“इको फ्रेंडली कॉलेज” – सौभाग्य पांडेय

भारत युवाओं का देश है। बड़ी संख्या में युवा कॉलेजों में पढ़ते हैं। अगर हम अपने कॉलेजों को इको फ्रेंडली बनाते है, तो न सिर्फ इसका असर एक बड़े पैमाने पर पर्यावरण पर होगा बल्कि देश के युवा वर्ग में एक बड़ी जागृति भी आएगी।
इस काम के लिए किसी भी बड़े सरकारी मदद या बहुत ज्यादा पैसे की जरूरत नहीं है, यह काम कॉलेज प्रशासन एवं छात्रों के थोड़े से प्रयास किया जा सकता है।
एक इंजीनियरिंग कालेज के छात्र होने के नाते मैंने जो महसूस किया है, इस लेख के माध्यम से बताना चाहूंगा।
हम पहले यह समझेंगे कि कालेजों को इको फ्रेंडली बनाने के लिए हमें क्या करना होगा। फिर हम यह समझेंगे कि यह कैसे किया जा सकता है ,या फिर हम इसकी शुरुआत कैसे कर सकते हैं।
कालेज कैंपस को को इको फ्रेंडली बनाने के लिए हमें तीन प्रमुख पॉइंट्स पर काम करना होगा,
1- जल प्रबंधन (Water Management)
2- ऊर्जा संरक्षण या Energy Consumption को कम करना।
3- ठोस कचरा का प्रबंधन (Solid Waste Management) करना ।
अगर इनके बारे में थोड़ा विस्तार से बात करें तो, जल प्रबंधन( water management) के लिए हमें तीन स्तरों पर काम करना होगा।
1- वर्षा जल संरक्षण (rainwater harvesting)
2-उपयोग किए हुए पानी का पुनर्चक्रण (wastewater treatment)
3- पानी के वर्तमान उपयोग को वैज्ञानिक विधियों द्वारा कम करना।

इस प्रकार से कॉलेज कैंपस को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है । इससे न सिर्फ कॉलेजों का गिरता हुआ भूजल स्तर(Ground Water Table) रुकेगा बल्कि कॉलेज बाहर के किसी जलस्रोत पर निर्भर नहीं रहेंगे।
अगर हम उर्जा संरक्षण की बात करें तो हमें परंपरागत बिजली पर निर्भरता कम करनी होगी, हमें अपने कैंपस को इस तरह बनाना होगा कि हम प्राकृतिक प्रकाश (natural light) का इस्तेमाल कर सकें। साथ ही हमें सौर ऊर्जा का बेहतर इस्तेमाल करना सीखना होगा। इसके साथ ही हमें अपने कैंपस को क्षेत्रीय जलवायु के संदर्भ से जोड़ना होगा, जिस जगह की जैसी जलवायु है और जैसा मौसम रहता है उस हिसाब से भवन का निर्माण करना होगा।
यूरोप और पश्चिम का अंधानुकरण हमें तत्काल छोड़ना होगा। इस तरह से पारंपरिक ऊर्जा के इस्तेमाल को कम किया जा सकता है।
अब हम बात करते हैं ठोस कचरा प्रबंधन (solid waste management) की। कॉलेजों से निकलने वाले ठोस कचरे(solid waste) का यदि प्रबंधन किया जाए तो न सिर्फ हमें आर्थिक लाभ हो सकता हैं, बल्कि हम इससे zero waste कॉलेज कैंपस भी तैयार कर सकते हैं। ठोस कचरा प्रबंधन के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम है कचरे को अलग-अलग हिस्सों में बांटना, यदि कचरे को जैविक(Organic), अजैविक (inorganic) और हानिकारक कचरे(Hazardous Waste) को शुरुआत में ही अलग-अलग कूड़ेदान के माध्यम से बांट दिया जाए तो इसका निस्तारण और प्रबंधन अत्यंत आसान हो जाता है।
जैविक कचरा जहां कंपोस्ट इत्यादि बनाने के काम आता है ,वही बाकी कचरे को रिसाइकल किया जा सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि यह कैसे किया जा सकता है या फिर इसकी शुरुआत कहां से की जा सकती है। यदि हम जल प्रबंधन की बात करें तो इससे जुड़े जल संरक्षण को कॉलेज के छात्र एवं प्रशासन इसे मिलकर अंजाम दे सकते हैं।
