हमारी खान पान की आदतें पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदली हैं। चावल और गेहूं जैसे अनाज एक बड़े अनुपात में हमारे खान पान में शामिल हुये हैं। इसके लिए पिछले 50 सालों से हमने खाद्य सुरक्षा हासिल करने के लिए कम समय में ज्यादा पैदावार वाली फसलें उगाने के लिए हाइब्रिड किस्म के गेहूं और चावल उगाए हैं। ये नए किस्म के चावल और गेंहू हमारा पेट तो भर रहे हैं लेकिन इनसे हमारी पोषण जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं।
पहली बार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिकों ने इन आधुनिक किस्मों के गेहूं और चावल के पोषण मूल्य को जांचा है। इस अध्ययन के नतीजे गंभीर चेतावनी दे रहे हैं। नतीजों से पता चलता है कि हम जो अनाज खा रहे हैं, उनका पोषण मूल्य खत्म हो चुका है। यही नहीं, इनमें हानिकारक तत्व भी जमा हो रहे हैं। इस अध्ययन के अनुमान के मुताबिक साल 2040 तक इन अनाजों की पौष्टिकता इतनी कम हो जाएगी कि देश में पहले से ही बढ़ रहे गैर-संक्रामक रोगों की समस्या और गंभीर हो जाएगी।
हमारे खान पान का हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कल्पना कीजिए, पूरी आबादी ऐसी चीज खा रही हो जिसमें कम पोषण हो, जिसमें विटामिन एवं अन्य जरूरी तत्व नहीं हों जो विकास, बीमारियों से बचाने और स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है तो क्या होगा? स्वाभाविक रूप से इसके परिणाम घातक होंगे। केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अधीन काम करने वाले भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिकों के अनुसार, यही हमारा भविष्य है जिसकी तरफ हम बढ़ रहे हैं।
नवंबर 2023 में आईसीएआर, पश्चिम बंगाल के विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय और तेलंगाना के राष्ट्रीय पोषण संस्थान के वैज्ञानिकों ने एक महत्वपूर्ण शोध प्रकाशित किया। इसमें बताया गया है कि हरित क्रांति ने भारत को खाद्य सुरक्षा हासिल करने में तो मदद की, लेकिन पोषण सुरक्षा कमजोर कर दी।
यह अपनी तरह का ऐसा पहला शोध है, जो बताता है कि ज्यादा उपज देने वाली फसलें बनाने के लिए किए गए प्रयासों ने चावल और गेहूं के पोषण मूल्यों को कम कर दिया है। ये दोनों भारत के मुख्य अनाज है। पौधों के आनुवंशिकी बनावट में इतना बदलाव किया जा चुका है कि अब वे मिट्टी से अनाज तक पोषण पहुंचाने का अपना मुख्य काम नहीं कर पाते हैं।
रिसर्च के लिए साल 2018 से 2020 के बीच, वैज्ञानिकों ने 1967 में हरित क्रांति के बाद के दशकों में जारी की गई उत्कृष्ट एवं ऊंची पैदावार वाली चावल और गेहूं की किस्मों को उगाया। इन किस्में ऐसे पौधे हैं जिन्हें खास तरह से विकसित किया जाता है। इसमें चावल के लिए 16 और गेहूं के लिए 18 किस्मों को चुना गया।
वैज्ञानिकों के अनुसार 1960 के दशक से लेकर अब तक चावल और गेहूं की लगभग 1,500 किस्में जारी की गई हैं। इनमें से उत्कृष्ट किस्मों को देश के विभिन्न संस्थानों के ब्रीडरों के साथ चर्चा के बाद चुना गया। ये किस्में लोकप्रिय थीं और इसलिए पूरे देश में एक या दो दशक तक बड़े पैमाने पर उगाई गई। इन किस्मों के बीज को जीन बैंकों से लिया गया था।
