क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे जीवन के कितने साल ट्रैफिक जाम में बर्बाद हो जाते हैं! भारत के शहरों में गाड़ियाँ चलती तो हैं, पर रफ्तार खो चुकी हैं। महानगरों की सड़कों पर जाम अब एक दैनिक असुविधा नहीं, बल्कि हमारी नीति और प्राथमिकताओं की नाकामी का स्थायी प्रतीक बन चुका है। जब सुबह 10 किलोमीटर की दूरी तय करने में 40-50 मिनट या इससे भी ज्यादा लगते हैं, तो समझिए कि दिक्कत पूरी व्यवस्था की है। भारत के 40 प्रमुख शहरों में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के द्वारा की गई हालिया पड़ताल इस सच्चाई की चुभती हुई तस्वीर प्रस्तुत करती है, हमारे शहर धीरे-धीरे चलने नहीं, रेंगने लगे हैं। बेंगलुरु जैसे शहर में यह गति औसतन 18।7 किलोमीटर प्रति घंटा तक गिर चुकी है, जो किसी बैलगाड़ी से थोड़ा ही तेज़ है। दिल्ली, पुणे, कोलकाता और चेन्नई सहित लगभग हर बड़े शहर में हालात एक जैसे हैं।
सड़कों पर जिनकी संख्या सबसे अधिक उनके लिए सबसे कम जगह
इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में लगभग 45–48% लोग पैदल या साइकल से यात्रा करते हैं । छोटे शहरों में ये आंकड़े और भी अधिक—विशाखापत्तनम: 55%, सिंगरौली: 64%, वाराणसी: 54.5% । यह दर्शाता है कि सस्ता, स्वस्थ और पर्यावरण हितैषी परिवहन अभी भी मुख्यधारा है, लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव इन्हें पीछे धकेल रहा है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि आज भी भारत के अधिकांश शहरों में आधे से अधिक यात्राएं पैदल या साइकिल से होती हैं। लोग असुरक्षित रुप से चल रहे हैं, क्योंकि उनके पास विकल्प नहीं है। मगर जिनके लिए सड़क का सबसे ज़्यादा हिस्सा सुरक्षित होना चाहिए, वही हाशिए पर हैं। फुटपाथ या तो टूटे हुए हैं, या पूरी तरह ग़ायब। साइकिल लेन की अवधारणा तो अब तक केवल नीति-पत्रों में ही सजीव है। आंकड़े बताते हैं की कुल रोड स्पेस का 80 फीसदी से भी अधिक हिस्सा कार वालों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है जबकि अधिकतर कारों में सिर्फ एक या दो सवारी होती है। ऐसे में सार्वजनिक यातायात, साइकिल, बैक एवं पैदल चलने वालों के लिए बेहद कम जगह बचती है। यह केवल बुनियादी ढांचे की कमी नहीं, बल्कि एक तरह की नीतिगत क्रूरता है जहाँ आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग को हमेशा सबसे जोखिमभरे हालात सौंपे जाते हैं।
सार्वजनिक परिवहन का ढांचा ढहने के कगार पर

हमारे शहरों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट वह रीढ़ है, जो अब झुकने लगी है। CSE की रिपोर्ट बताती है कि भारत के 40 प्रमुख शहरों में सिर्फ 19% लोग ही सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते हैं। बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद जैसे तकनीकी और औद्योगिक शहरों में यह आंकड़ा और भी कम है। बसों की संख्या कम है, उनकी गति अविश्वसनीय है, और यात्री अनुभव बेहद असुविधाजनक। मेट्रो की बात करें तो दिल्ली और कोलकाता जैसे पुराने नेटवर्क को छोड़कर ज़्यादातर शहरों में इसका उपयोग 5 से 8 प्रतिशत तक ही सीमित है। इस विफलता का सीधा परिणाम यह है कि लोग मजबूरी में निजी वाहनों की तरफ़ मुड़ते हैं — जो आगे चलकर पूरे ट्रैफिक तंत्र पर बोझ बन जाते हैं।
