अक्सर पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने को दिल्ली की दमघोंटू हवा का प्रमुख कारण बताया जाता है। धान की कटाई के बाद बचे हुए फसल अवशेषों को जलाने की यह प्रथा आमतौर पर हर साल 15 सितंबर से 30 नवंबर के बीच होती है। इन महीनों के दौरान मीडिया, सरकार और दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोगों द्वारा लगातार किसानों पर पराली जलाने का आरोप लगाया जाता है। इससे एक ऐसा विमर्श तैयार होता है जिससे लगता है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण के लिए अगर कोई सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वो किसान हैं। यह स्थिति हमें कई महत्वपूर्ण सवाल उठाने पर मजबूर करती है। पहला, क्या हरियाणा और पंजाब के किसान वाकई दिल्ली को प्रदूषण से दमघोंटू बना रहे हैं? अगर ऐसा है, तो सरकार इस समस्या के समाधान के लिए ठोस कदम क्यों नहीं उठा रही है? हाल के वर्षों में पराली जलाने वाले किसानों पर जुर्माना, कारावास और अन्य कई प्रतिबंधों की खबरें सामने आई हैं। फिर भी किसान अपनी पराली जलाने पर अड़े क्यों हैं? क्या यह विकल्पों की कमी के कारण है या उनकी उदासीनता का परिणाम है? क्या कई एकड़ जमीन पर फसल अवशेष जलाने से किसानों और उनके परिवारों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता? यदि हम इन सवालों का जवाब ढूंढें तो हमें पता चलेगा कि दिल्ली की खराब हवा केवल किसानों की गलती नहीं है, बल्कि यह एक गहरी व्यवस्थागत समस्या है।
दिल्ली की बात करें तो यहाँ कचरे का उत्पादन तेजी से बढ़ा है और इससे प्रदूषण की समस्या कई गुना बढ़ गयी है। आजादी के समय दिल्ली की आबादी लगभग 9 लाख थी, जो 2024 तक बढ़कर 3 करोड़ से अधिक हो गई है। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली जैसे महानगरों में प्रति व्यक्ति कचरा उत्पादन भी बाकी शहरों और गांवों के मुक़ाबले अधिक होता है। यहाँ उपभोग का स्तर देश के बाकी हिस्सों से अधिक है। इससे स्वाभाविक रूप से, शहर की वहन क्षमता यानि कैरिंग कैपेसिटी, जिसे किसी क्षेत्र की अधिकतम आबादी प्रबंधन करने की क्षमता के रूप में परिभाषित किया जाता है, पर अत्यधिक बोझ पड़ा है।
इसका सीधा मतलब यह है कि न केवल प्राकृतिक संसाधन जैसे पानी और जमीन हर गुजरते साल के साथ दुर्लभ हो रहे हैं, बल्कि दिल्ली की बढ़ती आबादी से उत्पन्न वायु प्रदूषण भी प्रकृति की सहनशीलता के स्तर से अधिक हो गया है। प्रदूषण के अन्य स्रोतों में हमारे शौचालयों और उद्योगों से यमुना नदी में बहने वाला कचरा, कूड़ेदानों से निकलने वाला ठोस कचरा जो ओखला, गाजीपुर और भलस्वा के लैंडफिल में जमा होता है (दिल्ली में प्रति व्यक्ति प्रति दिन लगभग 0.6 किलोग्राम कचरा निकलता है), अंतहीन निर्माण गतिविधियों से उत्पन्न धूल और धुआं, और हानिकारक वाहन उत्सर्जन शामिल हैं। दिल्ली के आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के अनुसार, शहर की सड़कों पर लगभग 80 लाख वाहन चल रहे थे। ऐसे में 3 करोड़ निवासी और पड़ोसी क्षेत्रों से आने वाले लाखों आगंतुक हर दिन प्रदूषण के इन सभी स्रोतों में योगदान दे रहे हैं।
इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि दिल्ली की वायु प्रदूषण की समस्या केवल पराली जलाने तक सीमित नहीं है। यह एक जटिल और व्यवस्थागत समस्या है, जो शहर की बढ़ती आबादी, संसाधनों की कमी और ठोस कचरे व वाहनों से उत्पन्न प्रदूषण का परिणाम है। समाधान के लिए किसानों को दोष देने से आगे बढ़कर एक समग्र और व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
वार्षिक प्रदूषण
ऐसा नहीं है कि दिल्ली की खराब वायु गुणवत्ता केवल सर्दियों के महीनों तक ही सीमित रहती है। सर्दियों में प्रदूषण की मीडिया कवरेज और सार्वजनिक चर्चा बढ़ जाती है इसलिए ऐसा लगता है कि यह समस्या सिर्फ सर्दियों की ही है। यदि हम आंकड़ों को देखें तो 2023 में दिल्ली का औसत वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 204 था, जिसमें नवंबर में सबसे खराब AQI 373 दर्ज किया गया। यह ध्यान देने योग्य है कि 2023 में जुलाई को छोड़कर, किसी भी महीने का औसत AQI 100 से नीचे नहीं था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, आदर्श वायु गुणवत्ता सूचकांक 0-50 के बीच होना चाहिए। इसके बावजूद, गैर-सर्दियों के महीनों के खराब AQI को लेकर सार्वजनिक चर्चा लगभग नदारद रहती है। आंकड़ों पर नजर डालने से यह पता चलता है कि लगभग यही हाल 2024 का भी रहने वाला है।
वायु प्रदूषण पर सर्दियों का प्रभाव
चूंकि ठंडी हवा गर्म हवा की तुलना में अधिक घनी होती है, सर्दियों के महीनों में दिल्ली में ठंडी हवा प्रदूषकों को निचले वायुमंडल में जमा कर देती है, जिससे प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। सर्दियों के दौरान दिल्ली की हवा लगभग स्थिर हो जाती है और इससे यह समस्या और गंभीर हो जाती है। यही कारण है कि दिवाली के पटाखे हर साल एक मुद्दा बन जाते हैं, क्योंकि यह त्योहार सर्दियों के महीनों के साथ मेल खाता है और इसमें इस्तेमाल होने वाली बेरियम और सीसा जैसी भारी धातुएं वायु गुणवत्ता को और खराब करती हैं। पराली जलाने के संदर्भ में भी यही स्थिति देखने को मिलती है। हालांकि पराली जलाना दिल्ली की प्रदूषण समस्या का एकमात्र कारण नहीं है—धान की कटाई के महीनों के दौरान इसका योगदान 20-35% तक होता है—फिर भी यह कई दिनों तक खराब वायु गुणवत्ता का एक महत्वपूर्ण कारण बनता है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि पराली जलाना केवल एक मौसमी समस्या है, जबकि वाहन उत्सर्जन और निर्माण गतिविधियों जैसे बारहमासी स्रोत वायु प्रदूषण में बड़े योगदानकर्ता हैं।
नवंबर 2024 के अंतिम सप्ताह में खेतों में आग लगाने की घटनाओं में कमी के बावजूद, दिल्ली की वायु गुणवत्ता मुख्य रूप से वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के कारण ‘गंभीर’ श्रेणी में बनी रही। दुर्भाग्यवश, पराली जलाने पर दोष मढ़ना और इस मुद्दे का राजनीतिकरण करना सत्ता में बैठे लोगों के लिए सुविधाजनक हो गया है, क्योंकि यह जनता का ध्यान अन्य प्रमुख प्रदूषण स्रोतों से भटकाने और भ्रमित करने का काम करता है, जिससे सरकार और प्रशासन अपनी जवाबदेही से बच निकलते हैं।
धान और गेंहू
पराली जलाना एक व्यवस्थागत समस्या का हिस्सा है, जिसे किसानों पर जुर्माना और कारावास जैसी त्वरित प्रतिक्रियाओं के बजाय संरचनात्मक सुधारों के माध्यम से ही सुलझाया जा सकता है। पहले यह समझना जरूरी है कि कम से कम 2013 से अदालतों द्वारा इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद किसान पराली जलाने के लिए क्यों मजबूर हैं।
