Cheetah Reintroduction in India
भारत में वापस आ रहे हैं चीते – Team Indian Environmentalism अगले महीने अगस्त में 8 अफ्रीकी चीते नाबिबिया से भारत आ रहे हैं। दुनिया में चीतों की दो प्रजातियां है। एशियाई चीते भारत और ईरान जैसे कई एशियाई देशों में पाए जाते थे। जबकि, अफ्रीकी चीते जो अफ्रीका कई देशों में पाए जाते हैं। माना जाता है कि पचास से भी कम एशियाई चीते अब सिर्फ ईरान में बचे हैं। भारत में चीते 1952में हि विलुप्त हो गये थे. भारत में एशियाई चीतों को बसाना ज्यादा बेहतर रहता, लेकिन ईरान में इनकी बेहद कम संख्या और कमजोर जेनेटिक पूल के चलते अफ्रीकी चीतों को बसाने का प्रयोग किया जा रहा है। आइये जानते हैं की चीतों की विलुप्ति के कारण क्या थे और अब इन्हें जब आफ्रिका से वापस लाया जा रहा है तो पुनर्वास का प्रबंध कैसे किया गया है.
Man and Environment
सुप्रसिद्ध इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने अपनी किताब Man and Environment में बताया है की मध्यकालीन भारत में शिकार के लिये चीता का प्रयोग पूरे उपमहाद्वीप में लोकप्रिय था तथा इसका प्रयोग काले हिरणों (Black Bucks) के शिकार के लिये किया जाने लगा। इसके अलावा कई साक्ष्यों से पता चलता है कि उस समय चीतों को पकड़ने तथा प्रशिक्षित करने के लिये अनेक सेवक मौजूद रहते थे। मुगल शासक अकबर के पास 1000 पालतू चीते थे. चीते पिंजड़े के अंदर और सीमित बाड़े में प्रजनन नहीं कर सकते हैं. उन्हें प्रजनन के लिए स्वछंद प्राक्रतिक माहौल की जरूरत होती है. अपनी तेज़ गति तथा बाघ व शेर की तुलना में कम हिंसक होने की वजह से इसको पालना आसान था। तत्कालीन राजाओं और ज़मीदारों द्वारा इसका प्रयोग अक्सर शिकार के लिये होता था जिसमें ये अन्य जानवरों को पकड़ने में उनकी मदद करते थे। चीते को पालने का मुख्य कारण इनका सहज स्वभाव था और ये कुत्तों की भाँति आसानी से पाले जा सकते थे। बाघ, शेर तथा तेंदुए के विपरीत यह कम उग्र जानवर है। किसी जंगल से पकड़ कर लाए गए चीते को छह महीने के अंदर प्रशिक्षित किया जा सकता था। इनको ज़ंजीर से बांध कर रखा जाता था। राजाओं, ज़मीदारों तथा बाद में अंग्रेज़ अफसरों के शिकार के लिये चीता तथा उनके शावक बड़ी संख्या में जंगलों से लाए जाने लगे एवं यह सिलसिला 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अपने चरम पर पहुँच गया। औपनिवेशिक-कालीन स्रोतों की मानें तो एक प्रशिक्षित चीते की कीमत 150 रुपए से 250 रुपए के बीच थी तथा जंगल से पकड़े गए किसी चीते की कीमत 10 रुपए से ऊपर कुछ भी हो सकती थी। चीता के हमले से किसी इंसान की मृत्यु का साक्ष्य वर्ष 1880 में मिलता है। जब विशाखापत्तनम के गवर्नर के एजेंट ओ. बी. इरविन की मृत्यु शिकार के दौरान एक चीते के हमले से हो गई थी जो कि विजयानगरम के राजा का पालतू चीता था। इसके बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा चीते को हिंसक जानवर घोषित किया गया तथा इसको मारने वालों को पुरस्कार दिया जाने लगा. इसके आलावा इनके सहवास के लिए मौजूद जमीन भी समय के साथ कम होती चली गयी. इन सबका परिणाम ये निकला की चीते विलुप्त हो गए.
भारत की जैव विविधता कई मायने में अनूठी है। दुनिया भर में बड़ी बिल्लियों की आठ प्रजातियां पाई जाती हैं। इसमें से दो बड़ी बिल्लियां यानी जेगुआर और प्यूमा केवल अमरीकी महाद्वीप में पाई जाती हैं। जबकि, शेर (लॉयन), बाघ (टाइगर), तेंदुआ (लेपर्ड), चीता (चीता), हिम तेंदुआ (स्नो लेपर्ड) और बादली तेंदुआ (क्लाउडेड लेपर्ड) एशिया और अफ्रीका महाद्वीप में पाए जाते हैं. भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां पर बाघ और शेर दोनों ही पाए जाते हैं। जबकि, यहां पर एशिया-अफ्रीका में पाई जाने वाली बड़ी बिल्लियों की छहों प्रजातियां कभी पाई जाती थीं। लेकिन, वक्त की मार के साथ इनमें से चीता विलुप्त हो गया। सूखी जमीन पर चीता सबसे तेज दौड़ने वाला प्राणी है। यह भी माना जाता है कि चीते के शरीर पर पड़ी काली चित्तियों के चलते ही उसका नाम चीता पड़ा है। नाक के पास पड़ी काली धारियों जिसे टियर लाइन कहा जाता है, के जरिए चीतों को तेंदुए से अलग करके पहचाना जा सकता है। इसके अलावा, चीते के शरीर पर काले रंग की चित्तियां होती हैं जबकि तेंदुआ के शरीर पर पंखुड़ियों जैसे निशान होते हैं। वर्ष 1970 में भारत सरकार ने ईरान से चीतों को मंगाने की पेशकश की थी और बदले में ईरान को बाघ तथा एशियाई शेर देने का वादा किया था। लेकिन प्रारंभिक बातचीतों के बावजूद यह समझौता नहीं हो सका क्योंकि ईरान में चीतों की संख्या बेहद कम थी तथा ये हज़ारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए थे।
लेकिन अब नाबिबिया से चीते भारत लाये जा रहे हैं. इन्हें Convention on International Trade in Endangered Species Treaty के तहत रखा जायेगा. इनको रखने के लिए मध्य प्रदेश के कुनो पालपुर नेशनल पार्क का चयन किया गया है. इस पूरी परियोजना में 224 करोड़ रूपये खर्च होंगे. हालांकि, अफ्रीकी देश से लाकर यहां पर चीते को बसाने के प्रयोग को कितनी सफलता मिलेगी यह अभी भविष्य के गर्भ में है। लेकिन, अगर यह प्रयोग सफल होता है तो इस प्रजाति को बचाने में यह एक बड़ा कदम साबित होगा।