गांव की ओर लौटो -2 ~ अतुल पांडेय

गांधी जी ने कहा था कि “असली भारत गांवों में बसता है”। हमें अपने पर्यावरण के एजेंडे को और इससे जुड़े विमर्श को गांवों पर केंद्रित करना होगा, खुशहाल गांव से ही खुशहाल भारत का निर्माण संभव है। गांव के बिना पर्यावरण की कोई भी चर्चा अधूरी है ।


श्रंखला के इस लेख में हम गांव में शिक्षा की दशा और दिशा पर बात करेंगे। गांव की शिक्षा दुर्दशा शहरों की तरफ पलायन की प्रमुख वजहों में से एक है। शिक्षा के लिए होने वाला पलायन मुख्यतः उच्च शिक्षा (स्कूलिंग के बाद) एवं प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए होता है। लेकिन समस्या सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। प्राइमरी और स्कूली शिक्षा की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है। यदि गांव में स्कूली शिक्षा अच्छी नहीं है तो कोई भी व्यक्ति शहर को छोड़कर गांव क्यों आना चाहेगा? इस लेख में हम सबसे पहले कुछ आंकड़ों की मदद से स्थिति को समझेंगे, फिर स्थिति के कारण उत्पन्न हुई दशा को समझेंगे और अंत में समाधान या विकल्पों की चर्चा करेंगे। पहले हम प्राइमरी और स्कूली शिक्षा से जुड़े आंकड़ों की बात करेंगे ।

आंकड़े बताते हैं कि प्राइमरी स्तर पर 99% बच्चे आज किसी न किसी स्कूल में पंजीकृत (Enroll) हो रहे हैं। इनमें से आठवीं कक्षा तक आते-आते 90 प्रतिशत बच जाते हैं, बाकी 9 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। 12वीं (10+2) तक पहुंचने पर 52% छात्र ही बच पाते हैं। मतलब लगभग आधे छात्र 12वीं तक पढ़ाई छोड़ देते हैं।
उच्च शिक्षा यानी ग्रेजुएट तक सिर्फ 26 प्रतिशत लोग ही बच पाते हैं। यानी हर चार में से एक बच्चा ही कालेज तक पहुंच पाता है।


यह तो बात हुई संख्या की अब बात गुणवत्ता की करते हैं। प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली प्रसिद्ध संस्था ‘प्रथम’ के वार्षिक सर्वेक्षण “असर” द्वारा ग्रामीण भारत के जो आंकड़े आए हैं वह स्कूली शिक्षा की दुर्दशा हो साफ-साफ दर्शाते हैं। कक्षा दूसरी (Class 2nd) की अपनी मातृभाषा की किताब पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले 49 प्रतिशत छात्र नहीं पढ़ पाते।


पांचवी के 72 प्रतिशत छात्र गणित का सामान्य भाग नहीं कर पाते। 14-16 आयु वर्ग के 45 फीसदी छात्र घड़ी और समय से जुड़ा हुआ सामान्य सवाल नहीं कर सकते। शहरों में 65 प्रतिशत लोग प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं तो वहीं गाँवों में 31 प्रतिशत लोग प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं। मैं ज्यादा आंकड़ों से आपको ऊबाना नहीं चाहता, इससे जुड़े और भी बहुत सारे आंकड़े हैं। हमें समझना यह है कि स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता गांव में ठीक नहीं है।


अब उच्च शिक्षा की बात करते हैं। आज उच्च शिक्षा में राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों (state universities) की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। छोटे शहरों के महाविद्यालयों की स्थिति तो और ज्यादा खराब है, उच्च शिक्षा में शिक्षकों की भारी कमी है।


राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों का आकार बहुत बड़ा है ,उसमें कई बार लाखों तक विद्यार्थी पढ़ते हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत पुराना हो चुका है और वर्तमान आबादी के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं है ।जितने भी अच्छे विश्वविद्यालय हैं लगभग सारे ही बड़े शहरों में स्थित हैं।


गांव में तो उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं के बराबर है। गांव के एक औसत व्यक्ति के लिये ये सारी स्थितियां अंततः इस नतीजे पर ले जाती है कि ,यदि आपको और आपके परिवार को पढ़ाई करनी है तो गांव छोड़ कर शहर जाना होगा। क्या हमारे शहर भारत के लगभग 6 लाख 30 हजार गांवों को शिक्षा मुहैया करा पाएंगे! क्या यह संभव है कि गांव का प्रत्येक व्यक्ति शहर चला जाए ,और यदि चला भी गया तो क्या शहर में इतने अवसर हैं?


हमारे शहरों पर जनसंख्या का भारी बोझ पहले से ही बहुत है ऐसे में शहर इतने सारे लोगों का बोझ उठा पाएंगे?अगर इन सारे सवालों का जवाब नहीं है, तो फिर विकल्प क्या है, समाधान की दिशा क्या हो सकती है। सबसे पहली तो बात सरकार के शिक्षा बजट से जुड़ी हुई है। शिक्षा पर खर्च हो वाले बजट को बढ़ाकर 6 प्रतिशत तक करना होगा (अभी 3- 3.5 प्रतिशत है)। यह बात आज के 50 साल पहले से कोठारी कमीशन के समय से ही कही जा रही है। इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों को मिलने वाला हिस्सा भी बढ़ाना होगा क्योंकि शिक्षा बजट का हिस्सा अगर शहरों में अधिक खर्च होगा तो स्वाभाविक तौर पर ग्रामीण शिक्षा और ज्यादा पिछड़ जाएगी। इसलिए जितना भी बजट निर्धारित हो उसका बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र को मिले। इससे मिलने वाले पैसे को ग्रामीण शिक्षण संस्थानों के इंफ्रास्ट्रक्चर सुधारने में लगाया जाए। प्राइमरी स्कूलों में लाइब्रेरी, कंप्यूटर, प्रयोगशालायें तथा खेलकूद की व्यवस्था की जाए। साथ ही शिक्षकों की भारी कमी है, उसे नियमित रूप से शिक्षक भर्ती करके दूर किया जाए ।


