रासायनिक उर्वरकों का दुष्प्रभाव – Saubhagya Pandey

वर्तमान भारत के आंकड़े ये बता रहे है कि भारत मे ग़रीबी और भुखमरी पहले के मुकाबले न्यून हो रहीं है,लेकिन देश की आज़ादी के पहले और आज़ादी की लड़ाई के दैरान यह एक गम्भीर समस्या थी। 1943 में आए भयंकर अकाल ने तत्कालीन अंग्रेजी सरकार को हिला कर रख दिया था, जिससे आम लोगों खासकर ग़रीब किसानों का जनजीवन बुरे तरीके से प्रभावित हुआ था। इस भयंकर अकाल ने उस समय के सरकार और लोगों को यह एहसास करा दिया कि भूखे लोगों की पेटो को भरना उनकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, इसके बाद पैदावार को ज्यादा से ज्यादा बड़े स्तर पर बढ़ाने के उपाय तलाशे जाने लगे, इसके बाद से ही हरित क्रांति की शुरुआत हुई । और यहीं से धीरे-धीरे बीजों और उनके बुआई के नए तौर-तरीकों और रासायनिक खादों की खुराको को बढ़ाने की शुरुआत हुई।
इसके साथ ही हम खाद्य उपलब्धता की तरफ तो बढ़े, लेकिन खाद्य सामग्रियों की गुणवत्ता धीरे-धीरे रसायनिक उर्वरकों के भयंकर इस्तेमाल से खराब होती चली गई।
एक ओर भोजन में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हुई, वहीं दूसरी तरफ खेती में ऐसे रासायनिक खादो का उपयोग अधिक हो गया जो शरीर के साथ-साथ पर्यावरण के लिए खतरनाक थी।


ये बदलाव मिट्टी में अधिक रसायनिक खादों के इस्तेमाल के बाद बदली हुई मिट्टी की ख़राब गुणवत्ता
कारण हुआ।


रसायनिक खादों के बेजा इस्तेमाल के कारण भयंकर प्रदूषण बड़ा, इसे समझने के लिए हम रासायनिक खाद में प्रमुख रूप से इस्तेमाल होने वाले यूरिया से समझ सकते हैं।
यूरिया नाइट्रोजन का सबसे बड़ा स्रोत है, यह पर्यावरण में कई रूपों में मौजूद रहता सकता है ,यह मिट्टी, हवा और पानी में मिलकर आम सेहत और पर्यावरणीय पारिस्थितिक तंत्र पर अपना गहरा प्रभाव डालता है। एक किसान अपने खेत में जो यूरिया डालता है उसका लगभग 33 प्रतिशत फसल इस्तेमाल करती है और बाकी लगभग 67 प्रतिशत हवा और मिट्टी ग्रहण करता है। और यही रासायनिक खाद यूरिया नाइट्रेट के रूप में मिट्टी के भूमिगत जल में पहुंच जाता है ,और वहा मौजूद जल को प्रदूषित करता है। इस प्रदूषण के कारण आमलोगों में कैंसर जैसी गंभीर बीमारी देखने को मिल रही है।


अब बाकी बचा रासायनिक बादलों में पहुंचकर वहां के पर्यावरण को प्रभावित करता है ,और नाइट्रस ऑक्साइड व नाइट्रोजन ऑक्साइड बारिश के जरिए वापस जमीन पर आ जाते हैं। यहीं नाइट्रोजन ऑक्साइड वाहनों एवं औद्योगिक इकाइयों के माध्यम से आम लोगों के फेफड़ों तक पहुंच जाता है ,और भयंकर श्वास संबंधी बीमारियों का कारण बनता है।


जब यह यूरिया नदी,झीलों या समुद्र में जाता है तब यह जलीय वनस्पति में वृद्धि करता है और इससे बाकी प्राणियों को ऑक्सीजन नहीं मिल पाता, इससे सबसे अधिक प्रभावित मछलिया होती है क्योंकि मछलियों के लिए जरूरी ऑक्सीजन जलीय वनस्पतियां इस्तेमाल कर लेती हैं।
रासायनिक खाद के अधिक उपयोग से खेत की मिट्टी में अम्ल की मात्रा बढ़ने जाती है, साथ ही जिंक और बोरान जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी हो जाती है । इसका दुष्प्रभाव मिट्टी पर तो पड़ता ही है, साथ ही यह मनुष्य के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है।


कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार मिट्टी में इन पोषक तत्वों की लगातार कमी से फसल उत्पादन तो प्रभावित होगा, वहीं जिंक की लगातार कमी से मनुष्यों में बाल झड़ने के साथ ही शरीर का विकास भी थम सकता है। और यह बच्चों के कुपोषण का कारण भी बनता है।
अगर रासायनिक खादों के उत्पादन और उसके उद्योग पर नज़र डालें, तो हम देखेंगे कि,आज भारत जैसे विकासशील देश में 60 बड़े, करीब इतने ही मझले और 64 छोटे दर्जे के ऐसे उद्योग हैं जो खेती के रसायनों की आपूर्ति कर रहे हैं। लगभग हर वर्ष 121.10 लाख मीट्रिक टन रासायनिक खादों का उत्पादन भारत में होता है, जो दुनिया में तीसरे नम्बर पर है। और बाजार में इनकी हिस्सेदारी 25 फीसद की है।


1950-51 में देश में उर्वरक की खपत प्रति हेक्टेयर एक चौथाई से कम होती थी। आज स्थिति बिल्कुल अलग है।


खेती में नाइट्रोजन और फास्फोरस की अधिक आवश्यकता होती है। ये दोनों मुख्य उर्वरक हैं। आज हम करीब 121.10 लाख मीट्रिक टन नाइट्रोजन और 57 लाख मीट्रिक टन फास्फोरस पैदा करते हैं। इतनी मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग पर्यावरणीय विषमताओं का भी कारक है। इन खादों का अधिकांश हिस्सा पानी के साथ या तो नदी-नालों के रास्ते समुद्र या फिर भूमिगत जल को प्रदूषित करता है। जैसा को हम उपर समझ चुके है।


यह भी देखा गया है कि रासायनिक खादों में पाया जाने वाला ‘फास्फेट’ के अधिक उपयोग से मिट्टी में यूरेनियम-238 की मौजूदगी बढ़ जाती हैं, जो बाद में पानी-भोजन के साथ हमारे शरीर में भी पहुँच सकता है। रासायनिक खादों के लगातार अत्यधिक उपयोग से मिट्टी में अतिसूक्ष्म आवश्यक तत्वों की भी कमी आती है। पिछले 40-50 सालों में जिंक, लौह, तांबा एवं मैग्नीशियम हमारी मिट्टी से खत्म से हो गये हैं।

रासायनिक खादों के उत्पादन में ऊर्जा स्रोतों का अत्यधिक उपयोग होता है जिसके भी दुष्परिणाम आने लगे हैं। अमोनिया खाद बनाने के लिये दुनियाभर की 5 प्रतिशत जलाऊ गैस का उपयोग किया जाता है। चूँकि नाइट्रोजन खाद की माँग अधिक है इसलिये उसके उत्पादन से नाइट्रस ऑक्साइड कार्बन डाइऑक्साइड के बाद दूसरा बड़ा वायु प्रदूषण का कारण बन रहा है।


दूसरे देशों में खासतौर से यूरोपीयन देश जैसे न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क, फ़िनलैंड ,ब्रिटेन तथा ऑस्ट्रेलिया ने इस दिशा में जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिये हैं। वहाँ पानी-मिट्टी और पर्यावरण परिस्थितिक तंत्र को रासायनिक उर्वरकों के प्रदूषण से बचाने के लिये कायदे-कानून बन चुके हैं।
साथ ही खेती में उनके उपयोग पर कड़ाई ने निगरानी भी शुरू हो चुका है,पर अपने देश में नियंत्रण ना बराबर है जिसके अभाव में हालात गम्भीर हो रहे हैं, औऱ आगे आने वाले सालों में इसे नियंत्रित नही किया गया तो हालात औऱ गंभीर होंगे।


देश भर की सरकारों को चाहिए कि मिट्टी की सेहत और पर्यायवरण को बचाने के लिये जैविक खादों के उत्पादन को अधिक से अधिक बढ़ावा दे और जैविक खादों के उत्पादन को उद्योगों के दायरे में ले आये ।


और इन उर्वरकों पर अधिक से अधिक सब्सिडी दे, जिससे किसान रसायनिक खादों के कुचक्र से बच सके । इससे पर्यावरण तंत्र और भोजन की गुणवत्ता, दोनों की वृद्धि होगा l


जैविक खाद उद्योग बड़े शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्र के महिलाएं जो अर्थिक तंगी की शिकार है, उन्हें रोजगार दे कर आत्मनिर्भर बना सकते हैं।

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© Saubhagya Pandey
Email- saubhagyapandey33@gmail.com

One Comment

  1. आसान भाषा में और सरलता से लिखा गया ये लेख , लोगो के जागरुकता फैलाने में प्रभावी होगा । सबसे बड़ी समस्या है लोग दीर्घ कालीन समस्या को नजर अंदाज करते हुए ,अल्प कालीन समस्या का निवारण ढूढते है

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