फसल के अनाजों के पोषण स्तर के मूल्यांकन से पता चला कि चावल और गेहूं की फसलें पिछले 50 वर्षों में अपना 45 प्रतिशत तक पोषण मूल्य खो चुकी हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसी रफ्तार से 2040 तक ये अनाज मानव उपभोग के लिए, पर्याप्त पोषण देने में असमर्थ हो जाएंगे। भारत में लोगों की दैनिक ऊर्जा जरूरतों का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा सिर्फ चावल और गेंहू पूरा करते हैं।
इसमें अधिक चिंता की बात ये है कि पोषण कम होने के साथ- साथ अनाज में जहरीले तत्वों की मात्रा भी बढ़ गई है। पिछले 50 सालों में चावल में जिंक और आयरन जैसे जरूरी तत्वों की मात्रा 33 प्रतिशत और 27 प्रतिशत कम हो गई है, जबकि गेहूं में ये क्रमशः 30 प्रतिशत और 19 प्रतिशत घटी है। इसके उलट, चावल में जहरीले तत्व आर्सेनिक की मात्रा 1,493 प्रतिशत बढ़ गई है। दूसरे शब्दों में कहे तो, हमारा मुख्य भोजन न सिर्फ कम पौष्टिक हुआ है, बल्कि सेहत के लिए हानिकारक भी हो रहा है।
वैज्ञानिकों ने चावल और गेहूं के पोषण मूल्यों में इस “ऐतिहासिक बदलाव” का स्वास्थ्य पर पड़े असर का भी आकलन किया है। उन्होने चेतावनी दी है कि कम पोषण वाले अनाज देश में गैर-संक्रामक बीमारियों (एनसीडी) के बढ़ते बोझ और भी बदतर कर सकते हैं।
हम जानते हैं कि फॉस्फोरस, कैल्शियम, वैनेडियम और सिलिकॉन हड्डियों को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाते हैं। जिंक इम्यूनिटी, प्रजनन और मस्तिष्क के विकास के लिए जरूरी होता है। आयरन खून बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। साइंस जर्नल नेचर में प्रकाशित वैज्ञानिकों की रिपोर्ट कहती है कि इन जरूरी तत्वों की कमी से हड्डी, जोड़ों, मांसपेशियों के साथ- साथ तंत्रिका तंत्र और प्रजनन संबंधी बीमारियां बढ़ सकती हैं।
यही नहीं, आर्सेनिक और क्रोमियम जैसे जहरीले तत्व फेफड़ों के कैंसर, दमा, हृदय रोग और हड्डियों की कमजोरी का कारण बन सकते हैं। वैज्ञानिक ये भी बताते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में पौष्टिकता से भरपूर ज्वार और बाजरा जैसे मोटे अनाजों का सेवन कम हो गया है। इन सब वजहों से भारत की आवादी पोषण असुरक्षा यानी पौष्टिकता की कमी का ज्यादा खतरा झेल रही है।
इस अध्ययन के नतीजे भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की एक रिपोर्ट से मेल खाते हैं, जिसमें बताया गया है कि 1990 से 2016 के बीच भारत में गैर-संक्रामक बीमारियों में 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अनुमानों के मुताबिक, दुनिया के उन 2 अरब लोगों में से एक तिहाई भारत में रहते हैं, जो सुक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से ग्रस्त हैं। हालांकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में 2015-16 और 2019-21 के बीच बच्चों के बौनेपन (सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का एक संकेतक) में गिरावट दिखाई गई है, लेकिन 5 साल से कम उम्र के बच्चों में यह दर अभी भी 35 प्रतिशत पर काफी अधिक है। 161 जिलों में, 5 साल से कम उम्र के 40 प्रतिशत से अधिक बच्चे बौनेपन से ग्रस्त हैं। भारत में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी इतनी अधिक होने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि मुख्य भोजन में पोषण कम होना इस समस्या का एक बड़ा कारण हो सकता है।
