गांव की ओर लौटो- 3 -अतुल पांडेय

शहरीकरण पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को बढ़ाता है। गांव से शहरों की ओर होने वाले पलायन का एक मुख्य कारण है “रोजगार की तलाश”। खेती की दुर्दशा और बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि ने इस पलायन को और ज्यादा तीव्र कर दिया है।


श्रृंखला के इस भाग में हम समझेंगे कि क्या शहरीकरण रोजगार प्रदान करने का विकल्प हो सकता है ? गांव से शहरों की तरफ बेतहाशा होने वाले पलायन के दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं। क्या यह संभव है कि गांव को रोजगार के केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है।
शुरुआत रोजगार और आर्थिक क्षेत्र से जुड़े आंकड़ों से करते हैं ।भारत में संगठित क्षेत्र (Organized Sector) 7 प्रतिशत है वहीं असंगठित क्षेत्र (Unorganized Sector) 93 प्रतिशत है।


संगठित क्षेत्र यानी जिसमें रोजगार से जुड़े सामाजिक सुरक्षा, नियमित वेतन भत्ते और नौकरी की सुरक्षा जैसी चीजें होती हैं। असंगठित क्षेत्र में यह चीजें नहीं होती।


भारत की कुल श्रमशक्ति (Work Force) 45 करोड़ है (बुजुर्गों, बच्चों एवं घरेलू महिलाओं को छोड़कर)। इसमें से 18 करोड़ लोग खेती किसानी से जुड़े हैं , 6 करोड़ लोग अपना खुद का व्यापार (Self Employed) करते हैं। 11 करोड़ दिहाड़ी मजदूर (Daily Wage Worker) हैं, 5 करोड़ लोग नियमित नौकरी पेशा (Formal and Semi Formal Sector) वाले हैं। ये आंकड़े अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट (स्टेट आफ वर्किंग इंडिया) पर आधारित है।
अब यदि हम बेरोजगारी से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो कोरोना महामारी के आने के पहले स्थिति अच्छी नहीं थी। CMIE के दिसंबर 2019 के आंकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी दर 9.86 प्रतिशत है। शहरों में बेरोजगारी दर 11.6 प्रतिशत, स्नातक लोगों में 16.8 प्रतिशत, 20 से 24 आयु वर्ग के लोगों में 41 प्रतिशत और महिलाओं में 26.4 प्रतिशत बेरोजगारी है। ये आंकड़े दिसंबर 2019 के हैं जाहिर है कोरोनावायरस के बाद इसमें बहुत वृद्धि हुई है।
अब यह समझने का प्रयास करते हैं कि क्या भारत के लिए (यूरोप,अमेरिका या किसी अन्य देश के लिए नहीं) शहरीकरण बेरोजगारी को दूर करने का समाधान हो सकता है। क्या शहरीकरण विकास का पर्याय हो सकता है। आज भारत का कोई भी शहर बिना झुग्गी झोपड़ी (Slum) के जिंदा नहीं रह सकता। शहरों की बनावट ही ऐसी है कि उसे चलाने के लिए झुग्गी झोपड़ी (Slum) की आवश्यकता होती है। शहरों की बसावट में गरीब और औसत व्यक्ति के लिए बहुत कम जगह है। इसके अलावा शहरों की प्लानिंग इस तरह से नहीं हुई है कि वो गांव की बड़ी जनसंख्या का बोझ उठा सके। नतीजा यह है कि शहर के एक औसत व्यक्ति के लिए साफ हवा और साफ पानी प्राप्त करना भी कठिन हो जाता है। बरसात के समय में भारत का लगभग हर छोटा बड़ा शहर जलभराव और flooding की समस्या से जूझता है। हमने शहरों में खाली जमीन तक नहीं छोड़ी जिससे पानी मिट्टी के सहारे अंदर जा सके और उससे भू-जल स्तर (Ground Water Table) को बढ़ावा बढ़ाया जा सके। देश के जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता रहे स्वर्गीय अनुपम मिश्र जी ने कहा था,” एक समय दिल्ली में 800 तालाब थे। आज गिनती के पांच तालाब नहीं है दिल्ली में। हमें लगा कि पानी की कोई कीमत नहीं है जमीन की कीमत है और उसमें हमने दुकान बना दी मकान बना दिए, तालाब नहीं रहने दिये। अब दिल्ली में पानी उतना ही गिरता है, जितना पहले गिरता था पर वह रुकता नहीं है। कहाँ जाएगा वह। बाढ़ आएगी, पानी बहकर हमारे कमरों में आएगा, हमारे दफ्तरों में आयेगा। यह हालत आज हमारे सामने है। अब पानी हमें याद दिला रहा है कि सच्चाई तो पानी की कीमत की है। जमीन की कीमत जरूर रखो, लेकिन पानी की कीमत याद रखो। पानी अब कह रहा है – मैं जीतूँगा, अगर तुम सुधरे नहीं तो।”


दिल्ली के संदर्भ में कही गई यह बात कमोबेश हर शहर पर लागू होती है। शहरीकरण ना सिर्फ भारतीय संदर्भ के लिए अव्यावहारिक है बल्कि गैर जरूरी भी है। आज जब बिजली इंटरनेट और परिवहन जैसी चीजें गांव तक पहुंच गई हैं तो शहरों को आर्थिक और उत्पादन गतिविधियों का केंद्र बनाने का कोई औचित्य नहीं है। केंद्रीकरण से बेहतर व्यवस्था विकेंद्रीकरण है।


