पर्यावरण और मानव व्यवहार – आशीष कुमार

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            पिछले कुछ सालों से हम ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग निरंतर टेलीविजन, अखबारों और सोशल मीडिया में होता देख रहे हैं। परंतु पर्यावरण और मानव का संबंध जीवन की उत्पत्ति (लगभग 4000 वर्ष पूर्व) के साथ जुड़ा हुआ है और निरंतर बदलाव के साथ आज तक चला आ रहा है। जिससे समय-समय पर मानव व्यवहार तथा पर्यावरण में बदलाव देखा गया है।

                                          पर्यावरण और मानव के बीच का संबंध तथा पर्यावरण का मानव पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए हम अलग-अलग स्थानों या यूं कहें की अलग-अलग पर्यावरणीय क्षेत्रों को देखने और उनका अध्ययन करने पर पाते हैं कि मानव पर्यावरण की देन है। ‘चीफ सीयेटेल’ के अनुसार-

“पृथ्वी हमारी नहीं, हम पृथ्वी के हैं।”

(“The earth does not belong to us, we belongs to the earth.”)

उदाहरण के लिए, यदि हम पहाड़ी क्षेत्रों का अध्ययन करते हैं तो हम पाते हैं कि वहां के वृक्ष, नदियां, पशु-पक्षी यहां तक की वहां की मृदा, कीट इत्यादि सभी एक विशेष रूप में वहां के पर्यावरण के अनुकूल पाए जाते हैं। जिससे वह उस क्षेत्र में अनुकूलन कर पाते हैं। ठीक उसी प्रकार पहाड़ी क्षेत्र के मानव का विकास भी वहां के पर्यावरण के अनुकूल हुआ है। ठीक इसी प्रकार हम अन्य स्थानों जैसे मरुस्थल, मैदान, समुद्री क्षेत्र इत्यादि का अध्ययन करने पर पाते हैं कि वास्तव में मानव का विकास पर्यावरण के अन्य घटकों के अनुरूप हुआ है। अर्थात् किसी विशेष पर्यावरणीय क्षेत्र में उसके प्रत्येक घटक का उतना ही योगदान है जितना की मानव का। ‘मारियो स्टिंगर’ के अनुसार-

” यह सिर्फ हमारी दुनिया नहीं है।”

(“This is not just our world.”)

              पर्यावरण को बनाने में पर्यावरणीय प्रत्येक घटक का उतना ही महत्व है जितना कि एक मानव का, फिर वह चाहे सूक्ष्मजीव या मृदा का एक कारण ही क्यों ना हो। सभी का अपना विशेष महत्व है तथा उतनी ही आवश्यकता भी। किसी भी घटक की कमी अन्य घटक या घटकों से पूरी नहीं की जा सकती। ‘अल्बर्ट आइंस्टीन’ के अनुसार-

“पर्यावरण वह हर चीज है, जो मैं नहीं हूं।”

(“The environment is everything that that isn’t me.”)

                पर्यावरण का जितना प्रभाव मानव के भौतिक रूप में मिलता है, उतना ही या उससे भी अधिक मानव के व्यवहार में महसूस किया जा सकता है। जो मानव की चेतना और कार्यशीलता में स्पष्ट रूप से नजर आता है। इसे समझने के लिए हमें किसी ‘व्यक्ति का व्यवहार किस प्रकार विकसित या विकास करता है’, को समझना आवश्यक है। यदि इसे आसान तरीके से समझा जाए तो, यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के बचपन से लेकर उसकी वर्तमान उम्र तक उसके परिवेश में उपलब्ध पर्यावरणीय घटकों तथा उनकी आपसी घटनाओं के माध्यम से व्यक्ति के मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभाव ही उस व्यक्ति के व्यवहार के रूप में सामने आते हैं। जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है सामान्य बोलचाल की भाषा में व्यक्ति का व्यवहार आईने के समान होता है, जो पर्यावरण के अनुरूप नजर आता है। अर्थात मानव के लिए मात्र 5 जून ही पर्यावरण दिवस न होकर उसका प्रत्येक दिन, प्रत्येक क्षण पर्यावरण की झलक प्रस्तुत करता है।