निजी वाहनों की भीड़: स्वतंत्रता की नहीं, विकल्पहीनता की निशानी
भारत में वर्ष 2024-25 में 2.5 करोड़ से भी अधिक नए वाहन पंजीकृत हुए, जिनमें से 88% व्यक्तिगत उपयोग के थे। मेट्रो शहरों में कारों और दोपहिया वाहनों की भरमार है। दिल्ली में अकेले 1.87 लाख कारें इस अवधि में जुड़ीं, यानी प्रतिदिन औसतन 513 कारें।
निजी वाहन अपने साथ सिर्फ स्वतंत्रता ही नहीं लाते बल्कि भीड़ और प्रदूषण भी साथ लेकर आते हैं। शहरों में प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है और सड़कों पर अराजकता बढ़ रही है। जब सामान्य नागरिक को काम पर जाने का भरोसेमंद सार्वजनिक विकल्प नहीं मिलता, वहाँ वह मजबूरन स्कूटर या कार की शरण लेता है — और यही चक्र अंततः सड़कों को निगल जाता है। ज़्यादा वाहन, ज़्यादा जाम, ज़्यादा प्रदूषण और फिर वही कुंठा जो हर सुबह बॉटलनेक में फँसे इंसान के चेहरे पर दिखती है।
अनौपचारिक परिवहन (IPT) का बढ़ता चलन
बीते एक दशक में अनौपचारिक परिवहन (Informal Public Transport – IPT) की हिस्सेदारी भारतीय शहरों में चुपचाप लेकिन प्रभावशाली रूप से बढ़ी है। मिलियन-प्लस शहरों में इसकी भागीदारी अब 5.98% तक पहुँच गई है, जबकि छोटे और मध्यम आकार के नगरों में यह 3.4% के आसपास है। यह आंकड़ा सिर्फ़ संख्यात्मक बदलाव नहीं दर्शाता, बल्कि एक सामाजिक और बुनियादी ढांचे की असफलता की ओर इशारा करता है। जब शहरों की औपचारिक परिवहन व्यवस्था जैसे बस नेटवर्क, मेट्रो और रैपिड ट्रांजिट सिस्टम जनसंख्या के विस्तार, अराजक शहरीकरण और गतिशीलता की ज़रूरतों का संतुलन नहीं बना पाती, तब यही अनौपचारिक माध्यम एक ‘फिलर’ की भूमिका निभाते हैं।
लेकिन IPT की यह बढ़त असंगठित, असंतुलित और नीति विहीन रही है। यह व्यवस्था न तो स्थायी है और न ही सुरक्षित। ज़्यादातर ई-रिक्शा, ऑटो या शेयर टेम्पो बिना लाइसेंस, रूट निर्धारण या यात्री बीमा के चलते हैं। नतीजा यह है कि शहरी यातायात में भीड़भाड़ बढ़ती जा रही है, पैदल यात्रियों और साइकिल सवारों की सुरक्षा को खतरा है, और वायु प्रदूषण की समस्या और जटिल होती जा रही है। यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि IPT का यह उभार महज़ ‘बैकअप’ के तौर पर नहीं, बल्कि मुख्यधारा की असफलता का ‘लक्षण’ है।
अगर सरकारें और शहरी नियोजक IPT को लंबे समय तक नजरअंदाज़ करते रहे, तो यह अनौपचारिक ढांचा न सिर्फ सार्वजनिक परिवहन के विस्तार में बाधा बनेगा, बल्कि एक ऐसे समानांतर तंत्र का रूप ले लेगा जिसे नियंत्रित कर पाना मुश्किल होगा। आवश्यकता इस बात की है कि इसे न तो पूरी तरह खारिज किया जाए और न ही अनियंत्रित छोड़ा जाए बल्कि इसे नीति, नियमन और नवाचार के सहारे इसे संगठित परिवहन प्रणाली में सम्मिलित किया जाए।
क्या चौड़ी सड़कें सचमुच ट्रैफिक का समाधान हैं?
