90 के दशक में शुरू हुए उदारीकरण के बाद गांवों से शहरों की तरफ पलायन एक सामान्य प्रक्रिया बन गई है । आज के समय में शहर को समस्त संभावनाओं का केंद्र मान लिया गया है ।शहर सपनों को पूरा करने का जरूरी जरिया बन गए हैं।शहर समाधान हैं और शहरीकरण भारत का भविष्य ,ऐसी मान्यता बन चली है।
ऐसे समय में एक महामारी आती है और शहर उन लाखों लोगों का भार नहीं उठा पाता, जो लोग कभी अपने सपनों को पूरा करने के लिए गांव से शहर आए थे। फिर अचानक पलायन की दिशा बिल्कुल विपरीत हो जाती है। गांव से शहर की जगह शहरों से गांव की तरफ पलायन शुरू हो जाता है। महामारी के दौर में घटी इस घटना से हमें सीख लेना चाहिए और बुनियादी बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए।
लेखों की श्रृंखला के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि गांव की ओर लौटना एक बेहतर विकल्प कैसे हो सकता है। वर्तमान भारत के संदर्भ में गांव समाधान कैसे हैं। कैसे आधुनिक सभ्यता से उत्पन्न हुई समस्याओं के इलाज का रास्ता गांव से होकर गुजरेगा। सबसे पहले हम कुछ समान्य आंकड़ों की मदद से स्थिति को समझेंगे, फिर उस स्थिति के कारण उत्पन्न हुई दशा को समझेंगे, फिर आगे की दिशा क्या हो सकती है यह देखने का प्रयास करेंगे।
भारत की 65-70 प्रतिशत आबादी आज भी गांव में रहती है, भारत की कुल आबादी के 50 फ़ीसदी के आसपास लोग आज भी कृषि से जुड़े हुए हैं, लेकिन यह 50-55 प्रतिशत लोग जीडीपी में 15 फ़ीसदी योगदान ही दे पाते हैं। मतलब यह है की खेती करने वाले लोग बहुत अधिक हैं लेकिन उस हिसाब से खेती का योगदान जीडीपी में नहीं है।
इसके अलावा गांव में शिक्षा व्यवस्था( प्राइमरी से प्रतियोगी परीक्षा तक), स्वास्थ्य व्यवस्था , रोजगार व्यापार के लिए बाजार जैसी मूलभूत चीजों की भारी कमी है। इसके अलावा अनेकों सामाजिक बुराइयां भी मौजूद हैं। इन सभी बातों का निष्कर्ष एक आम व्यक्ति के लिए यह निकलता है कि गांव में आगे बढ़ने के अवसर बहुत सीमित हैं । अब बजाए इसके कि गांव की इन कमियों को दूर किया जाए एक आम व्यक्ति शहर को समाधान के रूप में देखता है।
इसके परिणाम स्वरुप गांव से शहरों की तरफ पलायन दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है। लेकिन यहां सवाल ये है कि गांव का एक औसत व्यक्ति जब अपनी जड़ों को छोड़कर शहर जाता है तो उसे क्या मिलता है? भारत के लगभग सारे बड़े शहर बहुत घनी आबादी वाले हैं।गांव से गए एक नए व्यक्ति के लिए वहां गुणवत्तापूर्ण जीवन हासिल करना अत्यंत कठिन कार्य है।
भयंकर प्रदूषण और अत्यंत जनसंख्या घनत्व वाले छोटे-छोटे कमरों में चार – चार लोग रहने को मजबूर होते हैं। गांव की आमदनी के हिसाब से शहरों में क्रय शक्ति (purchasing capacity) अत्यंत कम हो जाती है । क्योंकि शहर में लगभग सभी चीजें गांव से महंगी हैं। अपनी मातृभाषा और मातृभूमि से जुड़ा हुआ स्वाभिमान शहरों में जाकर नष्ट हो जाता है , क्योंकि बड़े शहर क्षेत्रीय बोलियों और भाषाओं को हीनता की दृष्टि से देखते हैं।
कुल मिलाकर बात यह है कि एक औसत या ग़रीब व्यक्ति (जो कि बहूसंख्यक है) के लिए शहर भी कोई बहुत बेहतर विकल्प नहीं है । हम अनुभव और आंकड़ो के आधार पर यह देख सकते हैं कि शहरों ने गांव के एक औसत व्यक्ति को बहुत बेहतर जीवन नहीं दिया है। तो फिर समाधान क्या हो सकता है? हमें समाधान गांव में ही ढूंढना होगा, इससे ना सिर्फ व्यवस्था का विकेंद्रीकरण होगा बल्कि शहर और गांव के बीच विकास की विषमता भी दूर होगी।
श्रंखला इस भाग में हम खेती से जुड़े समाधानों की बात करेंगे ,आगे के लेखों में अन्य विषयों की बात होगी। अगर हम खेती को समाधान का हिस्सा बनाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें खेती को मुनाफे का सौदा बनाना होगा। जनसंख्या विस्फोट के कारण खेतो का आकार कम हो गया है। इसके अलावा भूमिहीन मजदूरों की अलग समस्या हैं। किसान जहां एक ओर आर्थिक और अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है वही दूसरी ओर पर्यावरण के दुष्प्रभाव से जूझ रहा है।
