मोटे अनाज यानी मिलेट्स हमेशा से भारतीय भोजन परंपरा के हिस्सा रहे हैं । एक समय था जब हमारी खाने की प्लेट मोटे अनाज से बने व्यंजनों से से भरी रहती थी, लेकिन हरित क्रांति के बाद भारतीय खेती आमूलचूल रूप से बदल गई। खाद्य सुरक्षा के नाम पर जबरदस्ती थोपी गई हरित क्रांति के दूरगामी परिणाम बहुत अच्छे साबित नहीं हुए। पूरे हरित क्रांति में स्थानीय भूगोल और जलवायु की परवाह किए बगैर गेंहूँ और चावल की मोनोकल्चर एग्रीकल्चर को प्रोत्साहन दिया गया । हरित क्रांति ने फसलों की विविधता को पूरी तरह प्रभावित किया। पारंपरिक स्थानीय फसलों की बुवाई में बहुत तेजी से कमी दर्ज की गई । हरित क्रांति के पहले पूरे खरीफ सीजन का 46 प्रतिशत उत्पादन बाजरा के रूप में होता था, जबकि धान का उत्पादन सिर्फ 13 प्रतिशत था । अगर रबी की फसल की बात करें तो हरित क्रांति पहले कुल रबी की फसल का 42 प्रतिशत चना और मात्र 4.3 प्रतिशत गेहूँ होता था । हरित क्रांति के बाद स्थितियां बिल्कुल बदल गयीं। चावल और गेहूं की फसलों में लगातार वृद्धि होती गई और हमारे पारंपरिक मोटे अनाज पिछड़ते चले गए । इसके अलावा हरित क्रांति के पर्यावरणीय प्रभाव भी भयावह साबित हुए। भू जलस्तर जबर्दस्त कमी आई। हमारे मिट्टी जहरीली हुई, हमारा पानी प्रदूषित हुआ, जैवविवधता नष्ट हुई और सबसे बडी बात कि हमारे अनाजों और खाद्य पदार्थों में भी खतरनाक पेस्टिसाइड्स की मात्रा पाई जाने लगी । पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में रासायनिक कीटनाशकों के खतरनाक इस्तेमाल के कारण कैंसर की समस्या पैदा हो गई। जिससे आज भी बहुत सारे लोग जूझ रहे हैं । हरित क्रांति के भयावह परिणामों के पीछे का कारण यह है कि हरित क्रांति, मुख्य वाटर इंटेंसिव और केमिकल फर्टिलाइजर इंटेंसिव खेती पर जोर देती है । हरित क्रांति की फसलों को बहुत ज्यादा मात्रा में पानी और कीटनाशकों की जरूरत होती है। इसके अलावा इन फसलों को बोने का लागत मूल्य भी अधिक आता है। ये फसलें स्थानीय जलवायु और भूगोल के हिसाब से सस्टेनेवल नहीं हैं।
फिर सवाल ये उठता है कि आगे का रास्ता क्या है? भोजन का भूगोल से गहरा रिश्ता होता है । जहाँ का जैसा भूगोल वहाँ का वैसा भोजन। हमारी प्रकृति स्थानीयता और विविधता का भरपूर सम्मान करती है। आने वाला भविष्य मोटे अनाजों का है । विशेषज्ञ बताते हैं कि मोटे अनाज जलवायु परिवर्तन की मार से लड़ सकते हैं । मोटे अनाजों को उगाने के लिए बेहद कम पानी हो ज़रूरत होती है । इन्हें उगाने में रसायनिक खाद और कीटनाशकों की जरूरत भी ना के बराबर पड़ती है । ये अनाज हमारे स्थानीय भूगोल से जुडे हुए अनाज है इसलिए फसलों की विविधता और मिट्टी की सेहत भी इनसे अच्छी होती है । यही नहीं इन मोटे अनाजों में सूखा और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को सहन करने की क्षमता भी है । अगर मोटे अनाजों की बात करें तो इसमें ज्वार, बाजरा, रागी, कंगनी, कोदो, चीना, सांवा, कुटकी, सल्हार और कांग जैसे अनाज आते हैं। अंत में सबसे जरूरी बात यह है कि जिसके गेहूँ और धान को हमारी खाद्य सुरक्षा को पूरा करने के नाम पर लाया गया था, वहीं गेहूं और धान हमारे पोषण की जरूरतों को पूरा करने में नाकाम रहे हैं । गेहूँ और चावल से आप पेट तो भर सकते हैं, लेकिन पोषण संबंधी जरूरतों के लिए मोटे अनाज की तरफ जाना होगा । गेहूँ और चावल के मुकाबले मोटे अनाजों से ज्यादा पोषण पाया जाता है । भारत सरकार ने अगले साल यानी 2023 को मोटा अनाज वर्ष भी घोषित किया है ताकि मोटे अनाजों को फिर से अपने खान पान का अहम हिस्सा बनाया जा सके। तो यदि कोई ये पूछे कि मोटे अनाजों का भविष्य बेहतर क्यों है? तो इसका जवाब ये है कि ये गेंहू और धान के मुकाबले कम पानी लेते हैं, कम कीटनाशक रसायन लेते हैं , कम रासायनिक खाद लेते हैं और और ये अनाज, गेहूँ और चावल बनिस्पत बहुत ज्यादा पौष्टिक और पोषण से भरपूर हैं।
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