मनुष्यों के लिए जीव जंतुओं को पालतू बनाना कोई नई बात नहीं है। मानव सभ्यता के आरंभ से ही जानवरों को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर हमने उन्हें मित्र, सहयोगी और सहयात्री के रूप में अपनाया है। इतिहास की सभी पुरानी सभ्यताओं जैसे कि सिन्धु, मिस्र, मेसोपोटामिया या माया की खुदाईयों में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य तथा जानवरों के बीच सह-अस्तित्व का रिश्ता अंत्यत पुराना है। हिन्दू मान्यताओं में राजा युधिष्ठिर और उनके कुत्ते की कहानी हम सब जानते हैं। मोहम्मद साहब और ईशा मसीह भी बचपन में भेड़ चराते थे। इसी तरह पुराने यहूदी धर्म में बिल्लियां पाली जाती थीं। यदि हम देखें तो दुनिया के लगभग सभी धर्मों में जानवरों को पालतू बनाए जाने के किस्से मिलते हैं। लेकिन आज का समय, परिप्रेक्ष्य एवं पर्यावरण सब कुछ बदल चुका है। एक समय था जब जानवर जंगलों में खुले विचरण करते थे, जब उन्हें पालतू बनाया गया तब भी मनुष्यों की सभ्यता गाँव केन्द्रित एवं छोटे नगरों वाली थी, परंतु आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आज Domestic Animals शहरों के छोटे-छोटे अपार्टमेंट्स में सीमित हो गए हैं। उनकी स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है, अब वे हमारे सोफे पर सोने वाले, रबर की गेंद से खेलने वाले, गले में पट्टा पहनकर टहलने वाले और हमारे इशारों पर चलने वाले पालतू बन चुके हैं।
पर क्या सिर्फ उन्हें खाना देना, टहला देना तथा मेडिकल केयर दे देना ही उनके साथ न्याय करना है? क्या हम यह सोचते हैं कि इन जीव जंतुओं के भी कुछ यौनिक, मानसिक और सामाजिक अधिकार होते हैं? इस लेख में हम इसी नजरअंदाज कर दिए गए पक्ष, पालतू जानवरों की सेक्सुअल ज़रूरतों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
आधुनिक शहर और Domestic Animals की ज़िंदगी में आया बदलाव
प्रकृति सह- अस्तित्व के सिद्धांत को मानती है, लेकिन हम मनुष्य इस सिद्धांत को भूल गए हैं। आज जहां बड़े बड़े शहर स्थित हैं वहाँ आज के कुछ सदी पहले तक वन्य जीव रहा करते थे। जैसे जैसे नगरीकरण बढ़ा वैसे वैसे शहरों से वन्य जीव तो विलुप्त ही होते गए और शहर के इको सिस्टम में सिर्फ इन्सानों का बोलबाला हो गया।
आज के महानगरों का स्वरूप ऐसा हो गया है कि उसमें सिर्फ इंसानों के लिए जगह है। पेड़, तालाब, नदियाँ, झाड़ियाँ, मिट्टी और जीव-जंतु इन सबका मानो “अधिग्रहण” हो चुका है। ज्यादातर बड़े शहरों में तालाब, बावड़ियाँ सूख गए हैं, नदियाँ सीवर बन चुकी हैं तथा जंगलों को मल्टीस्टोरी इमारतों में बदल दिया गया है। एक आदर्श इको सिस्टम में सभी जीवों की जरूरतें प्रकृति पूरी करती है। जब हम सुनते हैं कि गर्मी में चिड़ियों के लिए पानी रखना चाहिए तो हमें यह याद नहीं आता कि हमारे शहरों के तालाब और सार्वजनिक जल स्त्रोत समाप्त गए हैं जिसके कारण यह स्थिति बनी है। ऐसा कई दूसरे मामले में भी है। शहरों की स्थिति ऐसी हो गयी है की शहरों में रहने वाले लगभग सभी जीव जन्तु मनुष्यों की दया पर आश्रित हैं।
इसके साथ ही एक और संकट भी सामने आया है, हमारी व्यवस्था कुछ ऐसी बन गयी है कि जो सबके लिए उपलब्ध है उसे पहले विलुप्त कर दो और फिर उसे थोड़ा-थोड़ा करके बेचो। साफ पानी, साफ हवा, हरे-भरे जंगल, जीव-जंतु, पक्षी, मछलियां और सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य जैसी चीजें पहले सबके लिए उपलब्ध थी। आज हमें इन चीजों की भारी कीमत देनी पड़ती है।
लेकिन यह सह-अस्तित्व नहीं है, यह प्रकृति पर प्रभुत्व है। हम जीव जंतुओं के आशियानों को उजाड़कर, उन्हें अपनी जीवनशैली में जबरन ढालने की कोशिश करते हैं। इस दौरान हम यह नहीं सोचते है कि उनके पास भी इच्छाएँ, ज़रूरतें और प्राकृतिक अधिकार हैं।
जानवरों की मूलभूत प्राकृतिक जरूरतें