हरित क्रांति ने खेती-बाड़ी के तरीके बदले, लेकिन इन तरीकों को लेकर आलोचना भी होती है कि उनका पर्यावरण और खाद्य व्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है। लेकिन ये चर्चा ज्यादातर जमीन बंजर होने, पानी दूषित होने, पानी के स्रोतों के खत्म होने और एक ही तरह की फसल लगाने तक ही सिमट कर रह जाती है। अब पहली बार, साइंटिफिक रिपोर्ट्स का एक अध्ययन इस बात पर फोकस कर रहा है कि कैसे हरित क्रांति ने भारत की पोषण सुरक्षा को कमजोर किया है।
गेंहू और चावल के पोषण में आई इस कमी के दो कारण हो सकते हैं। पहला, मिट्टी में पोषण की कमी और दूसरा, ऐसे अनाज जो पोषण को अच्छे से ग्रहण नहीं कर पाते। दुनियाभर के वैज्ञानिक मानते हैं कि आधुनिक अनाज में जिंक और आयरन कम पाए जाते हैं, लेकिन इस बात के पक्के सबूत नहीं हैं कि मिट्टी में पोषण की कमी इन अनाजों में पोषण कम कर देती है। वैज्ञानिक बताते हैं कि उनके प्रयोग में यह पाया गया कि जब कम ऊंचाई वाली ऊंची पैदावार वाली फसलें लाई गई, तो अनाज में मिनरल की मात्रा कम हो गई। इस बात से पता चलता है कि नए किस्म के चावल और गेहूं मिट्टी में मौजूद जिंक और आयरन को अच्छे से ग्रहण नहीं कर पाते भले ही मिट्टी में ये तत्व प्रचुर मात्रा में मौजूद हों।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि अनाज में पोषक तत्वों की सांद्रता और मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के बीच कोई संबंध नहीं है, फसलों को पोषक तत्वों से भरपूर प्रयोगात्मक मिट्टी पर उगाया गया। वैज्ञानिकों ने विश्लेषण किया और पाया कि नई किस्मों में चार महत्वपूर्ण तत्वों कैल्शियम, जिंक, आयरन, कॉपर की मात्रा परंपरागत किस्मों की तुलना में कम थी। उदाहरण के लिए, 1960 के दशक में जारी चावल की किस्मों में इन तत्वों की मात्रा क्रमशः 337 मिलीग्राम, 19.9 मिलीग्राम और 33.6 मिम्रा प्रति किलोग्राम थी। 2000 और 2010 के दशक में आई किस्मों में यह क्रमशः 186.3 मिग्रा (45 प्रतिशत कमी) 13.4 मिग्रा (33 प्रतिशत कमी) और 23.5 मित्रा (30 प्रतिशत कमी) तक गिर गई। गेहूं के मामले में भी यही कहानी है। समय के साथ, केवल लिथियम और वैनेडियम को छोड़कर, चावल और गेहूं दोनों में अन्य सभी लाभदायक तत्वों, सिलिकॉन, निकल, सिल्वर और गैलियम की मात्रा नई किस्मों में कम हो गई है। इसका सीधा सा मतलब ये है कि पौधे मिट्टी से पोषक तत्व लेने की अपनी क्षमता खो चुके हैं। जब हमारे देश में अधिक पैदावार वाली फसलों को तैयार होनी शुरू हुई, तो इसमें उन जीनों का चयन नहीं हुआ जो अनाज में पोषक तत्वों को बढ़ाते हैं बल्कि उसमें ऐसे जीन लिए गए जो उत्पादन बढ़ाते हैं। अधिक पैदावार पर इतना ध्यान देने से भोजन के पोषण मूल्य, खासकर उसमें मौजूद खनिज तत्वों की कुल मात्रा, जिसे आयोनोम क़हा जाता है, की उपेक्षा हो गई।
भूख और पोषण के बीच बड़ी दुविधा
हरित क्रांति का लक्ष्य था देश की तेजी से बढ़ती आबादी को खाना खिलाना और देश को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाना। उस दौर में बार-बार अकाल और अनाज की कमी के संकट से दो-चार होना पड़ता था। भूख आम थी। इसलिए कृषि वैज्ञानिकों का मुख्य ध्यान पैदावार बढ़ाने पर था और पोषण की कमी के बारे में सोचने की स्थिति ही नहीं थी। 1980 के दशक के बाद ही देश में पोषण की कमी पर पहली आधिकारिक रिपोर्ट जारी हुई।