स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत को एक गंभीर अनाज संकट का सामना करना पड़ा। देश बार-बार सूखे और अकाल से जूझ रहा था और अपनी आबादी को पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराने में असमर्थ था। 1960 के दशक में हालात और बिगड़ने पर एम.एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व में हरित क्रांति की शुरुआत हुई। इसके बाद ऐसे क्षेत्रों में भी गेंहू और धान की बुवाई शुरू हुई जहां आम तौर पर मोटे अनाज बोये जाते थे। इस कार्यक्रम के तहत, उच्च उपज देने वाली किस्म (HYV) के बीज, विशेष रूप से गेहूं और धान पर जोर दिया गया। इन बीजों ने प्रति एकड़ अधिक उपज दी, लेकिन वे पानी और उर्वरकों पर अत्यधिक निर्भर थे। अल्प और मध्यम अवधि में, भारत ने खाद्यान्न की कमी से छुटकारा पा लिया और बड़े भूमिधारक किसान समृद्ध हुए। इन सबसे खेती की विविधता, फसलों की पोषकता और पानी की उपलब्धता पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में दशकों तक गेहूं और धान की खेती ने भूजल स्तर को काफी हद तक कम कर दिया। धान की बुवाई पारंपरिक रूप से मई-जून के गर्म और सूखे महीनों में होती है, इस दौरान सिंचाई की जरूरतें भूजल के अंधाधुंध दोहन से पूरी की जाती हैं। मई-जून में धान की बुआई का मतलब होता है कि फसल सितंबर-अक्टूबर में कटाई के लिए तैयार होगी। इससे किसानों को रबी की फसल, यानी गेहूं, की बुआई के लिए अपने खेत तैयार करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है, जिसे नवंबर के मध्य से दिसंबर की शुरुआत तक बोया जाता है।
हालांकि, 2009 में पंजाब सरकार ने भूजल संकट को नियंत्रित करने के लिए पंजाब सबसॉइल वाटर प्रोटेक्शन एक्ट पारित किया। इस एक्ट के तहत, धान को जून के मध्य के बाद ही बोने की अनुमति दी गई, जब मानसून शुरू हो चुका होता है। इसका उद्देश्य भूजल पर निर्भरता कम करना और मानसून आधारित सिंचाई को बढ़ावा देना था। इस तरह से हम देखें तो इस कानून का इरादा सकारात्मक था, लेकिन इसने धान की बुआई और कटाई का चक्र लगभग एक महीने आगे बढ़ा दिया। इसके परिणामस्वरूप, अब धान की कटाई अक्टूबर-नवंबर में होती है, जिससे किसानों के पास गेहूं की बुआई के लिए अपने खेत तैयार करने का समय नहीं बचता। इसी समय अवधि की कमी ने किसानों को फसल अवशेषों को जल्दी से हटाने हेतु पराली जलाने के लिए मजबूर कर दिया।
पराली जलाने पर अंकुश लगाने का पहला कदम
अब, आइए समझते हैं कि इसके कई दुष्प्रभावों के बावजूद किसानों के लिए पराली जलाना सबसे व्यवहार्य विकल्प क्यों बना। पराली जलाने को रोकने के प्रयासों के बावजूद, परंपरागत रूप से फसल अवशेष या पराली का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए किया जाता था, जैसे छप्पर बनाना और पशुओं के लिए बिस्तर तैयार करना। पहले धान की कटाई मशीन की जगह हाथों से होती थी और पुवाल का उपयोग कई सारे कामों में होता था। हालांकि, आज इन उद्देश्यों के लिए कई अन्य विकल्प मौजूद हैं। इसलिए, पराली जलाने पर अंकुश लगाने का पहला कदम पराली के उपयोग के नए तरीके खोजना है, ताकि इसे न जलाना किसानों और व्यापक अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक रूप से लाभदायक हो। हमें यह सुनिश्चित करना है कि पराली ना जलाना किसानों के लिए पराली जलाने से कहीं अधिक लाभदायक हो।