किसी भी जीव को पालतू बनाने के लिए एक निश्चित स्तर तक इंसानीकरण पहले भी होता था, लेकिन अब स्थिति उस सीमा से काफी आगे निकल चुकी है। पालतू जानवरों पर मानव सभ्यता का दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है, निश्चित समय और तरीके से मल-मूत्र विसर्जन, निर्धारित समय पर भोजन करना, तय समय पर सैर करना और यहां तक कि यौन क्रिया भी एक निर्धारित दायरे में सीमित कर दी गई है। इन चीजों ने जीव-जंतुओं के प्राकृतिक व्यवहार को लगभग पूरी तरह बदलकर रख दिया है। इंसान अपने पालतू जीवों को अपने जैसा बनाना चाहते हैं। इसमें समस्या वहाँ आती है जब हम जीवों के मूलभूत प्रकृतिक अधिकारों का भी हनन करते हैं, जैसे सेक्स करने का अधिकार।
जानवरों की ज़रूरतें सिर्फ खाना, पानी, और रहना नहीं होतीं। उनकी शारीरिक, मानसिक और जैविक प्रवृत्तियाँ होती हैं जैसे कि दौड़ना-भागना, साथियों से सामाजिक मेलजोल, शिकार जैसी गतिविधियाँ (खासकर बिल्लियों में), तथा सेक्सुअल संतुष्टि व संतानोत्पत्ति।
इनमें से सबसे ज्यादा नजरअंदाज की जाने वाली ज़रूरत है उनकी सेक्सुअल ज़रूरत। जब कोई जानवर sexually एक्टिव होता है, तो वह अपने व्यवहार से यह संकेत देता है जैसे कुत्तों का बार-बार हंपिंग करना, बिल्लियों का जोर से म्याऊँ करना, चिड़ियों का विशेष ध्वनि में चहकना आदि। पर अक्सर इंसान इन संकेतों को “गंदा व्यवहार”, “बदतमीज़ी” या “डिसिप्लिन की कमी” मानकर उन्हें चुप करा देता है।
केस स्टडी: दिल्ली के कालका जी एवं अमर कालोनी से
दिल्ली के कालिंदी कुंज में रहने वाले एक शख्स ने बताया कि उन्होंने अब तक तीन कुत्ते पाले हैं। शुरुआत में उन्हें कुत्तों की सेक्सुअलिटी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन अनुभव के साथ समझ में आया कि कुत्ते भी यौन इच्छाएँ रखते हैं। उन्होंने बताया, “कुत्ते जब sexual heat में होते हैं तो वो बहुत बेचैन हो जाते हैं। हंप करने लगते हैं, घर से बाहर जाने की कोशिश करते हैं। लेकिन अक्सर लोग इस व्यवहार को खराब मानकर उन्हें डांट देते हैं।”
कई बार ऐसा भी हुआ कि उनका कुत्ता परेशान होकर घर से भाग गया। उन्होंने कहा कि कई लोग इस समस्या से निबटने के लिए neuter भी करवाते हैं, लेकिन इससे बाद में कुत्ते के अंदर सुस्ती, उदासी और मोटापा आ जाता है। उनका मानना है कि यदि जानवरों की सेक्सुअल ज़रूरतों को सम्मानपूर्वक पूरा करने का तरीका हो, तो यह समस्या ही नहीं रहेगी।
इसी तरह दिल्ली के अमर कालोनी में रहने वाले एक शख्स ने बताया कि यहाँ बिल्लियों की संख्या में बहुत तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। इसका कारण ये है कि आम तौर पर बिल्लियाँ जहां रहती हैं वहाँ आस पास के इलाकों में अपने लिए साथी खोज लेती हैं और संतानोत्पत्ति करती हैं।
कुत्तों और बिल्लियों की अलग कहानी
बिल्लियों और कुत्तों के यौन व्यवहार में एक बड़ा अंतर होता है। पालतू कुत्ते आमतौर पर बांधकर रखे जाते हैं, उनका बाहर जाना नियंत्रित होता है, जिससे उनकी यौन इच्छाएँ दबी रह जाती हैं। इसके अलावा पालतू कुत्ते अधिकतर बाजार से खरीदे जाते हैं, इसलिए वो आम तौर पर सिंगल रह जाते हैं।
बिल्लियाँ अपेक्षाकृत स्वतंत्र होती हैं। अधिकतर लोग उन्हें खरीदते नहीं है बल्कि बाहर से पालते हैं। इसके अलावा लोग बिल्लियों को बांध कर नहीं रखते। इसलिए वे बाहर जाकर अपने लिए साथी खोज सकती हैं। इसलिए बिल्लियों की सेक्सुअल संतुष्टि प्राकृतिक ढंग से हो जाती है, जबकि कुत्ते इस मामले में ज़्यादा पीड़ित होते हैं।
Neutering एवं Spaying
पालतू जानवरों की जनसंख्या नियंत्रित करने और “व्यवहारिक” बनाने के लिए उन्हें neuter (नसबंदी) किया जाता है। हालांकि इसका एक व्यवहारिक पक्ष है जैसे कि अवांछित संतान की रोकथाम, आक्रामकता में कमी आदि लेकिन इसका दूसरा पक्ष उतना ही भयावह है। इससे पालतू पशुओं में हार्मोनल असंतुलन, सुस्ती, डिप्रेशन, मोटापा और अन्य बीमारियाँ तथा जीवन में उत्साह की कमी आती है।
क्या सिर्फ इसलिए कि हमें जानवरों का यौन व्यवहार असहज करता है, हम उनके अंगों को काट दें? क्या यह नैतिक रूप से सही है या फिर यह इंसान की सहूलियत के लिए जानवरों के शरीर पर जबरन थोपे गए बदलाव हैं?
