दंत चिकित्सा में प्रयुक्त डेंटल अमलगम दशकों से दांतों की भराई का एक आम तरीका रहा है, लेकिन अब यह चिकित्सा सुविधा एक गंभीर पर्यावरणीय और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट में बदलती जा रही है। डेंटल अमलगम का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा मरकरी से बना होता है, जो पृथ्वी पर पाए जाने वाले सबसे विषैले तत्वों में से एक है। यह समस्या केवल दंत चिकित्सकीय परिप्रेक्ष्य तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे जल, वायु, मिट्टी और शरीर में लगातार प्रवेश करती हुई एक वैश्विक चुनौती बन चुकी है।
मरकरी का स्वास्थ्य पर प्रभाव
मरकरी मानव शरीर के लिए अत्यंत हानिकारक है, विशेष रूप से यह बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को नुकसान पहुँचाता है। यह केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, हृदय, गुर्दे और प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है। यह शरीर में एकत्र होता रहता है और एक बार प्रवेश करने के बाद वर्षों तक सक्रिय बना रहता है। गर्भवती महिलाओं के माध्यम से यह गर्भस्थ शिशु में और स्तनपान के जरिए नवजात में भी पहुँच सकता है, जिससे यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित हो जाता है।
पर्यावरण में मरकरी का प्रसार
मरकरी का दंत चिकित्सा से पर्यावरण में उत्सर्जन रोके बिना नहीं हो सकता। चाहे वह डेंटल क्लीनिकों से निकलने वाले अपशिष्ट हों, शवदाह के दौरान वायु में मिलने वाला धुआँ हो, या मलमूत्र के माध्यम से जल स्रोतों में पहुँचने वाला मरकरी — यह हर माध्यम से हवा, पानी और मिट्टी को प्रदूषित करता है। जल स्रोतों में पहुँचने पर यह बैक्टीरिया की सहायता से मिथाइल मरकरी में बदल जाता है, जो और भी अधिक विषैला होता है और जलीय जीवों जैसे मछलियों में जम जाता है। जब यह मछलियाँ हमारे भोजन का हिस्सा बनती हैं, तो मरकरी फिर से मानव शरीर में प्रवेश करता है।
अमलगम की मात्रा और प्रभाव
एक सामान्य डेंटल अमलगम फिलिंग में औसतन 0.6 ग्राम मरकरी होता है, जो कि लगभग एक लाख लीटर पीने योग्य पानी को विषैला बनाने के लिए पर्याप्त है। यूरोपीय संघ के एक अनुमान के अनुसार, पर्यावरणीय प्रबंधन के सर्वोत्तम उपायों के बावजूद अमलगम से उत्पन्न लगभग 50 प्रतिशत मरकरी अंततः वातावरण में चला जाता है। मरकरी की मात्रा भले छोटी लगे, लेकिन इसका संचयी प्रभाव विनाशकारी होता है, खासकर तब जब लाखों लोग हर वर्ष इस तकनीक से उपचार कराते हैं।
मिनामाटा संधि और वैश्विक प्रतिबंध
मरकरी के वैश्विक उपयोग और उत्सर्जन को सीमित करने के उद्देश्य से 2013 में ‘मिनामाटा संधि’ को अपनाया गया। 150 से अधिक देशों द्वारा अनुमोदित यह संधि, 28 सितंबर 2023 से सभी सदस्य देशों पर यह बाध्यता लागू करती है कि 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं में डेंटल अमलगम का प्रयोग सीमित या प्रतिबंधित किया जाए। साथ ही, थोक मरकरी का उपयोग दंत चिकित्सा में समाप्त किया जाए। भारत ने इस संधि को अंगीकार तो किया है, किंतु संशोधनों को व्यक्तिगत रूप से स्वीकृत करने की नीति के चलते उसकी प्रतिबद्धता अस्पष्ट बनी हुई है।
मरकरी-रहित विकल्प : व्यवहारिक और सुरक्षित समाधान
कॉम्पोज़िट रेज़िन, ग्लास आयोनोमर और अन्य मरकरी-रहित भराव विकल्प आज चिकित्सा जगत में व्यापक रूप से उपलब्ध हैं। अध्ययन बताते हैं कि ये विकल्प न केवल उतने ही टिकाऊ हैं, बल्कि कई मामलों में अधिक बेहतर सिद्ध होते हैं। इनसे दांत की संरचना को कम नुकसान होता है, मरम्मत आसान होती है, और दीर्घकालिक रूप से ये स्वास्थ्य के लिए अधिक सुरक्षित रहते हैं। इसके अतिरिक्त, जब पर्यावरणीय लागतों को भी जोड़ा जाए, तो डेंटल अमलगम की तुलना में मरकरी-रहित विकल्प अधिक किफायती सिद्ध होते हैं।
भारत की स्थिति और संभावनाएँ
भारत ने 2024 के बैंकॉक सम्मेलन में 2030 तक डेंटल अमलगम को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने की प्रतिबद्धता जताई थी, बशर्ते यह व्यावहारिक हो। लेकिन अब तक न तो कोई ठोस नीति लागू की गई है और न ही कोई राष्ट्रीय कार्ययोजना प्रस्तुत की गई है। भारत में काम कर रही गैर-सरकारी संस्था ‘Toxics Link’ इस विषय पर सक्रिय रूप से कार्य कर रही है और नीति निर्माताओं के समक्ष डेंटल अमलगम के खतरों को उजागर करने में जुटी है।
आगामी वैश्विक प्रस्ताव और भारत की भूमिका
नवंबर 2025 में होने वाले मिनामाटा कन्वेंशन के छठे अधिवेशन (COP6) में अफ्रीकी देशों द्वारा एक प्रस्ताव रखा गया है जिसमें 2030 तक डेंटल अमलगम के उत्पादन, आयात और निर्यात पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग की गई है। यह प्रस्ताव भारत के लिए एक अवसर है कि वह वैश्विक नेतृत्व दिखाते हुए इस प्रतिबंध का समर्थन करे, साथ ही ‘चिल्ड्रन अमेंडमेंट’ को भी स्वीकृति देकर अपनी नीति प्रतिबद्धता को स्पष्ट करे। यह समय है जब भारत केवल प्रतीक्षा न करते हुए सक्रिय हस्तक्षेप करे।आगे का रास्ता क्या है
डेंटल अमलगम के माध्यम से मरकरी का उपयोग अब केवल एक चिकित्सा पद्धति नहीं, बल्कि एक सार्वजनिक और पारिस्थितिकीय संकट है। यह संकट हमारे शरीर, हमारी संतानों और हमारे पर्यावरण को धीरे-धीरे विषाक्त बना रहा है। मरकरी-रहित विकल्प उपलब्ध, व्यवहारिक और लाभकारी हैं — अब देर सिर्फ नीति-निर्माण और राजनीतिक इच्छाशक्ति की है। भारत को चाहिए कि वह इस संकट को प्राथमिकता दे, वैश्विक उदाहरणों से सीखे, और अपने नागरिकों के स्वास्थ्य तथा पर्यावरण की रक्षा हेतु ठोस कदम उठाए।
Read more such articles on Indian Environmentalism.