आज के समय में पशुओं के चारे के रूप में पराली का उपयोग कम हो रहा है। उत्तर भारत के किसान धान की पराली को उसकी तुलनात्मक रूप से उच्च सिलिका सामग्री के कारण कम पसंद करते हैं। इसके अलावा, मशीनों से कटाई के दौरान ईंधन के रिसाव के कारण गेहूं के भूसे को अस्वीकार किए जाने की भी रिपोर्टें मिली हैं। इस स्थिति ने फसल अवशेषों के इन-सीटू (खेत में प्रबंधन) और एक्स-सीटू (खेत से बाहर प्रबंधन) के अन्य तरीकों के लिए जगह बनाई है। इस पूरी परिस्थिति में अब या तो हम फसल अवशेष को खेत में ही निस्तारित कर सकते हैं या फिर इसे कहीं बाहर ले जाकर इसका कुछ उपयोग कर सकते हैं।
इसके लिए 2014 में केंद्र सरकार ने फसल अवशेषों के प्रबंधन हेतु एक राष्ट्रीय नीति शुरू की। इस नीति के तहत, प्रत्येक राज्य को फसल अवशेष जलाने को रोकने के लिए एक कार्य योजना तैयार करनी थी, जिसमें समुदायों, पंचायतों और राज्य सरकारों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी थी। यह नीति राज्यों को फसल अवशेष जलाने की घटनाओं पर निगरानी रखने और उन्हें रिपोर्ट करने के लिए एक तंत्र बनाने का भी प्रावधान करती है। इसके अतिरिक्त, वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत फसल अवशेष जलाना दंडनीय अपराध है। फिर भी, यह प्रथा कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है।
2015 में एनजीटी के निर्देश के अनुसार, एनसीआर एयर-शेड साझा करने वाले पांच राज्यों को यह सुनिश्चित करना था कि किसानों को मशीनें, उपकरण, या उनकी लागत प्रदान की जाए, ताकि कृषि अवशेषों को खेतों से हटाया जा सके, एकत्र किया जा सके और प्रत्येक जिले में उपयुक्त पहचाने गए स्थलों पर संग्रहीत किया जा सके। हालांकि, इन प्रयासों के बावजूद, पराली जलाने की समस्या अब भी जारी है।
पराली प्रबंधन का अर्थशास्त्र
2018 में केंद्र सरकार ने पराली प्रबंधन को बेहतर बनाने और इसे बढ़ावा देने के लिए फसल अवशेष प्रबंधन (सीआरएम) योजना शुरू की। विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी) दिल्ली में इसे लागू किया जाना था। 2024 में, सीआरएम समाधानों तक किसानों की पहुंच सुधारने, सीआरएम मशीनरी के कुशल उपयोग को सुनिश्चित करने, और बायोमास एग्रीगेटर्स के माध्यम से फसल अवशेषों/पराली के बढ़ते उपयोग को सक्षम करने के उद्देश्य से, पिछले संस्करणों की कमियों को ध्यान में रखते हुए दिशानिर्देशों को अपडेट किया गया। इन प्रयासों का उद्देश्य सभी हितधारकों को लाभ पहुंचाने के साथ-साथ पराली जलाने को रोकना है।
सुपर सीडर जैसी मशीनें धान के भूसे को काटती और उखाड़ती हैं, गेहूं के बीज बोती हैं, और पराली को बोए गए क्षेत्र में वापस जोत देती हैं। यह सब एक ही ऑपरेशन में होता है। इसे पराली के इन-सीटू प्रबंधन के रूप में जाना जाता है। हालांकि, इन मशीनों को चलाने के लिए भारी ट्रैक्टरों की आवश्यकता होती है, और इनका उपयोग किसानों के लिए महंगा पड़ता है, क्योंकि इसकी लागत 2,200-2,500 रुपये प्रति एकड़ तक होती है। यह अतिरिक्त लागत किसानों के लिए इन तरीकों को अपनाने में एक बड़ी बाधा है। इसके अलावा, इन मशीनों का जीवनकाल सीमित होता है और अक्सर अत्यधिक उपयोग के कारण वे 3-4 साल से अधिक नहीं चल पातीं।