कोरोना महामारी ने हमें बताया है कि जीडीपी और आर्थिक विकास का सिर्फ सेवा क्षेत्रक (सर्विस सेक्टर) पर निर्भर रहना ठीक नहीं है । खेती पर यदि सबसे ज्यादा लोग आश्रित हैं तो इसे मुनाफे का सौदा बनाना ही होगा।
हमारी परिस्थितियां यूरोप के औद्योगिक क्रांति वाली नहीं हैं जैसा कि बहुत सारे लोग समझते हैं कि जैसा यूरोप में हुआ उसका हमारे यहां दुहराव होगा। ये उपनिवेश और साम्राज्यवाद के समय नहीं है और न ही हमारे शहरों में गांव के सभी लोगों के लिये रोजगार मौजूद है इसलिए हम खेती पर निर्भर रहना ही होगा।
इसके लिए हमें कुछ आमूल चूल बदलाव लाना होगा, खेती के उत्पादों के लिए प्रोसेसिंग यूनिट गांव स्तर पर समाज भागीदारी द्वारा स्थापित करना होगा। खेती का कच्चा माल जहां बहुत सस्ते में बिकता है, वहां प्रोसेसिंग के बाद इसकी कीमत अप्रत्याशित रुप से बढ़ जाती है उदाहरण के लिए यदि टमाटर सस्ता होने पर दो या पांच रुपए किलो बिकता है तो उसी टमाटर को यदि प्रोसेसिंग करके टोमैटो सॉस बना दिया जाए तो वह 300 रुपये किलो में बिकने लगेगा।
यही हाल आम के अचार पापड़ ,मुरब्बा इत्यादि के साथ भी है। इसीलिए हमें कच्चे सामान को सामूहिक रुप से प्रोसेस करके बेचना शुरू करना होगा। कई जगहों पर किसान ऐसा कर भी रहे हैं और अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं ।इसे जुड़ी दूसरी चीज यह है कि हमें खेती के कच्चे माल के लिए स्टोरेज की व्यवस्था करनी होगी, यह काम भी सामूहिक रुप से समाज ही कर सकता है। इसके लिए हमें बिजली की जगह सौर ऊर्जा से चलने वाले छोटे कोल्ड स्टोरेज बनवाने होंगे ताकि गांव के कच्चे माल को स्टोर किया जा सके।
इसके साथ ही हमें भू-जल (ट्यूबेल इत्यादि) पर निर्भरता कम करनी होगी। इसके लिए हमें सबसे पहले पानी के व्यय को कम करना होगा। आज के समय में ड्रिप इरिगेशन या स्प्रिंकल जैसी तकनीकों के माध्यम से ऐसा कर सकते है। इसके साथ-साथ भू-जल पर निर्भरता कम करने के लिए हमें वर्षा जल संचय करना होगा ,यह भी सामूहिकता की मांग करता है ।
गांव में ठोस कचरा प्रबंधन की समस्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है । हम रसायनिक खादों की जगह जैविक ठोस कचरे से सामूहिक स्तर पर कंपोस्ट(जैविक खाद) का निर्माण कर सकते हैं । इससे एक तरफ जहां कचरा प्रबंधन की समस्या खत्म होती है वहीं दूसरी ओर महंगे और हानिकारक रसायनिक खादों से मुक्ति मिलती है
गांव के किसानों को सामूहिक, समाज केंद्रित और व्यवहारिक समाधान ढूंढना होगा। और याद रखना चाहिए शहर की ओर ‘भागना’ समाधान नहीं है।एक शायर पक्तियों से लेख को समाप्त करता हूँ, बाकी बातें अगले लेख में-
“न हम-सफर न किसी हम- नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
इसी गली में वो भूखा फकीर रहता था
तलाश कीजे खज़ाना यहीं से निकलेगा”
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awesome
बेहतर लेख।
Bahut khub sir bahut accha effort hai, aaj ke ish modern time mai hame ye sochna chahiye ki jo hum log khate hai uska sirf 2 source hai 1 (plant and tree) 2 (animal and animal product) aur iska production badhana hai to hame gaov mai hi reh ke possible kyu ki sahar mai to rehne ke liye jagah nhi to kya boyenge aur kya kaatenge
👌👌
Problems with solutions , good job sir
You have shared a great idea for the people of rural india. I hope your voice is heard and these real solutions be applied soon. Highly appreciated 🙏
बहुत ही शानदार लेख 👍👍👍🙏🙏
waah nice blog