कॉलेजों में खाली पड़ी जगहों का इस्तेमाल किया जा सकता है। इंजीनियरिंग और तकनीकी के कॉलेजों में यह काम और भी आसान हो जाता है, क्योंकि वहां पर इस विषय को जानने और पढ़ने वाले छात्र पहले से ही मौजूद होते हैं। यह उनके लिए प्रायोगिक ज्ञान (practical knowledge )प्राप्त करने का एक बेहतर तरीका हो सकता है। उदाहरण के लिए किसी कॉलेज में civil, mechanical, electrical chemical Engineering जैसे विषयों के छात्र मौजूद हो तो उन्हें यह सामूहिक टास्क दिया जा सकता है।
आज जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई सिर्फ किताबों तक सिमट कर रह गई हैं। आज जब बच्चों को बस थ्योरी की बातें ही पता रहती हैं ,यह तरीका पर्यावरण के साथ-साथ प्रायोगिक समझ (Practical Experience) विकसित करने में क्रांतिकारी काम कर सकता है।
यही तरीका (wastewater treatment) के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जल शोधन (Water Treatment) के बेहद आसान तरीके से पानी को साफ करके उसे बागवानी, साफ-सफाई जैसे कार्यों में लगाया जा सकता है।
आज जब ज्ञान(Knowledge) का क्रियान्वयन (Implementation) से रिश्ता टूटता जा रहा है। जब Assignments के रूप में कॉपियों के पन्ने भरे जाते हैं, MS-Word की फाइलें बनाई जाती है और PPT दिया जाता है। तब हम ऐसा Assignment क्यों नहीं दे सकते जिसमें छात्रों के एक समूह को जल शोधन (wastewater treatment) की जिम्मेदारी दी जाए।
आखिर पढ़के सीखने से कहीं बेहतर है ,करके सीखना । क्योंकि भविष्य में प्रैक्टिकल नॉलेज ही छात्रों के काम आता है। ठीक यही प्रक्रिया हम पानी के उपयोग को कम करने में भी लगा सकते हैं ।
हम बेहतर से बेहतर तकनीकी और अपनी जरूरत के अनुसार उस तकनीकी के इस्तेमाल से पानी के वर्तमान उपयोग को कम कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए आरो (RO) द्वारा फिल्टर करने के दौरान निकलने वाले पानी को बचा कर उपयोग किया जा सकता है।
अगर हम ऊर्जा के उपयोग को कम करने की बात करें तो इसके लिए हमें कॉलेजों के कैंपस को प्रकृति से जोड़ना होगा ।आज देश के अधिकतर कॉलेजों में पढ़ाई का अर्थ क्लास रूम और डेस्क बेंच तक सीमित रह गया है। हमें पढ़ाई के इस तरीके को बदलना होगा। कुछ क्लासेज हम क्लास रूम से बाहर क्यों नहीं ले सकते, इसके बारे में महान विद्वान एवं नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने बहुत कुछ लिखा है। और उन्होंने इसे करके भी दिखाया है। टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की, जिससे मौसम एवं क्षेत्रीय संदर्भ के हिसाब से कक्षाएं आयोजित की जाती थी। उदाहरण के लिए यदि कड़ाके की ठंड पड़ रही हो और बाहर धूप निकली हो तो क्लास रूम के अंदर हीटर या A.C लगाकर पढ़ने से कहीं बेहतर है कि हम उस दिन की क्लास खुले आकाश में धूप के नीचे लगाएं।
या फिर मानसून के मौसम में यदि ठंडी या ताजी हवा चल रही हो तो उस दिन क्लासरूम में उमस और गर्मी से बचने के लिए उस दिन की क्लास बाहर लगायें।