पराली प्रबंधन के लिए मशीनरी के उपयोग में किसानों की झिझक इस तथ्य से स्पष्ट है कि पंजाब में धान की खेती के तहत कुल जला हुआ क्षेत्र 2019 में 18.54 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2023 में 19 लाख हेक्टेयर हो गया है, बावजूद इसके कि सरकारों ने कई पहल की हैं। पिछले कुछ वर्षों में, केंद्र सरकार ने पंजाब और हरियाणा के लिए 2.5 लाख सीआरएम मशीनों पर सब्सिडी के रूप में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए हैं। सब्सिडी के तहत छोटे किसानों को सुपर सीडर मशीनों की कुल लागत का 50% प्रदान किया जाता है। हालांकि, पंजाब जैसे राज्यों में जहां एक गाँव में 300 किसान रहते हैं वहाँ अक्सर केवल दो या तीन मशीनें उपलब्ध होती हैं। इसके अलावा कई बार किराए पर ली गई मशीनें खराब होती हैं या उपयोग के लिए अनुपयुक्त होती हैं।
फसल अवशेषों के खेत के बाहर (एक्स-सीटू) ले जाकर प्रबंधन, यानी धान की पराली की गांठों को इकट्ठा कर बायोमास उत्पादन के लिए भेजने के लिए, निजी कंपनियां प्रति एकड़ लगभग 1,500 रुपये लेती हैं। लेकिन किसानों के लिए सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में यह विकल्प महंगा पड़ता है। इससे मजबूर होकर किसान पराली जलाने का सस्ता विकल्प चुनते हैं जिसके लिए सिर्फ एक माचिस की जरूरत होती है, जिसकी कीमत महज एक रुपये है। इन सभी परिस्थितियों से यह पता चलता है कि पराली जलाना किसानों के लिये सबसे व्यावहारिक आर्थिक विकल्प है।
बायोमास उत्पादन के लिए पराली का उपयोग:
बायोमास उत्पादन के लिए पराली के उपयोग को बढ़ाने के लिए राज्य और केंद्र स्तर पर सरकारों का समर्थन आवश्यक है। पराली एकत्रीकरण व्यवसाय की स्थापना और संचालन के लिए कई चीजों की आवश्यकता होती है, जैसे सीआरएम मशीनों की खरीद, खेतों पर गांठ बनाने की गतिविधियाँ, फसल अवशेषों का कुशल भंडारण ,परिवहन और इन सबसे सबसे महत्वपूर्ण है उच्च पूंजी निवेश और सुनिश्चित खरीदार। इन कारकों को ध्यान में रखते हुए, 2023 के दिशानिर्देशों ने एग्रीगेटर्स को बायोमास-आधारित उद्योगों के साथ समझौते करने की अनुमति दी है, जो एकत्रित बायोमास के प्राथमिक प्रमोटर और उपभोक्ता होंगे।
इन समझौतों के तहत, उद्योग के हितधारक परियोजना लागत का 25% योगदान देंगे, जबकि सरकार 65% और एग्रीगेटर्स शेष 10% का योगदान करेंगे। यह व्यवस्था किसानों के लिए बेहद फायदेमंद साबित हो सकती है, जिन्हें अपने फसल अवशेषों का सफल एक्स-सीटू प्रबंधन करना आर्थिक रूप से कठिन लगता है। इससे पराली जलाने की घटनाओं में भी कमी आने की उम्मीद है जिससे सर्दियों के महीनों में एनसीआर की हवा अधिक सांस लेने योग्य हो जाएगी—हालांकि, वाहन और निर्माण-आधारित उत्सर्जन अभी भी एक चुनौती बने रहेंगे। फसल अवशेषों के लिए व्यवहारिक बाजार ढूंढना अब भी एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा है।
आगे की राह
फसल विविधीकरण पराली जलाने के संकट का एक प्रभावी समाधान हो सकता है। धान और गेहूं से हटकर अधिक पारंपरिक, कम पानी वाली फसलें जैसे बाजरा, सब्जियाँ, और यहाँ तक कि कम अवधि और कम पानी वाली धान की किस्में, जैसे PUSA-2090 और PR-126, उगाना न केवल धान की समस्याग्रस्त बुवाई-कटाई चक्र को बदलेगा, बल्कि किसानों को अपने खेतों को तैयार करने और पराली जलाने से बचने के लिए अधिक समय और लचीलापन भी प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त, यह भारत के जल स्तर, पोषण सुरक्षा और मृदा स्वास्थ्य को समृद्ध करने में भी मदद करेगा।