हमारे नीति-निर्माताओं को अब भी यह भ्रम है कि ट्रैफिक की समस्या का हल नई सड़कें और फ्लाईओवर हैं। मगर आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। CSE की रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि सड़क को जितना चौड़ा किया जाता है, वह उतनी ही जल्दी फिर से भर जाती है। इसे ‘Induced Demand’ कहा जाता है — यानी सुविधा बढ़ते ही उसका उपयोग भी बढ़ जाता है। जैसा कि लुईस मम्फर्ड ने अपनी पुस्तक The City in History में लिखा है, “ट्रैफिक कम करने के लिए सड़कें चौड़ी करना वैसा ही है, जैसे मोटापे का इलाज बेल्ट ढीली करके करना।” असल में ऐसी परिस्थिति में होता यह है कि जिस रफ़्तार से सड़कों का फैलाव बढ़ता है, उससे कही अधिक रफ़्तार से वाहनों की संख्या बढ़ जाती है। दिल्ली की आउटर रिंग रोड हो या बेंगलुरु के फ्लाईओवर — इनमें से कोई भी स्थायी समाधान नहीं दे सका। इसके उलट, इन उपायों ने शहरी फैलाव और कार-निर्भरता को और गहराई से शहर की नसों में उतार दिया है।
ट्रैफिक का पर्यावरणीय असर
शहरों में हवा की गुणवत्ता का बिगड़ता स्तर अब बहस का विषय नहीं, एक आपातकालीन वास्तविकता है। बेंगलुरु में पीएम2।5 (PM2।5) प्रदूषण का 53% हिस्सा ट्रैफिक से आता है। दिल्ली और कोलकाता जैसे शहरों में यह 40% से ज़्यादा है। वाहनों से निकलने वाला NOx और PM2।5, बच्चों के फेफड़ों से लेकर बुजुर्गों के दिल तक को नुकसान पहुंचा रहा है। यह अब केवल पर्यावरण की समस्या नहीं है — यह सीधे तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट है। इसके अलावा ट्रैफिक के कारण व्यापक स्तर पर ध्वनि प्रदूषण भी होता है।
छोटे शहरों की अनदेखी
भारत के टियर-2 और टियर-3 शहरों में तो स्थिति और भी चिंताजनक है। वहाँ ट्रैफिक डेटा तक उपलब्ध नहीं है। न यह पता है कि कितने लोग पैदल चलते हैं, न यह कि प्रदूषण की प्रमुख वजह क्या है। जब आंकड़े ही नहीं हैं, तो नीति किस आधार पर बनेगी? बिना आंकड़ों के शहरी नियोजन वैसा ही है, जैसे बिना नक्शे के पुल बनाना। यह विडंबना है कि जहाँ सबसे तेज़ी से बदलाव हो रहा है — छोटे शहरों में — वहाँ सबसे कम जानकारी उपलब्ध है।
एक नई दिशा, जहां रफ्तार इंसान से शुरू हो
अगर शहरों को वाकई जाम से मुक्ति दिलानी है, तो नीतियों का फोकस गाड़ियों से हटाकर लोगों पर केंद्रित करना होगा। सार्वजनिक परिवहन को सिर्फ सुविधा नहीं, अधिकार की तरह स्थापित करना होगा। साइकिल और पैदल यात्रियों को मुख्यधारा में लाना पड़ेगा । कंजेशन टैक्स, कार-फ्री ज़ोन, महंगी पार्किंग ये सब तात्कालिक उपकरण हैं, लेकिन असली बदलाव तब आएगा जब शहर की योजना एक कार के बजाय एक इंसान के नज़रिए से बनेगी। डेटा-संचालित योजना, न्यायसंगत बजट आवंटन और सामुदायिक भागीदारी के बिना कोई भी समाधान आधा-अधूरा रहेगा।
भारत के शहरों को अब रफ्तार की नहीं, दिशा की ज़रूरत है। जब तक हमारे निर्णय गाड़ियों की सुविधा के इर्द-गिर्द घूमते रहेंगे, तब तक हम असल समस्या की ओर पीठ किए खड़े रहेंगे। एक आदर्श शहर वह नहीं जिसमें हर कार को पार्किंग मिले, बल्कि वह है जहाँ हर बच्चा साइकिल से स्कूल जा सके और हर बुज़ुर्ग पैदल अस्पताल तक पहुंच सके — बिना डर और बिना देर के। आज ज़रूरत है ऐसे शहरों की, जो सिर्फ चलें नहीं, ठीक दिशा में चलें।
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