हरित क्रांति से पहले भारत में उगाई जाने वाली पारंपरिक चावल और गेहूं की किस्मों में कई महत्वपूर्ण गुण थे। किसानों के चयन के कारण प्राकृतिक एवं स्वाभाविक रूप से विकसित ये किस्में न सिर्फ स्थानीय वातावरण के लिए अनुकूल थीं, बल्कि उनमें पोषण भी भरपूर होता था। हरित क्रांति के दौरान इन देसी किस्मों का इस्तेमाल नई किस्में बनाने के लिए किया गया। उच्च पैदावार वाली किस्मों से ली गई जीनों को इनमें डालकर अनाज में प्रकाश संश्लेषण से बने पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने की कोशिश की गई, जिससे अनाज और पैदावार बेहतर होता है, इससे अनाज तक पौधों से पर्याप्त पोषण (प्रकाश संश्लेषण से बने पोषक तत्व) पहुंचा, लेकिन यह जरूरी नहीं था कि खनिज और अन्य पोषक तत्व भी उसी अनुपात में पहुचें। इस तरह धीरे-धीरे अनाज ज्यादा पोषण लेने का गुण खो दिए। देसी किस्मों को तेजी से दूसरी किस्मों के साथ मिलाने से मूल किस्में प्रजनन प्रक्रिया से बाहर हो गईं और देश के उत्पादन लक्ष्य पर ध्यान देते हुए धीरे-धीरे उनमें मौजूद उपयोगी जीन भी कम हो गए।
1980 के दशक के बाद, कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान ऐसी किस्में बनाने पर चला गया जो कीटों, बीमारियों का सामना कर सकें और खारे पानी, कम नमी और सूखे जैसी चुनौतियों को झेल सकें। उस समय तात्कालिकता के दबाव में यह सोचने का समय नहीं था कि पौधे पोषक तत्व ले रहे हैं या नहीं। इससे हमने उत्पादन की मात्रा तो बढ़ाई, लेकिन पोषण गुणवत्ता खो दी। हरित क्रांति का एक और नकारात्मक प्रभाव हुआ। आधुनिक प्रजनन कार्यक्रमों में लगातार जेनेटिक बदलावों के कारण, पौधों ने जहरीले तत्वों के खिलाफ अपने प्राकृतिक रक्षा तंत्र को भी खो दिया है। असल में पौधे अच्छे और बुरे दोनों तरह के खनिज तत्वों को एक ही रास्ते से अवशोषित करते हैं। इसलिए जहरीले तत्वों का तने तक पहुंचना बिल्कुल सामान्य है। लेकिन चावल एक बुद्धिमान पौधा है। इसलिए यह अपनी अनुवांशिक क्षमता का इस्तेमाल उन तत्वों को रोकने के लिए करता है जो पौधे या मनुष्यों के लिए अच्छे नहीं हैं और उन्हें दाना तक पहुंचने नहीं देता। उदाहरण के लिए, आर्सेनिक पौधे के लिए ज्यादा हानिकारक नहीं है, लेकिन मनुष्यों के लिए बहुत हानिकारक है। इसलिए, जब मिट्टी में आर्सेनिक की मात्रा अधिक होती है, तो चावल का पौधा उस तत्व को ग्रहण करने की ट्रांसपोर्टर की क्षमता को स्वचालित रूप से बंद कर देगा। या यह जहरीली धातु को पौधे के किसी बिना इस्तेमाल के हिस्से में, जैसे रिक्तिका में, जमा करने के लिए एक और तंत्र का उपयोग करेगा। परंतु पौधे का यह प्राकृतिक तंत्र अब कमजोर हो गया है।
अब अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए पौधे कुछ खास पोषक तत्वों को बहुत ज्यादा मात्रा में ले रहे हैं। उसी रास्ते से हानिकारक तत्व भी पौधे के तने तक अधिक मात्रा में पहुंच जाते हैं। रिसर्च में पाया गया है कि चावल की अच्छी किस्मों में मौजूद हानिकारक तत्वों को रोकने की खास क्षमता अब कम हो गई है।
यह भी एक कारण है कि गेहूं की तुलना में चावल में जहरीले तत्वों का जमाव अधिक होता है। उदाहरण के लिए, 1960 के दशक में जारी गेहूं की किस्मों में यह मात्रा 0.032 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम थी, जो 2010 के दशक में 0.015 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम (53 प्रतिशत कमी) तक कम हो गई है। गेहूं में सीसा और क्रोमियम की मात्रा में भी गिरावट देखी गई है।
