व मृत्यु दर और परिवार नियोजन जैसी चीजों के आंकड़े अच्छे संकेत नहीं देते हैं।
अब सवाल यह है कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं को हासिल कैसे किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले को बढ़ाना होगा। हमें कम से कम अपनी जीडीपी का 3 फ़ीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना होगा। खर्च बढ़ाने के साथ ही हमें टारगेटेड खर्च करना होगा। उदाहरण के लिए हमें बड़े शहरों और बड़े अस्पतालों की जगह छोटे शहरों और गांवों पर खर्च का हिस्सा बढ़ाना होगा। इसके अलावा हमें बीमा योजनाएं इत्यादि पर खर्च करने की बजाय सामुदायिक स्वास्थ्य पर खर्च करना होगा। बीमा योजनाओं का रास्ता अमेरिकी स्वास्थ्य मॉडल की तरफ जाता है जो कि हमारे देश के लिए ठीक नहीं है। बीमा योजना न सिर्फ नाकाफी साबित होती है बल्कि इसका बहुत ज्यादा दुरुपयोग भी होता है। इसलिए हम सार्वजनिक और निःशुल्क चिकित्सा पर खर्च कर सकते हैं।
दूसरी चीज है Preventive Health Care मतलब बीमार होने से पहले ही ऐसी व्यवस्था करें कि लोग बीमार ही कम पड़ें। जैसे कि आज इम्युन सिस्टम की बात हो रही है। Preventive Health Care गांव की भूमिका बढ़ जाती है। शहरों की बनावट और बसावट ऐसी होती है जिसमें एक औसत व्यक्ति को खेलने-कूदने, शारीरिक- मानसिक विकास, साफ हवा, पानी और भोजन नहीं मिल पाता।
यदि हम गांव को थोड़ा और बेहतर बनाए तो गांव में गरीब से गरीब व्यक्ति को भी घूमने टहलने, खेलने कूदने के साथ-साथ साफ हवा पानी और भोजन मिल सकता है। गांव में बिना मिलावट की चीजें जैसे कि दूध,घी, शहद, फल एवं सब्जियां इत्यादि आसानी से मिल सकती हैं। इसके अलावा गांव की जीवन शैली ऐसी है कि शहरों के मुकाबले गंभीर रोगों के होने का खतरा कम रहता है।
तीसरा सुधार दवाइयों को लेकर किया जा सकता है। दवाइयों में कमीशन खोरी एक आम समस्या है। हमें जेनेरिक दवाइयों पर जोर देना होगा। जेनेरिक दवाइयों के चलन को अनिवार्य बनाने की जरूरत है। सरकारी अस्पतालों में यह सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है कि डॉक्टर किस खास कंपनी की दवाई के साथ-साथ जेनेरिक दवाई का नाम भी बताएं।
इसके अलावा प्राइवेट हेल्थ केयर को Regulate करना होगा। निजी स्वास्थ्य के नियमन के बिना हेल्थ केयर बेहतर सुविधाएं प्रदान नहीं की जा सकती। आज हेल्थकेयर धंधा बन चुका है। इसके माध्यम से बेतहाशा पैसा कमाया जा रहा है। इसे नियंत्रित करने की जरूरत है।
इन सारी बातों के अलावा में प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी चिकित्सा इत्यादि में व्यापक काम करने की जरूरत है। आज पारंपरिक चिकित्सा पर कई बार नीम हकीम और पाखंड जैसी चीजों का कब्जा हो जाता है। हमें ये रोकना होगा। पारंपरिक चिकित्सा के क्षेत्र में रिसर्च को बढ़ावा देना होगा।भारत दुनिया के सबसे ज्यादा जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक है। पारंपरिक चिकित्सा के क्षेत्र में हमारा अतीत अत्यंत गौरवशाली रहा है। आज हमें फिर से ऐसी चीजों को आगे लाने की जरूरत है। पारंपरिक चिकित्सा के क्षेत्र में गांव की भूमिका बहुत बड़ी हो सकती है। इसके अलावा पारंपरिक चिकित्सा पर्यावरण के हिसाब से भी उचित है।
हमें अपने स्वास्थ्य व्यवस्था के पूरे ढांचे को ठीक करना होगा। ताकि हम एक स्वस्थ और खुशहाल भारत का निर्माण कर सकें।
खुशहाल भारत का रास्ता गांव से होकर गुजरेगा ऐसी उम्मीद है
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At last! Something clear I can understand. Thanks! Clary Nicolas Debor
komentarnya masuk dalam komentar spam jadi gak kelihatan, bisa gak pake ralay bantu silakan di modifikasi.. Fenelia Glynn Elston
A motivating discussion is definitely worth comment. I do believe that you should write more about this topic, it might not be a taboo matter but typically people do not discuss such topics. To the next! All the best!!| Jewelle Filippo Chard