उच्च शिक्षा के लिए सरकारी बजट का बड़ा हिस्सा स्टेट यूनिवर्सिटीज पर खर्च किया जाए। केंद्रीय विश्वविद्यालयों से थोड़ा ध्यान हटाकर स्टेट यूनिवर्सिटीज को सुधारने में लगाया जाए। बड़े विश्वविद्यालयों को छोटा किया जाए ताकि उनका प्रशासन सही तरीके से चल सके। भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालय शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं इन्हें दूर किया जाए। इसके साथ ही कोई भी नया विश्वविद्यालय शहरों की जगह ग्रामीण क्षेत्रों में खोला जाए ।बजट और संसाधनों के बंटवारे में ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। यह तो बात हुई ढांचागत सुधारों की, अब बात करते हैं पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारने के लिए क्या किया जा सकता है। शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में अचार्य विनोबा भावे ने बहुत अच्छी बात कही थी, उन्होंने कहा था कि शिक्षा चार चीजें सिखाती है , जानना (to know), कुछ काम करना (to do) ,एक दूसरे के साथ जीना (to live)और अपने अंतर्मन के साथ संबंध स्थापित करना(to be)।


यह बातें पूरी करने के लिए हमें बुनियादी बदलाव लाने होंगे ,हमें शिक्षा को अपने संदर्भ अपनी क्षेत्रीय जरूरतों से जोड़ना होगा।
अगर पाठ्यक्रम की बात करें तो हमारा स्कूली पाठ्यक्रम अपने क्षेत्रीय ग्रामीण संदर्भ से कटा हुआ है। विषयों की भाषा उबाऊ है। व्यवहारिक ज्ञान और कुछ करते हुए सीखने की संभावना न के बराबर बची है । विश्व इतिहास पढ़ने वाले स्कूली बच्चों को अपने गांव के पास बहने वाली नदी का इतिहास पता नहीं होता। लोक परंपरा और लोग बुद्धि की कोई जगह आज के पाठ्यक्रम में नहीं है। सारा भुगोल पढ़ लेने के बाद भी हम अपने गांव की मिट्टी,बाग-बगीचे, बाढ़, सूखा, तालाब, पोखरा, कुआं इत्यादि के बारे में ज्यादा नहीं जान पाते। पर्यावरण जैसा विषय भी आज किताबों और क्लास रूम के अंदर बंद कमरों तक सिमटकर रह गया है।
क्योंकि यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई थी और अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल राज किया इसीलिए हम मानसून के महीने में और ज्येष्ठ की तपती धूप में बच्चों को फुल शर्ट फुल, फूल पैंट और कसे हुए काले जूते के साथ टाई पहनाते हैं। भले ही हमारी जलवायु इसके लिये उपयुक्त न हो, लेकिन कोर्ट पैंट पहनना अंग्रेजी स्कूल के लिए जरूरी है। हमने अपनी भाषा, भोजन और भेष को अपने भूगोल से अलग कर दिया है।
हमें यह समझना होगा कि हमारे स्कूल कैसे हो ?


आज शहरों में ऊर्जा के उपयोग को कम करने की बात हो रही है । सावन के महीने में जब मौसम इतना अच्छा होता है हम क्यों नहीं क्लास रूम के बाहर किसी पेड़ के नीचे एक क्लास लगा सकते हैं। गांव में तो यह बिल्कुल संभव है। जनवरी की ठंड में जब सुनहरी धूप निकलती है तो हम क्यों नहीं क्लास की बिजली बंद करके धूप में क्लास लगा सकते हैं। रबी, खरीफ, जायद रट्टा मारने की जगह हम क्यों नहीं सीधे-सीधे बच्चों को खेतों में ले जाकर सिखा सकते हैं। वर्षा जल संचयन पर ड्राइंग कंपटीशन की जगह क्यों नहीं हम सीधे-सीधे वर्षा जल संचय की प्रतियोगिता ही आयोजित करा सकते हैं। गांव में प्रायोगिक ज्ञान (प्रैक्टिकल नॉलेज) की अपार संभावनाएं हैं। हमें उन पर काम करना होगा। हमें ग्रामीण शिक्षा में समाज की भूमिका को भी शामिल करना होगा। गांव में औपचारिक एवं अनौपचारिक कमेटियां बनाकर स्कूलों के साथ जोड़ना होगा। हमें शिक्षकों की गुणवत्ता सुधार करनी होगी, शिक्षकों को बेहतर ट्रेनिंग की व्यवस्था देनी होगी ।


इसके अलावा हमें क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देनी होगी जो सीधे-सीधे हमारे संदर्भों से जुड़ी हो। यदि ग्रामीण व्यवस्था सुधरती है तो, न सिर्फ शहरों का बोझ कम होगा बल्कि और उसकी पर्यावरणीय सेहत भी सुधरेगी। विकेंद्रीकरण भी होगा और साथ में शहरों और गांवों के बीच की आर्थिक विषमता भी समाप्त होगी।एक बार फिर गांधी जी की बात याद करते हुए यह लेख समाप्त करते हैं। बाकी बातें अगले लेख में होंगी। गांधी जी ने कहा था “भारत गांवों में बसता है”। हमें यह बसावट उजड़ने से बचाना होगा।

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