आज के दिन में अगर आप शहरों और आपदाओं के इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि कुछ आपदायें चेतावनी देकर जा चुकी होती है ,पर हमारा समाज उन आपदाओं का आना प्रकृति की नियति मानता है और अपने सामाजिक और आर्थिक नुकसान को देखना अपनी मजबूरी । सही मायने में देखा जाये तो संकट असल में आपदा का नहीं, संवेदनशीलता का है।
जब कहीं शहरों में कोई भी आपदा आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य करना होता है, जो कि तात्कालिक उपाय तो होता है, लेकिन आपदा के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है।
इन्ही आपदाओं में यदि हम शहरी बाढ़ की बात करे तो हाल में हुई भारी बारिश ने भारत के तथाकथित विकसित नगर नियोजन की पोल खोल के रख दी है । जलवायु परिवर्तन के इस नए दौर में “शहरी बाढ़” पर्यावरण एवं प्रदूषण से होने वाले प्रभाव का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर उभरा है ।
गुरुग्राम में 2016 में भी अचानक हुई तेज़ बारिश ने नागरिकों को सड़कों पर भरे पानी में, बंद गाड़ी में लगभग 24 घंटे रहने पर मजबूर किया था। उत्तर भारत की सूचना प्रौद्योगिकी की राजधानी के ऐसे हालात अकल्पनीय थे। लगभग वहीं हालात फिर 2020 में देखे गए। ग़लत नगर-नियोजन का ख़ामियाज़ा बाढ़ के रूप में गुरुग्राम की जनता को भुगतना पड़ा। ठीक वैसे ही जैसे जुलाई 2005 में मुंबई की जनता ने भुगता था। ‘ मुंबई’ से देश ने और स्वयं महाराष्ट्र ने कोई सबक़ नहीं सिखा, न ही किसी और राज्य ने….यह एक कड़वा सत्य हैं।
भारत विश्व का दूसरा बाढ़ प्रभावित देश है। बाढ़ एक ऐसी स्थिति है जिसमें कोई निश्चित भूक्षेत्र अस्थायी रूप से जलमग्न हो जाता है और जन-जीवन प्रभावित हो जाता है। भारत में दशकों से शहरी बाढ़ का अनुभव किया गया है लेकिन इससे निपटने के लिए विशिष्ट प्रयासों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है ।
नकली विकास या दिखावटी व्यवस्था आखिर कब तक टिकेगी ,ये तो कहना मुश्किल होगा । राजनैतिक नेताओं , निकम्मे विभागों के कामचोर अधिकारियों और उदासीन जनता को जितनी लानत मलानत भेजी जाए कम है. सरकारी विभागों में न तो समस्या से निजात पाने के लिए कर्मचारियों के पास ना ही नियत है ना ही वैज्ञानिक सोच और ना ही अनुभव। सब हमेशा राजनीतिक मोड में खैनी चबाते मिलेंगे। ज्यादातर सरकारी कार्यालय मुंह में पान की पीक लिए हंसी ठहाको के अड्डे बन चुके हैं। उदासीन जनता इसे प्रकृति का प्रकोप समझकर और एक नई उम्मीद के साथ अपने जीवन के विकास में संलग्न हो जाती है। ना इसे वे राजनीतिक कारणों में शामिल करना चाहती है और ना ही सामाजिक जागरूकता के रूप में!