इसके साथ ही ओपन लाइब्रेरी या ओपन स्टडी रूम जैसी चीजें हॉस्टलों एवं कॉलेज कैम्पसों में अपनाई जा सकती हैं। जिससे उपयुक्त मौसम में हम बिजली इत्यादि पर निर्भरता को कम कर सके। इसके अलावे हमें भवन निर्माण की तकनीकी में भी बदलाव लाने की जरूरत है। हमें भवन निर्माण सामग्री (बिल्डिंग मटेरियल) अपने जलवायु के हिसाब से चुनना होगा।
इसके साथ ही निर्माण तकनीकी में ऐसी बदलाव लाने होंगे जिसके कि प्राकृतिक प्रकाश एवं ताजी हवा को बंद कमरों के अंदर लाया जा सके। इसके साथ ही हमें सौर ऊर्जा के प्रभावी उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना होगा। देश के एक बड़े हिस्से में सौर ऊर्जा की अपार संभावनाएं हैं। इन संभावनाओं का इस्तेमाल आसानी से किया जा सकता है ।
अगर इंजीनियरिंग कॉलेजों की बात करें तो यहां यह काम और भी आसान है क्योंकि इस विषय से जुड़े अनेक छात्रों का इस्तेमाल कर कॉलेजों को Energy Efficient बनाया जा सकता है।
अब ठोस कचरा प्रबंधन यानी (Solid Waste Management) की बात करते हैं।
कॉलेजों के हिसाब से देखें तो यह काम बहुत आसान होना चाहिए क्योंकि कॉलेजों में ज्यादातर पढ़े-लिखे एवं समझदार छात्र होते हैं। यदि उन्हें कचड़े के पृथक्करण (Segregation) के लिए अलग-अलग हर जगह कूड़ेदान दिए जाएं तो कचरे को आसानी से जैविक अजैविक एवं हानिकारक कचरों में बांटा जा सकता है। यह काम कॉलेज की औपचारिक एवं अनौपचारिक समूह(Societies) की मदद से किया जा सकता है। इसके लिए कॉलेजो की सोसाइटीज को किताबी चीजों से थोड़ा सा बाहर आना होगा। पढ़के सीखने की जगह करके सीखने पर जोर देना होगा।
अपने कॉलेजों में ऐसी चीजों की जिम्मेदारी हमें अपने हाथों में लेनी होगी। यदि हम सिर्फ जैविक कचरे की कंपोस्टिंग कर सके तो यह अपने आप में बहुत बड़ा कदम है। इसके लिए बहुत ज्यादा तकनीकी ज्ञान की जरूरत नहीं होती, हमारे कॉलेज सोसाइटीज को ऐसी चीजें सीखना होगा।
हमें थोड़ी बहुत बागवानी भी सीखनी होगी ताकि कॉलेज की खाली पड़ी जमीनों का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके, अगर कॉलेजों में जमीनों की उपलब्धता है तो हमें थोड़ी बहुत ऑर्गेनिक फार्मिंग सीखनी होगी, ताकि हम कॉलेजों के लिए बेहतर चीजें उगा सके, जिसका उपयोग हम कॉलेजों के कैंटीन या हॉस्टल के मेस में कर सकें।
आज जब युवा दिन-ब-दिन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके बोर हुए जा रहे हैं। आज जब यांत्रिकता हमें अकेला करके छोड़ दे रही है। आज जब प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता कमजोर होता जा रहा है। आज जब युवाओं में डिप्रेशन और तनाव जैसी चीजें सामान्य होती जा रही हैं। ऐसे में यह समय है कि हम प्रकृति के साथ अपने रिश्तो को पुनर्परिभाषित करें ।यह काम हम युवाओं को ही करना होगा ।
महान साहित्यकार लियो टॉलस्टॉय की एक पंक्ति के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा ।
“One of the first condition of happiness is that the link between man and nature shall not be broken.”
saubhagyapandey33@gmail.com

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