भारत में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। यह ऐसा समय है जब देशवासी अपने पसंद का नेता चुनने के लिए मतदान कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिसके आधार पर राजनैतिक पार्टियां वोट मांग रही हैं। लेकिन इन सभी चुनावी मुद्दों में पर्यावरण एक ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा है जो कहीं नज़र नहीं आ रहा है।
पर्यावरण आज हमारी सभ्यता का केंद्रीय विषय है। जलवायु परिवर्तन, बढ़ता तापमान, जल संकट, वायु प्रदूषण, अप्रत्याशित बारिश, शहरी जल भराव, जहरीली मिट्टी, मेमौसम बरसात, बाढ़, सूखा एवं कचरे के पहाड़ जैसी न जाने कितनी ऐसी समस्याएँ हैं जिनसे हमारा समाज जूझ रहा है। अब सवाल यह है कि यदि पर्यावरण का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण है तो यह प्रमुख राजनैतिक मुद्दा क्यों नहीं है। आखिर मतदान सिर्फ राजनैतिक दलों और नेताओं का महज चयन ही नहीं होता बल्कि यह प्रकृति की सुरक्षा, बेहतर कल, सभी नागरिकों के संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी और भारत के युवाओं के लिए एक सुरक्षित भविष्य की कुंजी भी है।
हाल ही में CSDS लोकनीति ने लोकसभा चुनावों की के प्रमुख मुद्दों के विषय में एक सर्वे प्रकाशित किया है। इसमें पर्यावरणीय मुद्दे बिल्कुल नदारद हैं। आइये हम इस पहेली को समझने की कोशिश करते हैं। हम आये दिन राजनीति और राजनेताओं की आलोचना किया करते हैं कि राजनीति में गिरावट आ गयी है या फिर यह कि फलां राजनेता महाभ्रष्ट है। परंतु चुनावी राजनीति किसी बाजार की तरह होती है। जैसे व्यापार मुनाफे के लिए किया जाता है वैसे ही राजनीति के खिलाड़ी इस मैदान में सत्ता हासिल करने के लिए उतरते हैं।
अब जैसे हम यह उम्मीद नहीं पालते कि कोई व्यापारी, ग्राहकों के फायदे के लिए अपना कोई नुकसान उठाएगा वैसे ही हमें यह उम्मीद भी नहीं पालनी चाहिए कि कोई राजनीतिक दल या फिर कोई राजनेता जनता की सेवा करने या किसी प्रमुख मुद्दे को उठाने के चक्कर में चुनाव हारने का जोखिम उठाएगा। राजनीतिक दल और राजनेता वही करते हैं जिनसे वो सत्ता हासिल कर सकें और ऐसा कोई भी कदम उठाने से परहेज करते हैं जो उन्हें सत्ता से दूर करे।
हम जानते हैं मतदाता के जीवन के बुनियादी आवश्यकताएँ जैसे कि साफ पानी, साफ हवा या अन्य कई चीजें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण से जुड़े हैं। यदि हम चुनावी राजनीति के हिसाब से सोचे तो जो राजनीति की दुनिया से जुड़े हुए लोग हैं उन्हें तो मतदाताओं की इस जरुरत को पूरा करने की तरफ दौड़ पड़ना चाहिए, पर्यावरणीय समस्याओं को हल करने का श्रेय लेना चाहिए और चुनावों में अपनी जीत की संभावना बढानी चाहिए। परंतु चुनावी राजनीति एक अलग तरीके से काम करती है। चुनावी मुद्दे और मतदान कई बार तार्किक नफा नुकसान की जगह भावनाओं से तय होते हैं।
हमारे समय की जो वास्तविक समस्या है, शायद जो सबसे गहरी जरुरत है, उसे लोकतंत्र भला क्यों पूरा करे? ऐसा करने की क्या मजबूरी हो सकती है लोकतंत्र के पास? लोकतांत्रिक राजनीति समय की इस बड़ी जरुरत को पूरा करने की दिशा में प्रयास कर सकती है, लेकिन उसकी कुछ शर्ते हैं। पहली बात तो यह कि चुनावी राजनीति में जो पारस्परिक होड़ की राजनीति चलती है, उसमें जरूरतों की नहीं बल्कि मांग की सुनी जाती है। कोई मुद्दा कितना भी महत्वपूर्ण जरूरत क्यों न क्यों न हो यदि उस मुद्दे की मांग नहीं है तो वह चुनावी मुद्दा नहीं बन सकता।
