एक्सप्रेसवे अच्छे हैं या बुरे – Team Indian Environmentalism

एक्सप्रेसवे यानी तीव्र गति से चलने के लिए बनाई गई सडकें इन दिनों खूब चलन में हैं। इन्हें भीड़ भाड़ वाले ट्रैफिक के विकल्प के रूप में दिखाया जा रहा है। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों की सरकारें एक्सप्रेस को बढावा देने में लगी हैं। साथ ही ज्यादा से ज्यादा एक्सप्रेस बनवाना चुनावी मुद्दा भी बन रहा है। ये एक आम धारणा बनती जा रही है कि सडकों का भविष्य एक्सप्रेसवे ही होगा। ग्लोबलाइजेशन के दौर में एक्सप्रेस वे से महत्वपूर्ण शहरों की कनेक्टिविटी बढ़ती है. तेजी से बढते शहरीकरण के बीच एक्सप्रेसवे एक समाधान के रूप में दिखाई देते हैं। लेकिन एक्सप्रेसवे का एक दूसरा पक्ष भी है जिस पर थोड़ा सोचने और सुधार करने की जरूरत है। बात 1938 की है अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ड ने इच्छा व्यक्त किया कि हर अमेरिकी नागरिक के पास दो कारें और दो रेडियो सेट होंगे। भारत में जब गांधीजी से इसकी प्रतिक्रिया पूछी गई तो महात्मा गांधी ने कहा कि यदि हर भारतीय के पास सिर्फ एक कार होगी तो भी सडकों पर चलने के लिए जगह कम पड़ जाएगी। आज यह स्थिति हम सबके सामने है। अगर देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो दिल्ली की कुल भूमि क्षेत्रफल के 21 प्रतिशत भाग पर रोड या हाईवे बन चुके हैं। 1996 से 2006 के बीच रोड और हाईवे के क्षेत्रफल में बीस प्रतिशत इजाफा हुआ तो इन्हीं वर्षों में कारों की संख्या 132 प्रतिशत बढ़ गई। रोड पर यात्रा करने वालों में से औसतन सिर्फ पंद्रह प्रतिशत लोग कार से चलते हैं लेकिन पूरे रोड का नब्बे प्रतिशत हिस्सा इन कारों द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाता है। इसलिए रोड पर ना तो साइकिल वालों की कोई जगह बचती है और न ही पैदल चलने वालों की। रोड पर कार वालों का कब्जा है। नब्बे प्रतिशत रोड का क्षेत्रफल डकारों द्वारा इस्तेमाल होता है। हम साल दर साल हाइवे की नई लेन बनाते जाते हैं लेकिन कारों की संख्या हाईवे लेनों से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ती है। 1955 में प्रकाशित पुस्तक द सिटी इन हिस्ट्री में अमेरिकी लेखक और इकोलॉजिस्ट लुईस ममफोर्ड ने लिखा है कि ट्रैफिक की भीडभाड को कम करने के लिए नए हाईवे लेन बनाना ठीक वैसे ही है जैसे हम मोटापे को कम करने के लिए अपने बेल्ट ढीली कर लें। दोनों ही परिस्थितियों में हमें कोई खास लाभ नहीं होता। दरअसल हमारी पूरी यातायात प्लानिंग ही कार केंद्रित है। हमें इसे बदलने की जरूरत है। सड़क यातायात को समावेशी और समतापूर्ण बनाने की जरूरत है जिसपर सबका हो। राजधानी दिल्ली में होने वाले सड़क हादसों में मरने वाले 81 प्रतिशत लोग साइकिल, मोटरसाइकिल, पैदल चालक या साइकिल रिक्शा वाले हैं। इसके अलावा एक्सप्रेस वे से होने वाले पर्यावरणीय परिणाम भी चिंताजनक है। कई इकोलोगीकली सेंसटिव जगहों पर भी ऐसे हाईवे लगातार बनाए जा रहे हैं। एक्सप्रेस वे राजनैतिक और आर्थिक केंद्रीकरण और ज्यादा बढ़ाते हैं। जिससे समावेशी विकास का रास्ता कठिन हो जाता है। हमें नहीं भूलना चाहिए की एक समय सफलता का पर्याय माने जाने वाली हरित क्रांति का आज कैसा भयावह परिणाम हमारे सामने आ रहा है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1991 में शुरू हुए वैश्वीकरण और उदारीकरण का क्या हस्र हुआ है। हमें यह समझना होगा कि एक्सप्रेसवे का यह रास्ता आज के पचास साल बाद हमें कहाँ ले जाएगा। महात्मा गांधी ने एक बार अंधी दौड़ का जिक्र किया था। अगर हम रास्ता नहीं बदलते तो हम वहीं पहुंच जाएंगे जिधर हम बढ़ रहे हैं।
शीन काफ निजाम साहब के इस शेर के साथ बात खत्म-
“सब इसी धुन में भागे जाते हैं
कोई आगे निकल ना जाए कहीं”

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