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली, वह बस गई।
शहरों की बसाहट का विज्ञान, शहरी प्रणालियाँ एवं नगरीय विकास का रूप समय के साथ बदलता रहा हैं। मनुष्य की प्रगति के साथ विज्ञान और तकनीक भी बदलते गए जिसका प्रभाव हमारे शहरों पर दिखना स्वाभाविक हैं। नगर-नियोजन के सिद्धांत और परिकल्पनाएँ ज़रूर बदलते गए किंतु जो बात नहीं बदली वह हैं नागरिक-कल्याण का मूल उद्देश्य। किंतु क्या आज आम शहरी व्यक्ति वाक़ईं आनंदित हैं ? क्या उसके कल्याण के बारे में वाक़ई नगर-नियोजक सोचते हैं ? निश्चित ही नहीं।
हम वर्ल्ड क्लास सिटी की कल्पना संजोए हुए हैं, शंघाई बनाने का सपना देख रहे हैं लेकिन घुटने तक डूबा हुआ शहर, लम्बा ट्रैफिक जाम, रेलवे ट्रैक पर पानी, पूरी ट्रांसपोर्ट प्रणाली का ठप्प हो जाना मुंह चिढ़ाने से कम नहीं है। हाल के ही दिनों में पटना शहर में बाढ़ ने जो तबाही मचाई है वो किसी से छुपा नही है , शुक्र मनाइए बगल में गंगा नदी है जो बाढ़ के पानी के बड़े हिस्से को अपने मे समाहित कर ली।
हमारे इस दिखावे का विकास के दौर में गंगा किनारे 4 बड़ी बोट या पानी का जहाज़ लगाकर उसमें कैफे खोल देने से मॉरिशस बन जायेगा ,ऐसी मानसिकता समय समय पर गलतफहमी का शिकार होती रहेंगी।
जिस महान, प्राचीन भारत में नगरीय सभ्यता व नियोजन की सुंदरता के संदर्भ में मोहनजोदडो व हड़प्पा संस्कृति को चरमोत्कर्ष के रूप में जाना-पहचाना जाता है उसी देश में अब नगर नियोजन के समकालीन विज्ञान और कला के साथ-साथ वहाँ के नगरनियोजनकर्ताओं की क्षमताओं पर गम्भीर प्रश्नचिन्ह लगातार खड़े हो रहें हैं। ये इसीलिए कि अलग अलग योजनाओं के बावजूद भी तमाम शहरों के हालात चिंतनीय बने हुए हैं।
शहरी बाढ़ ग्रामीण बाढ़ से काफी अलग है क्योंकि शहरीकरण की वजह से विकसित जलग्रहण क्षेत्र बनता है और भारी / उच्च तीव्रता वर्षा की स्थिति में वहां उच्च अपवाह (रनऑफ) होता है जो बाढ़ को 1.8 से 8 गुना और बाढ़ की मात्रा 6 गुना तक बढ़ा देता है। नतीजतन, तेजी से प्रवाह के समय बाढ़ बहुत तेजी से आती है, कभी-कभी किसी मामले में केवल कुछ मिनट में भारी बाढ़ आ जाती है।
पिछले कई वर्षों में भारत में शहरी बाढ़ आपदाएं की बढ़ती प्रवृत्ति रही है जिसने भारत के प्रमुख शहरों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। उनमें से सबसे उल्लेखनीय हैं 2000 में हैदराबाद, 2001में अहमदाबाद, 2002 और 2003 में दिल्ली, 2004 में चेन्नई, 2005 में मुंबई, 2006 में सूरत, 2007 में कोलकाता, 2008 में जमशेदपुर, 2009 में दिल्ली और 2010 में गुवाहाटी और दिल्ली।भारत में एक विशेषता यह है कि मानसून के दौरान हमारे यहाँ भारी बारिश होती है।
आज बारिश के दिन तो कम हो गए हैं. मगर बरसात की मात्रा अधिक हो गई है. इससे कुछ घंटों के भीतर अचानक बहुत तेज़ बारिश हो जाती है. जिससे शहरों की जल निकासी व्यवस्था पर दबाव बहुत बढ़ जाता है. शहरी बाढ़ प्रबंधन के विशेषज्ञ और IIT मुंबई के प्रोफेसर कपिल गुप्ता का कहना है कि अनियोजित निर्माण, शहरी नालों में ठोस गंदगी और जलवायु परिवर्तन के चलते बढ़ती बारिश, दुनिया भर में शहरी बाढ़ के जाने पहचाने कारणों में से कुछ सामान्य कारण हैं.