गांव से शहरों की तरफ होने वाले बेतहाशा पलायन के दूरगामी परिणामों की चर्चा भी जरूरी है। बहुत सारे लोग मानते हैं कि शहरीकरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लोग सोचते हैं कि औद्योगिक क्रांति के दौरान जो यूरोप में हुआ भारत में उसका दुहराव होगा। लेकिन भारत का संदर्भ अलग है तो जाहिर है शहरीकरण के प्रभाव भी अलग होंगे। भारत में जनसंख्या बहुत अधिक है यदि गांव बर्बाद हुए तो भविष्य में खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ सकता है। कोरोना महामारी ने यह दिखा दिया है कि सिर्फ सेवा क्षेत्रक (Service Sector) और निर्माण क्षेत्रक (Manufacturing Sector) पर निर्भर रहना खतरनाक हो सकता है। इसके अलावा हमारे शहर तेजी से हो रहे इस जनसंख्या पलायन के बोझ को संभालने में सक्षम नहीं है। ना तो शहरों में इतनी जगह बची है कि वह गांव के औसत व्यक्ति को गुणवत्तापूर्ण जीवन देने में दे सकें।यदि शहरों की तरफ पलायन ऐसे ही जारी रहा तो शहरों में और ज्यादा प्रदूषण बढ़ने का खतरा हो सकता है। इसके साथ ही सारी की सारी आर्थिक एवं राजनैतिक शक्ति शहरों तक सीमित होकर रह जाएगी। ऐसे में बेहतर यही है कि हम गांव को एक संभावना के रूप में देखना शुरू करें। गांव को रोजगार के अवसर के रूप में देखने के लिए हम क्या कर सकते हैं इसकी चर्चा अत्यंत आवश्यक है। अगर रोजगार से जुड़े समाधान की बात करें तो केवल सरकारें बेरोजगारी की समस्या को दूर नहीं कर सकती। कुल सरकारी नौकरियों की संख्या कुल श्रमशक्ति की पांच प्रतिशत से भी कम है। लेकिन जैसा कि आप सब को याद होगा पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान या पता चला था कि सिर्फ सरकारी नौकरियों के 24 लाख पद रिक्त हैं। सरकार को इन्हें भरना चाहिए। इसके अलावा ग्रामीण शिक्षा के क्षेत्र में भी रोजगार पैदा किया जा सकता है उदाहरण के लिए आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाना या फिर सरकारी प्राइमरी स्कूलों के लिए लाइब्रेरी की व्यवस्था करना (इसकी बात नई शिक्षा नीति में की गई है)। कुल मिलाकर यदि ग्रामीण शिक्षा मजबूत होती है तो रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।


शिक्षा के अलावा ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने में भी लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary Health Care) जैसी चीजों को सुधार कर रोजगार पैदा किया जा सकता है। इसके अलावा गांव को पर्यटन एवं सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है। शहर के छात्र प्रायोगिक ज्ञान (Practical Knowledge) हासिल करने के लिए गांव आ सकते हैं। इसके माध्यम से न सिर्फ शहर के लोगों का जमीन से जुड़ाव बढ़ेगा बल्कि बेरोजगारी की समस्या भी दूर होगी।


ये सारी बातें एक तरफ है और खेती किसानी दूसरी तरफ। बिना खेती किसानी को बेहतर बनाये बेरोजगारी की समस्या दूर नहीं हो सकती। इसके बारे में हम श्रृंखला के पहले लेख में विस्तार से जान चुके हैं। खेती को फायदे का सौदा बनाना ही होगा। एग्रो प्रोसेसिंग, ऑर्गेनिक फार्मिंग जैसी चीजें अपनानी होंगी।


आज जब गांव में इंटरनेट और बिजली जैसी चीजें उपलब्ध है। हम यह काम कर सकते हैं। जब देश महामारी से जूझ रहा है, तमाम स्किल्ड (Skilled) और अनस्किल्ड(Unskilled) लोग शहरों को छोड़कर गांव वापस आ गए हैं। हमें इन लोगों का इस्तेमाल गांव की बेहतरी के लिए करना होगा। कई राज्य सरकारों ने मनरेगा को पर्यावरण से जुड़े मुद्दों से जोड़ दिया है। मनरेगा का इस्तेमाल तालाब बनाने, वर्षा जल संरक्षण इत्यादि में किया जा रहा है। यह बहुत अच्छा कदम है। यदि गांव में साफ हवा, साफ पानी, शुद्ध भोजन और रोजगार के अवसर मिल जाते हैं तो इससे पर्यावरण को बहुत राहत मिलेगी। हम सबको इस दिशा में काम करना चाहिए।
अदम गोंडवी के शेर के साथ बात समाप्त करना चाहूंगा। उम्मीद है कि यह स्थिति एक दिन जरूर बदलेगी।

“यू खुद की लाश अपने कंधे पर उठाए हैं,
ए शहर के बाशिदों! हम गांव से आए हैं।”

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