दुर्भाग्यवश, किसान मुख्य रूप से चावल और गेहूं की खेती इसलिए चुनते हैं क्योंकि इन पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) सुनिश्चित होता है, जिस पर सरकार इन अनाजों की खरीद करती है। हालांकि केंद्र सरकार बाजरा आदि सहित 20 से अधिक फसलों के लिए MSP प्रदान करती है लेकिन देरी या उत्पादन से कम खरीद जैसे कारक किसानों को इन फसलों को MSP से कम कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर कर देते हैं। स्वाभाविक रूप से, किसान पर्यावरणीय स्थिरता की बजाय वित्तीय स्थिरता को प्राथमिकता देते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो पराली जलाने का मुद्दा एक व्यवस्थागत समस्या है। ऐसा नहीं है कि किसानों को पराली जलाने के दुष्परिणामों की जानकारी नहीं है। किसानों को यह पता है कि खुद उनके स्वास्थ्य पर भी पराली के धुएं का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और इससे मिट्टी से पोषक तत्वों का भी नुकसान होता है। लेकिन यह मुद्दा राजनीति और नीतिगत कुप्रबंधन से जुड़ा हुआ है।
दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण से संबंधित कुप्रबंधन, वोट बैंक की राजनीति के लिए धान और गेहूं के MSP को बढ़ाने के राजनीतिक दलों के लोकलुभावन वादे, और अदूरदर्शी नीतिगत पहलों जैसे पहलुओं पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। केवल संरचनात्मक सुधार ही इस संकट को स्थायी रूप से हल करने में मदद कर सकते हैं।
गायब हो रहे जल निकायों का अजीब मामला
कई अध्ययनों ने स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत किया है कि किसी क्षेत्र में जल सतह कवरेज बढ़ाने से वायु प्रदूषक के प्रभाव को कम किया जा सकता है। शहरी जल निकायों की उपस्थिति स्थानीय सूक्ष्म जलवायु को प्रभावित करती है, वायुजनित प्रदूषकों के फैलाव को बढ़ाती है और आर्द्रता को बढ़ावा देती है, जो कण पदार्थ के जमने और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2) के स्तर को कम करने में योगदान करती है। यह प्रभाव विशेष रूप से दिल्ली जैसे घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है, जहां प्रदूषकों की सांद्रता सामान्यतः अधिक होती है। जल स्त्रोतों के होने से धूल के कण भी कम उड़ते हैं और इससे हवा धूल मुक्त रहती है। एक अन्य अध्ययन से यह भी पता चलता है कि जल निकायों की उपस्थिति वायुमंडलीय नमी को बढ़ाकर और हवा के पैटर्न को बदलकर पीएम 2.5 के स्तर को कम कर सकती है, जिससे प्रदूषकों का फैलाव आसान हो जाता है।
दिल्ली में अंग्रेजों के आने से पहले करीब 350 बड़े तालाब थे। हालांकि, बढ़ते कंक्रीटीकरण और असंवहनीय विकास के कारण दिल्ली (और अन्य समान शहरों) में बारहमासी जल निकाय ‘मानसून’ बनकर रह गए हैं। मानसून की अनुपस्थिति में, सूखी नदी घाटियाँ और बाढ़ के मैदान धूल के अतिरिक्त स्रोत बन जाते हैं, जो अंततः वायु प्रदूषण में योगदान करते हैं।हमारे जल निकायों को बहाल करके, शहरी योजनाकार अधिक टिकाऊ वातावरण बना सकते हैं, जो न केवल वायु गुणवत्ता में सुधार करेगा, बल्कि शहरों की समग्र रहने की गुणवत्ता को भी बढ़ाएगा।