मानव निर्मित कारणों में नदी या समुद्र तटों के किनारे निर्माण, खराब योजना एवं उनका गलत क्रियान्वयन, खराब जल निकासी और गंदे नाले मुख्य रूप से शहरी बाढ़ के लिये जिम्मेदार माने जाते हैं। तीव्र गति से होने वाले शहरीकरण के चलते शहरों में नियोजित विकास को धक्का पहुंचा है। साथ ही बाढ़ के पानी के निकलने वाले स्थान या तो अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए या फिर उनकी उपेक्षा की गयी।
शहरी बाढ़ आने के कारणों में यदि बड़े स्तर पे देखा जाये तो हम पायेंगे कि खराब शहरी योजना ,भारी वर्षा की भविष्यवाणी करने की खराब क्षमता और जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक वर्षा ही मुख्य कारण है और यदि हम शहरी बाढ़ के छोटे कारणों को को देखे तो हम पायेंगे कि शहरों के ड्रेनेज सिस्टम की ख़ामियों और उन्हें दुरुस्त करने के संभावित उपायों पर विचार करना होगा जोकि इस प्रकार है
1. जमीन के भीतर के नालों के आंकड़ों और नक्शों का न होना ।
2. नालों के रख -रखाव और संचालन की व्यवस्था सुचारू रूप से न करना ।
3. ड्रेनेज सिस्टम से कटे हुए अनियमित इलाके और अतिक्रमण की वजह से पानी के बहाव में अवरोध उत्पन्न होना ।
4.फंड की कमी
शहरी बाढ़ की रोकथाम के लिए अनेक ढांचागत सुधारों की आवश्यकता जताते हुए प्रोफेसर कपिल गुप्ता कहते हैं, “जलनिकासी मार्ग ठीक प्रकार से चिह्नित होना चाहिए और शहर के प्राकृतिक जलनिकासी तंत्र में कोई अतिक्रमण नहीं होना चाहिए.” उपेक्षा या गलत प्रबंधन के चलते बाढ़ क्षेत्र की जलनिकासी मार्ग बाधित हो चुकी है. इनको तुरंत दुरुस्त करना होगा। लगभग सभी शहरों पर जनसंख्या का दबाव ऐसा पड़ रहा है कि बाढ़ क्षेत्र में बस्तियां बसने लगी हैं। इन अतिक्रमण के खिलाफ मुहिम छेड़नी होगी। प्रोफेसर कपिल गुप्ता के अनुसार जो बड़ी संख्या में पुल, ओवरब्रिज समेत मेट्रो परियोजनाओं का निर्माण हो रहा है वह मौजूदा जलनिकासी मार्गों में किया जा रहा है। उचित इंजीनियरिंग डिजाइनों जैसे केंटिलीवर निर्माण आदि का सहारा लेकर ड्रेनेज सिस्टम की रक्षा की जा सकती है।
जमीन सिर्फ मकान बनाने के लिए नहीं है, पानी के लिए भी है। ताल-तलैये और पोखर शहर के सोख्ते की तरह हैं। बाढ़ नियंत्रण के इन परंपरागत तरीके के प्रति उपेक्षा की स्थिति को हमे बदलना होगा ।
शहरी बाढ़ से निपटने के लिए नगर निगमों को सक्रियता दिखानी होगी। भूमि के उपयोग एवं निर्माण कार्यों के लिए बेहतर नियोजन पर ध्यान देना होगा। भारत के किसी भी शहर में शायद ही ऐसा जल-निकासी तंत्र है, जो कम समय में होने वाली अधिक बारिश से निपट सके। बुनियादी ढांचों के लिए आवंटित बजट की पर्याप्त रकम सड़क, नालों जैसे बुनियादी ढांचों के लिए शत-प्रतिशत उपयोग में लाई जाए।
जलवायु परिवर्तन के चलते बेमौसम या मानसून के दौरान जब भारी बारिश होती है तो पानी के निकलने का कोई स्थान नहीं बचता है। लिहाजा बाढ़ और विनाश अवश्यंभावी हो जाते हैं। इसके अलावा छिद्रदार फुटपाथ बनाए जाने चाहिए जिससे पानी सतह के नीचे की मिट्टी तक पहुंच जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि हमें पानी को बहने का रास्ता देना होगा।
– मधुसूदन यादव
जहाँ मेरे ज्ञान में वृद्धि हो, वहाँ मैं सराहता हूँ।
मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसा कितना कुछ है जो मैं नहीं जानता
बहुत खूब एक ब्लॉग से बहुत कुछ व्यक्त किया
Thanks
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बड़े ही सहज शब्दों में इतनी महत्वपूर्ण बात कही।।।सुंदर लेखन
लिखते रहो👌👍
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गज़ब लिखे हो मधुसूदन। सटीक और सीधा।
बहुत खूब भाई !! ऐसे ही लिखते रहो !! एनवायरनमेंट के प्रति तुम्हारा लगाव देख कर अती हर्ष हुआ !!
बहुत ही सुन्दर और सार्थक लेख के लिए ढेरों शुभकामनायें
बहुत ही सुंदर लेख |
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చాలా మంచి వ్యాసం, విషయాలు ఎంత తేలికగా వివరించబడ్డాయి.
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बहुत ही सुंदर लेख है मधुसूदन जी।
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