पर्व और त्यौहार हमारी संस्कृति के अभिन्न हिस्सा रहे हैं। हमारी परंपरा में ऋतुओं के अनुसार त्यौहार हैं। फसल चक्र के अनुरूप त्यौहार हैं। तमाम लोक अनुभूतियों और स्मृतियों को संजोये हुए ये त्यौहार हमारे अतीत को वर्तमान से जोड़ते हैं और हमें भविष्य का रास्ता भी दिखाते हैं। इसके साथ ही त्यौहार हमें उत्सव धर्मी भी बनाने का प्रयास करते हैं अब हमारा समाज कितना उत्सव धर्मी बन पाता हैबये एक अलग विषय है (भारत दुनिया के सबसे कम खुशहाल देशों में से एक है)।
आज जैसे ही कोई पर्व आता है पर्यावरण की बहस शुरू हो जाती है। जहां एक तरफ कुछ प्रगतिवादी पर्वों को प्रदूषण का पर्याय बताने लगते हैं। उन्हें लगता है कि पर्व ही प्रदूषण के कारण है। दूसरी ओर कूच रूढ़िवादी और परंपरा को स्थूल व स्थिर चीज मानने वाले लोग हैं जो यह मानते हैं कि पर्वों के कारण यदि प्रदूषण फैलता भी है तो भी हमें कोई समझौता नहीं करना चाहिए। तीसरी तरफ आमजन या लोक है जो चुपचाप अपने अच्छाइयों और कमियों को साथ लेकर अपनी संस्कृति का निर्वाह करने में लगा है यह लोक मध्यम मार्ग अपना रहा है।
अब सवाल ये है कि क्या हम पर्यावरण बचाने के लिये पर्व छोड़ दें या फिर पर्वों से होने वाले प्रदूषण को नजरअंदाज कर दें। हमें ये समझना होगा कि समस्या पर्वों में नहीं है आधुनिक सभ्यता में घटित हुई शहरीकरण और औद्योगीकरण जैसी चीजों ने हमारे जीवन जीने के तरीकों को आमूल चूल रूप से बदल दिया है।
विकास और आधुनिकता की नई परिभाषा ने पर्वों और पर्यावरण के बीच के रिश्ते को बिगाड़ दिया है। वर्ना हमारी संस्कृति में पर्वों और प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता हुआ करता था। जब जीवन शैली बदल गई तो उसका प्रभाव हमारे पर्वों पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। आज स्थिति ये आ गई है कि पर्व प्रकृति के नहीं प्रदूषण के पर्याय बनते जा रहे हैं।
इस समस्या का निदान हमारी परंपरा में छुपा हुआ है। हमारी परंपरा ने प्रकृति को न सिर्फ सजीव माना है बल्कि सहजीव भी माना है। हमारी संस्कृति ने ब्रह्मांड में मूल में पंचतत्व की परिकल्पना की है। हमारे पर्वों में जो चीजें इस्तेमाल होती हैं उन्हें स्थानीयता से जोड़ा गया है। इसके अलावा भाषा, भोजन और भेष को भी स्थानीय भूगोल से जोड़ा गया है। आज जरूरत यह है कि हम पर्वों को फिर से प्रकृति से जोड़ें। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे सभी पर्वों का जन्म प्रकृति से ही हुआ है।
आप सबको छठ पूजा जी शुभकामनाएं!