वह त्रेता युग था जब कार्तिक मास की अमावस्या के दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम रावण का वध करके तथा 14 वर्षों के वनवास के उपरांत अयोध्या वापस लौटे थे। अपने प्रिय राजा के वापस लौटने के उपलक्ष्य में तथा अच्छाई की बुराई पर जीत की ख़ुशी में उस समय पूरा नगर दीपमालाओं से सजाया गया था। ऐसा कहते हैं कि उसी घटना के उपरांत दिवाली की शुरुआत हुई जो कि अब तक चली आ रही है। परंतु यह कथा लगभग सभी लोग जानते हैं।
हम सब यह जानते हैं कि दिवाली क्यों मनाई जाती है आज हम यहां जिन बिंदुओं पर बात करना चाहेंगे वह यह है कि, “दिवाली क्यों मनाई जा रही है!” या फिर “दिवाली क्यों मनाई जानी चाहिए!”
दिवाली प्रकाश का पर्व है। आज जब सैद्धान्तिक नहीं तो कम से कम व्यवहारिक सत्य यह है कि बुराई, अंधकार, नकारात्मकता और इसके जैसी अन्य कई तरह की बुरी चीजें अच्छी चीजों पर हावी हो रही हैं। आज जब कोई राम सोने के चमचमाते महानगर में अपने किसी लक्ष्मण से यह कहने वाला नहीं बचा है कि, “अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी।।” अर्थात यद्यपि यह महानगर सोने का है परंतु फिर भी मुझे अच्छा नहीं लगता क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
आज जब गांवों और छोटे शहरों में एक आम धारणा है कि पढ़ाई,चिकित्सा और रोजगार के लिए एकमात्र विकल्प यही है कि आपको अपनी जन्मभूमि को छोड़कर उसी लंका रूपी चमचमाते महानगरों की तरफ पलायन करना होगा। जब भ्रष्टाचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद ,भाषावाद और संप्रदायवाद जैसी विभाजनकारी शक्तियां समाज के सतह पर आ गई हैं तो त्रेतायुग के उस दिवाली की जिसमें रावण हार जाता है! जिसमें भरत जैसा भाई अपने भाई के लिए सिंहासन छोड़ देता है या फिर जिस दौर में वचन के समक्ष प्राणों को भी तुच्छ समझा जाता था। क्या त्रेतायुग के उस दिवाली का औचित्य सिर्फ प्रतीकात्मक रूप में ही शेष है या उसके अंदर कुछ गंभीर तत्व भी विद्यमान हैं? इन सारी बातों के बावजूद हमें दिवाली सिर्फ इसलिए नहीं बनाना चाहिए कि हमारे समाज में किसी समय पर नैतिक मूल्य इतने ऊंचे थे। क्योंकि परंपराएं कर्मकांड का विषय नहीं है! परंपराओं की पूजा नहीं होनी चाहिए। परंपराओं में बहुत सारी अच्छी चीजें होती हैं और बहुत सारी बुरी चीजें भी होती हैं। परंपरा नदी से आने वाली उस बाढ़ के समतुल्य है जो लाभकारी नई मिट्टी तो अवश्य लाती है परंतु साथ ही ढेर सारा कूड़ा कचरा भी लाती है। परंपरा वह है जो विचार और व्यवहार हमारे कल, आज और कल को जोड़ सके! अर्थात परंपरा वह है जो हमारे अतीत को हमारे वर्तमान से और वर्तमान को भविष्य से जोड़ सके! हमारा यह दायित्व है कि हम परंपराओं के कूड़े कचरे को अलग करें और बहुत सारे अच्छे विचारों को अपनाएं। हमारे कई सारे पर्वों को प्रदूषण के साथ भी जोड़कर देखा जाता है। असल में समस्या त्योहारों के साथ नहीं है! औद्योगीकरण और शहरीकरण ने लोगों के जीवन जीने के तरीकों को बदल कर रख दिया है। हजारों वर्षों से जिन प्राकृतिक पदार्थों का इस्तेमाल होता आ रहा था आज उनकी जगह कई सारे ऐसे पदार्थों का इस्तेमाल हो रहा है इनसे प्रदूषण होता है। आज जरूरत है कि हम अपने पर्वों में छुपे प्राकृतिक तत्व को ढूंढ निकाले और उनका प्रयोग पूनम शुरू करें।
दिवाली भारत की उत्सव धर्मिता का प्रतीक है। आज जब लोगों में अकेलापन, तनाव, अवसाद और आत्महत्या जैसी चीजें पाई जा रही हैं। तो दीवाली जैसे पर्व और भी जरूरी हो जाते हैं। त्यौहार हमें चीजों को साझा करना सिखाते हैं। दिवाली जैसे त्यौहार में इतने शहरीकरण के बावजूद बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो सामूहिक रूप से साझा होती हैं। दिवाली ना सिर्फ हमें अपने गौरवशाली अतीत से जोड़ती है बल्कि या हमें भविष्य के तरफ से एक रास्ता भी दिखाती है। वह रास्ता सतत पोषणीय विकास का रास्ता है। वह रास्ता हमारे प्रकृति में छुपे हुए सूक्ष्म प्राकृतिक तत्वों का रास्ता है। वह रास्ता प्रकृति को सजीव और सहजीव मानकर उसके मूल में पंचतत्वों की परिकल्पना का रास्ता है। यह रास्ता हमारी नित्य नूतन चिर पुरातन संस्कृति से होकर जाएगा। दिवाली हमारी परंपरा का हिस्सा है और परंपरा स्थिर नहीं गतिशील होती है। हमारा यह दायित्व है कि हम दिवाली जैसे परंपरा में प्रकाश के दिए के रूप में कुछ अच्छी चीजें जोड़ें और अंधकार रूपी कुछ चीजें समाप्त करें। अंत में किसी कवि की पंक्तियों के साथ हम अपनी बात समाप्त करना चाहेंगे,
“हर अमावस को दिवाली में बदल सकता है वो,
एक से जो दूसरा दीपक जला ले जाएगा”
आप सबको “शुभ दीपावली”
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