वैज्ञानिक चावल और गेहूं की खेती के अलग-अलग तरीकों को जहरीले तत्वों के अधिक जमाव का एक संभावित कारण मानते हैं। चावल को पानी में डूबे हुए क्षेत्रों में उगाया जाता है। जब मिट्टी पानी में डूब जाती है, तो एक अवायवीय (एनारोबिक) स्थिति बन जाती है, जिसका अर्थ है कि हवा मिट्टी तक नहीं पहुंच पाती है। इस स्थिति में भारी धातु रासायनिक परिवर्तन से गुजरते हैं और अधिक घुलनशील रूप ले लेते हैं, जिससे वे पौधों के लिए आसानी से ग्रहण करने योग्य बन जाते हैं। और जड़ें इन हानिकारक तत्वों और पोषक तत्वों में अंतर नहीं कर पाती हैं।
पूरी दुनिया की समस्या
भारत इकलौता देश नहीं है जहां फसलों में पोषण कम होने का पैटर्न दिखता है। दूसरे देशों के वैज्ञानिकों भी यही बता रहे है कि जब से नई ज्यादा पैदावार वाली किस्में आई हैं, तब से अनाज में पोषक तत्वों की मात्रा कम हो रही है।
ऐसा ही एक अध्ययन यूके के रोथैमस्टेड रिसर्च के मिंग- शेंग फैन ने किया था। उन्होंने दुनिया के सबसे पुराने लगातार चलने वाले कृषि प्रयोग, ब्रॉडबाल्क व्हीट एक्सपेरिमेंट के गेहूं के दानों और मिट्टी के नमूनों का परीक्षण किया। ब्रॉडबाल्क व्हीट एक्सपेरिमेंट 1843 में शुरू हुआ था। रिसर्चरों ने 8 अलग-अलग खेतों के नमूनों को लिया। उन्हें 1960 के दशक से ही गेहूं के दानों में जिंक, तांबा, लोहा और मैग्नीशियम की मात्रा में लगातार कमी दिखी। वैज्ञानिकों ने 2008 में जर्नल ऑफ ट्रेस एलिमेंट्स इन मेडिसिन एंड बायोलॉजी में लिखा कि 1845 से 1960 के दशक के मध्य तक इन तत्वों की मात्रा स्थिर थी, लेकिन उसके बाद ज्यादा पैदावार वाली छोटी किस्में आने के साथ तेजी से 20-30 प्रतिशत तक कम हो गई। हालांकि, मिट्टी में इन तत्वों की मात्रा बढ़ी है या स्थिर रही है। इस अध्ययन ने दिखाया कि हरित क्रांति ने अनचाहे में गेहूं के दानों में खनिज तत्वों की मात्रा कम कर दी है।
इसी तरह 2006 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दिखाया कि 100 सालों में गेहूं की 14 किस्मों के विकास के दौरान अनाज में आयरन और जिंक की मात्रा काफी कम हो गई। यह अध्ययन 2006 में जर्नल ऑफ द साइंस ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर में प्रकाशित हुआ था। 2015 में ईरान के रिसर्चरों ने यह पाया कि 70 सालों के दौरान जब ज्यादा पैदावार वाली किस्में आई तो पैदावार में ज्यादा सुधार नाहीं हुआ, लेकिन अनाज में प्रोटीन, आयरन और जिंक की मात्रा बहुत कम हो गई। उनका अध्ययन यूरोपियन जर्नल ऑफ एग्रोइकनिमों में प्रकाशित हुआ। उसमें कहा गया है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वैज्ञानिक ज्यादा पैदावार पर तो ध्यान देते थे, लेकिन फसल की गुणवत्ता, खासकर प्रोटीन, आयरन और जिंक की मात्रा पर ध्यान नहीं देते थे। यह अध्ययन बताता है कि नई किस्मों की ज्यादा पैदावार के कारण भी पोषक तत्वों की मात्रा कम हो सकती है, जिसके पीछे पर्यावरण और आनुवंशिक दोनों कारण हो सकते हैं।
कारण चाहे जो हो, भारत में अनाजों में पोषण बढ़ाने के लिए बड़े प्रयास किए जा रहे हैं। इस बार कृषि वैज्ञानिकों ने जवाब ढूंढने के लिए देसी किस्मों और जंगली प्रजातियों की ओर रुख किया है। वैज्ञानिकों के इस कदम का नतीजा क्या होगा ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।