चंद दूरदर्शी नेताओं की बात अपवादस्वरुप छोड़ दें तो फिर कहा जा सकता है कि नेताओं के पास ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती कि वे मतदाताओं की जरुरत को सुनें एवं उस पर कारवाई करें। पर यह जरुरत जब एक स्पष्ट मांग के रूप में मुखर होने लगती है तो राजनेताओं के लिए इस मांग पर ध्यान देने की मजबूरी हो जाती है। इसके लिए आवश्यक होता है, अपनी जरुरतों के प्रति आगाह होना और जरुरतों को ठोस रुप देना ताकि उन्हें आसान भाषा में सुना और सुनाया जा सके। मतदाता के लिए जरुरी है कि उसे पता हो कि कोई चीज अगर उसे झेलनी पड़ रही है तो उसकी वजह क्या है और इसके साथ ही इस मुद्दे के बारे में अपनी बात सबके सामने रखनी होगी।
दूसरी शर्त है मांगों का एकजुट या एकत्रित होना। चुनावी राजनीति में किसी जरूरत का मांग के रूप में मुखर होना जरूरी तो है परंतु पर्याप्त नहीं है। ऐसा कोई होना चाहिए जो किसी मसले पर मुखर हो रही तमाम मांगों के बीच सामंजस्य बैठाए, उन्हें एकत्रित एवं एकजुट करे तथा इन मांगों को मुखर करने वाले लोगों को एक ताकत के रूप में लामबंद करे।
समान्यतया राजनेता तब तक कोई प्रयास नहीं करते जब तक कि उनके आगे यह ना जाहिर हो जाये कि फलां मांग को लेकर उठ रही एकजुट आवाजों पर यदि ध्यान न दिया तो अपनी कुर्सी ही खतरे में पड़ जायेगी। तो दूसरा बात यह है कि संगठित बनना होता है एवं सामूहिक रणनीति के साथ एकसीध और एकसुर में काम करना होता है।
परंतु यह संभव है कि ऐसी सामूहिक कार्रवाई आपको अपना मकसद हासिल करने की तरफ कुछ दूर तो ले जाये लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह निर्णायक भी साबित हो या इतनी कारगर हो जाये कि मकसद हासिल हो सके। आलोचना करने भर से इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि मतदाता एकजुट हुई मांगों के पक्ष में अपने कदम बढ़ा देगा, सबसे जरूरी यह होता है कि मतदाता को कोई ठोस और कारगर विकल्प नजर आये। उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार जैसी समस्या तो हमेशा से रही हैं और इसकी आलोचना भी होती रही है लेकिन भ्रष्टाचार का मुद्दा निर्णायक चुनावी मुद्दा तभी बन पाता है जब ईमानदार समझा जा रहा कोई नेता या पार्टी चुनावी होड़ में दिखायी देते हैं। यहां जो बात भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लागू होती है वही बात पर्यावरण के मुद्दे के बारे में लागू होती है।
कोई मुद्दा चाहे कितना ही महत्वपूर्ण हो लेकिन वो मुद्दा निर्णायक तभी बनता है जब कोई राजनीतिक दल इसे अपने अजेंडे में शामिल करे और समाधान के लिए क्या-क्या ठोस उपाय किये जायेंगे, ऐसी कोई वैकल्पिक कार्य-योजना बनाये। तो, इस बात से एक तीसरा महत्वपूर्ण सबक निकलता है अंतिम कदम वैकल्पिक राजनीति को ही उठाना पड़ता है। जब जनता को सार्थक विकल्प दिखता है तो वह सही विकल्प भी चुनती है।
पर्यावरण चाहे कितना भी गंभीर मुद्दा क्यों न हो, वह अपने आप से राजनीतिक मुद्दा तो नहीं बन सकता। पर्यावरण को चुनावी मुद्दा बनाना पड़ेगा। लोगों को जागृत करके, मसले को सार्वजनिक रुप से मुखर करके, मुखर हुई मांग को एकजुट करके तथा अंत में विकल्प देकर हम अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण विषय को चुनावी राजनीति का महत्वपूर्ण विषय बना सकते है।