क्या कोई और रास्ता है?
बिलकुल, आज जब हम पालतू जानवरों की सेक्सुअल ज़रूरतों की बात करते हैं तो यह विषय अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है, जबकि कई विकसित देशों में इसके लिए ज़िम्मेदार और मानवीय समाधान खोजे जा चुके हैं। सबसे पहला कदम है ज़िम्मेदार प्रजनन (Responsible Breeding), जिसमें पालतू जानवरों के लिए उपयुक्त समय पर सही साथी की व्यवस्था की जाती है। इसमें न सिर्फ मालिक की, बल्कि पशु-चिकित्सक की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह प्रक्रिया बिना ज़बरदस्ती के, जानवर की सहमति और सहजता को ध्यान में रखकर की जाती है।
दूसरा महत्वपूर्ण उपाय है सेक्सुअल फ्रस्ट्रेशन को कम करने के लिए उपयुक्त व्यायाम, सेक्सुअल प्ले ऑब्जेक्ट्स और सामाजिक वातावरण यानि Sexual Play Objects and Exercise का सहारा लेना। इसके तहत जानवरों को खेलने, दौड़ने, कूदने और ऊर्जा खपत करने के पर्याप्त अवसर दिया जाता है। यह उनकी सेक्सुअल कुंठा को भी कम करता है।
तीसरा, विकसित देशों में ओपन इंटरैक्शन स्पेस यानि Open Interaction Spaces जैसे उपायों को अपनाया गया है, जहां जानवरों को अन्य जानवरों से मिलने-जुलने और सामाजिक व्यवहार सीखने का मौका दिया जाता है। इससे वे केवल बेहतर व्यवहार ही नहीं सीखते, बल्कि अपनी यौन प्रवृत्तियों को भी प्राकृतिक रूप से व्यक्त कर पाते हैं।
एक और अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण बिंदु है सेक्सुअल कंसेंट और रिस्पेक्ट। इसका मतलब है कि पालतू जानवरों के शरीर की भाषा को समझना, जबरदस्ती उन्हें किसी यौन क्रिया से रोकना या उन्हें नेचुरल फीलिंग्स के लिए शर्मिंदा करना, मानसिक यातना के बराबर होता है। इंसान जैसे अपनी यौन इच्छाओं को ‘स्वाभाविक’ मानता है, वैसे ही जानवरों की यौन ज़रूरतों को भी ‘सामान्य’ समझने की ज़रूरत है।
आखिर में, यह विषय केवल घर या चिकित्सक तक सीमित नहीं रहना चाहिए। समाज और कानून दोनों में बदलाव की ज़रूरत है। हमारे देश में पशु कल्याण के लिए कई संस्थाएँ हैं, लेकिन दुर्भाग्य से शायद ही कोई संस्था जानवरों की सेक्सुअल ज़रूरतों पर खुलकर बात करती है। न ही किसी पशु चिकित्सालय में इस विषय पर कोई काउंसलिंग या मार्गदर्शन की व्यवस्था होती है।
इसलिए हमें नीति, कानून तथा सामाजिक सोच तीनों स्तरों पर यह समझने की आवश्यकता है कि जानवरों की यौन इच्छाएँ कोई अपराध नहीं, बल्कि एक स्वाभाविक जैविक प्रक्रिया हैं। जब तक हम इस दिशा में संवेदनशीलता नहीं अपनाते, तब तक पालतू जानवरों के साथ हमारा संबंध अधूरा और एकतरफा ही रहेगा।
एक नई सोच की दरकार
पालतू जानवर हमारे जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन वे खिलौने नहीं हैं। उनका शरीर, मन और आत्मा है। अगर हम सच में उन्हें प्रेम करते हैं, तो हमें सिर्फ उनका पालन-पोषण नहीं, बल्कि उनकी स्वतंत्रता और अधिकारों का सम्मान भी करना होगा।
सेक्सुअलिटी कोई शर्म की चीज नहीं है, न इंसानों के लिए और न ही जानवरों के लिए। जानवरों की सेक्सुअल ज़रूरतों को दबाने की बजाय अगर हम उन्हें सम्मानपूर्वक समझें और पूरा करने का उपाय खोजें, तो शायद यह धरती इंसानों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी जीवों के लिए एक बेहतर जगह बन सकेगी।
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