- भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत स्थिति
- उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 में आए बदलाव
- पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के अंतर्गत स्थिति
- अंतरराष्ट्रीय उदाहरण और भारत में सुधार की आवश्यकता
- विधायिका की जिम्मेदारी: सुधार की दिशा में अगला कदम
- विधि प्रवर्तन और अभियोजन पर प्रभाव
- भविष्य की दिशा
भारत जैसे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों से समृद्ध देश में पशु यौन संबंध (Bestiality) को न केवल एक गहन नैतिक अपराध के रूप में देखा जाता है, बल्कि यह सामाजिक मर्यादाओं और पशु कल्याण सिद्धांतों का भी घोर उल्लंघन माना गया है। 1 जुलाई 2024 तक यह अपराध भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 377 के अंतर्गत दंडनीय था, परंतु भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के प्रभाव में आने के बाद इस संदर्भ में कई बुनियादी बदलाव हुए हैं।
इस लेख में हम इस विषय के विभिन्न कानूनी पहलुओं की गहराई से पड़ताल करेंगे। जैसे की IPC की पुरानी धारा, उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों, BNS में आई नई व्यवस्था, पशु क्रूरता अधिनियम, 1960 की भूमिका, और अंततः, विधायिका और न्यायपालिका के समक्ष मौजूद शून्य और उससे उत्पन्न जटिलताएँ इत्यादि।
भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत स्थिति
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अनुसार “प्राकृतिक क्रम के विरुद्ध किया गया यौनाचार” एक दंडनीय अपराध था। इस परिभाषा में पशु के साथ यौन संबंध (bestiality), नाबालिगों के साथ यौनाचार और गैर-सहमति से किए गए यौन कृत्य सम्मिलित थे। इस धारा के अंतर्गत दोषी को आजीवन कारावास तक की सज़ा और आर्थिक दंड देने का प्रावधान था।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ में एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें सहमति पर आधारित वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को वैधता दी गई। परंतु कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह छूट केवल सहमति पर आधारित संबंधों के लिए है. गैर-सहमति, नाबालिगों के साथ संबंध और पशुओं के साथ यौनाचार जैसे कृत्य अब भी अपराध की श्रेणी में ही बने रहेंगे।
उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर अपने निर्णयों में स्पष्ट किया है कि पशुओं को भी संवैधानिक सुरक्षा और नैतिक संरक्षण प्राप्त है। भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए. नागराजा मामले में न्यायालय ने कहा कि पशुओं को भय, पीड़ा या असहजता से मुक्त रहने का अधिकार संविधान से अभिप्रेत है।
इसी प्रकार, Navtej Singh Johar के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी दोहराया कि धारा 377 को अब भी ऐसे कृत्यों पर लागू रहना चाहिए जो नॉन-कंसेंसुअल, नाबालिगों के साथ या पशुओं के साथ होते हैं। इसने यह सुनिश्चित किया कि यौन शोषण का कोई भी रूप समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जाएगा।
भारतीय न्याय संहिता, 2023 में आए बदलाव
1 जुलाई 2024 से लागू हुई भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) में IPC की धारा 377 को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है। साथ ही BNS में “प्राकृतिक क्रम के विरुद्ध यौन कृत्यों” के लिए कोई स्पष्ट समकक्ष धारा नहीं जोड़ी गई। इससे एक विधायी शून्य उत्पन्न हो गया है, जिसमें bestiality जैसे गंभीर कृत्य मुख्य दंड संहिता से बाहर हो गए हैं।
इससे जुड़े एक उदाहरण के रूप में मई 2025 में एक व्यक्ति को घोड़ी के साथ यौन शोषण करते हुए CCTV फुटेज में पकड़ा गया, परंतु चूंकि BNS में ऐसी किसी धारा का अभाव था, इसलिए पुलिस को भारतीय दंड संहिता के तहत चोरी और पशु क्रूरता अधिनियम की धारा 11(1)(a) का सहारा लेना पड़ा। यह स्थिति इस बात को उजागर करती है कि विधायी स्पष्टता के अभाव में अपराध दर्ज करना और अभियोजन चलाना कितना कठिन हो गया है।
पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के अंतर्गत स्थिति
Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960 की धारा 11(1)(a) में यह प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति किसी पशु को पीटता है, उसे लात मारता है, अत्यधिक बोझ डालता है, या अन्य किसी प्रकार की यातना देता है, तो वह दंडनीय अपराध है। इस धारा का उपयोग पशुओं के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामलों में किया तो जाता है, परंतु यह धारा यौन अपराधों की विशिष्ट गंभीरता को समुचित रूप से नहीं दर्शाती। अतः इन मामलों में दोषियों को अपेक्षाकृत हल्की सजा मिलती है, और अपराध की वास्तविक गंभीरता न्याय के परिप्रेक्ष्य में धुंधली हो जाती है।
अंतरराष्ट्रीय उदाहरण और भारत में सुधार की आवश्यकता
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों ने bestiality को एक विशिष्ट यौन अपराध की श्रेणी में रखा है। उदाहरण के लिए, यूनाइटेड किंगडम की Sexual Offences Act, 2003 में पशुओं के साथ यौन संबंध को स्पष्ट अपराध घोषित किया गया है और उसके लिए उपयुक्त दंड निर्धारित किया गया है।
भारत में पशु अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता और विधि विशेषज्ञ लगातार यह मांग कर रहे हैं कि BNS में एक समर्पित धारा जोड़ी जाए, जिसमें bestiality को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए और उसके लिए कठोर दंड का प्रावधान हो। इससे न केवल विधि प्रवर्तन अधिक प्रभावी होगा, बल्कि भारत अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप भी खड़ा होगा।
विधायिका की जिम्मेदारी: सुधार की दिशा में अगला कदम
सुप्रीम कोर्ट पहले ही यह स्पष्ट कर चुका है कि इस प्रकार के विधायी शून्य को भरना संसद की जिम्मेदारी है, न कि न्यायपालिका की। कई याचिकाओं में अदालत से BNS में bestiality के लिए विशेष धाराएं जोड़ने का अनुरोध किया गया, परंतु कोर्ट ने इस विषय को विधायिका के अधिकार क्षेत्र में मानते हुए हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक एक स्पष्ट और कठोर दंड वाली धारा BNS में नहीं जोड़ी जाती, तब तक इस अपराध को प्रभावी ढंग से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
विधि प्रवर्तन और अभियोजन पर प्रभाव
जब तक भारतीय न्याय संहिता में आवश्यक संशोधन नहीं किए जाते, पुलिस और अभियोजन पक्ष को केवल पशु क्रूरता अधिनियम का सहारा लेना पड़ेगा। इस अप्रत्यक्ष विधिक मार्ग के कारण अपराधियों को अक्सर कम दंड मिलते हैं या वे कानूनी पेचीदगियों के चलते मुक्त हो जाते हैं।
कानूनी सहायता संगठनों और एनजीओ ने यह सलाह दी है कि वर्तमान में प्रत्येक मामले में धारा 11(1)(a) का उपयोग करते हुए अधिकतम दंड की मांग की जानी चाहिए, जिससे न्याय का उद्देश्य आंशिक रूप से ही सही, परंतु पूरा हो सके। दूसरी ओर, अभियुक्त पक्ष इस सामान्य प्रकृति की धारा को चुनौती देकर मुकदमा लंबित कर सकता है या बरी हो सकता है।
भविष्य की दिशा
भारतीय दंड संहिता से धारा 377 के हटने के पश्चात bestiality जैसी गंभीर सामाजिक बुराई को एक विधायी शून्य में छोड़ दिया गया है। यद्यपि पशु क्रूरता अधिनियम के तहत इसे दंडनीय बनाया गया है, परंतु उसमें यौन शोषण की गंभीरता को स्पष्ट रूप से संबोधित नहीं किया गया है।
उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पशु के साथ यौन संबंध एक घोर अपराध है और इसे सख्ती से दंडित किया जाना चाहिए। अब यह संसद की जिम्मेदारी है कि वह भारतीय न्याय संहिता में एक स्पष्ट और समर्पित धारा जोड़कर इस अपराध को कानूनी मुख्यधारा में लाए। जब तक यह विधायी शून्य बना रहेगा, तब तक समाज और पशुओं की रक्षा अधूरी और कमजोर बनी रहेगी और यह स्थिति स्वयं में एक गहरी चिंता का विषय है।
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