                                                उदाहरण के लिए यदि हम किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि मानव उस भौगोलिक क्षेत्र, वहां के अन्य घटकों के साथ क्रिया करके आगे बढ़ता है। जो उसके रहन-सहन, खान-पान, भाषा, स्थापत्य, संस्कृति, रीति-रिवाज इत्यादि के माध्यम से दिखाई देता है। तथा अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग नजर आता है। अर्थात् स्पष्ट है कि, मानव अपने पर्यावरण के अनुरूप कार्यों को करता है।

             इसके साथ ही मानव के मनोभाव (Emotion) भी उसके पर्यावरण पर ही निर्भर करते हैं। जिसमें गुस्सा, डर, प्रत्याशा, आश्चर्य, हर्ष, उदासी, विश्वास, घृणा, करुणा इत्यादि भाव मानव में पर्यावरण के माध्यम से ही सामने आते हैं। ये प्रत्येक भाव प्रकृति में पहले से विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए कलियों के खिलने के माध्यम से ‘करुणा’ और ‘हर्ष’ का भाव, बादलों की गर्जन से ‘तेज़’ का भाव, शिकार होने वाले जानवर में ‘भय’ का भाव इत्यादि समस्त मनोभाव पर्यावरण में उपलब्ध हैं। जो मानव में नजर आते हैं।

       यहां तक की समस्त बातों से पर्यावरण और मानव के बीच भौतिक तथा अभौतिक दोनों प्रकार के संबंधों को समझा जा सकता है। परंतु वास्तव में समस्या क्या है जिसका वर्णन हम निरंतर अखबार, टेलीविजन व अन्य माध्यमों से प्राप्त कर रहे हैं?……. समस्या है पर्यावरण के घटकों की संख्या का कम होना। जिसके कारण मानव का भौतिक अस्तित्व खतरे में आ ही रहा है साथ ही अभौतिक स्वरूप का विघटन भी स्पष्ट रूप से समाज में देखा जा सकता है।

               आज के समय में पर्यावरण परिवर्तन के साथ ही मानव शरीर में बाल का सफेद होना, त्वचा की बीमारियां, आंख की बीमारियां इत्यादि सामान्य रूप से नजर आती हैं। परंतु विगत वर्षों में मानव व्यवहार में संवेदना की कमी, पर्यावरण परिवर्तन तथा मानव का पर्यावरण के प्रति अलगाव को प्रदर्शित करती है। यदि निरंतर ऐसा ही अलगाव बना रहा तो धीरे-धीरे मानव से प्रकृति के समस्त रंग समाप्त होते चले जाएंगे और अंत निश्चित ही विनाशकारी होगा। अमेरिका की एक कहावत के अनुसार-

“हमें यह ग्रह हमारे पूर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिला, यह हमें बच्चों से उधार मिला है।”

वाक्य से स्पष्ट है कि हमें पर्यावरण को अपनी अगली पीढ़ी के लिए संरक्षित करने की आवश्यकता है।

                                                        पर्यावरण के अनेक महत्वपूर्ण घटकों में से एक महत्वपूर्ण घटक ‘वृक्ष’ है इसके संरक्षण मात्र से पर्यावरण के अन्य घटक जैसे- पशु-पक्षी, कीट, मृदा, फंगस, नदी, जल इत्यादि की स्थिति को स्वतः ही सुधारा जा सकता है। अर्थात् मात्र वृक्ष लगाने से पर्यावरण तथा मानव के अस्तित्व को बचाया जा सकता है।

     वृक्ष लगाने तथा पर्यावरण को निरंतरता के साथ सुधारने व संरक्षित करने का एक आसान तरीका है कि हम अपने परिवार के बच्चों को साथ लेकर वृक्षारोपण करें तथा उन्हें वृक्षों के महत्व को समझाते हुए उसके संरक्षण के तरीकों को सिखाएं तो निश्चित ही पर्यावरण के साथ-साथ संवेदनात्मक समाज का विकास होगा।

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