रामचंद्र गुहा की पुस्तक स्पीकिंग विद नेचर भारतीय पर्यावरणवाद के इतिहास और इसकी अनोखी विशेषताओं का गहन अध्ययन प्रस्तुत करती है। यह न केवल पर्यावरणीय समस्याओं को समझने का प्रयास करती है, बल्कि उन विचारकों और आंदोलनों पर भी प्रकाश डालती है जिन्होंने भारत में पर्यावरणीय चेतना को आकार दिया। यह पुस्तक भारतीय पर्यावरणवाद की गहराई और उसकी ऐतिहासिक जड़ों की पड़ताल करती है, जो पश्चिमी पर्यावरणवाद से बिल्कुल भिन्न हैं।
प्रमुख विषय और संरचना:
- इतिहास और संदर्भ:
लख्क का मुख्य तर्क यह है कि भारत में पर्यावरणीय समस्याएं केवल आधुनिक विकास के मॉडल का परिणाम नहीं हैं, बल्कि यह औपनिवेशिक युग में ही आरंभ हो गई थीं। ब्रिटिश शासन के दौरान औद्योगिकरण और संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने पर्यावरणीय संकट को जन्म दिया। उन्होंने यह भी बताया कि स्वतंत्रता के बाद भारत ने जो औद्योगिक मॉडल अपनाया, वह भी इन्हीं समस्याओं को बढ़ावा देता है। उदाहरणस्वरूप, भारतीय जंगलों की कटाई और नदियों का प्रदूषण आज भी जारी है, जो औपनिवेशिक नीतियों की विरासत मानी जा सकती है। गुहा तर्क देते हैं कि भले ही जलवायु परिवर्तन न होता, भारत फिर भी पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा होता। - भारतीय पर्यावरणीय विचारधारा के स्रोत:
पुस्तक में उन भारतीय विचारकों की चर्चा है जिन्होंने औपनिवेशिक काल और उसके बाद के समय में पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित किया। उदाहरण के लिए:- जे.सी. कुमारप्पा: गांधीवादी अर्थशास्त्री, जिन्होंने सतत विकास और ग्राम आधारित आर्थिक मॉडल को बढ़ावा दिया।
- मीराबेन (मैडलिन स्लेड): गांधी की अनुयायी, जिन्होंने हिमालय में जलवायु संतुलन और स्थायी कृषि के लिए काम किया।
- राधाकमल मुखर्जी: सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञानों के बीच संबंध स्थापित करने वाले अग्रणी। उनके “कॉमन प्रॉपर्टी रिसोर्सेज” के विचार ने दशकों बाद नोबेल पुरस्कार जीतने वाले विचारों को प्रेरित किया।
- पर्यावरणवाद का भारतीय दृष्टिकोण:
गुहा इस पुस्तक में “नीचे से शुरू होने वाले पर्यावरणवाद” (Grassroots Environmentalism) पर जोर देते हैं। भारत में पर्यावरणीय आंदोलन अक्सर गरीबों द्वारा शुरू किए गए, क्योंकि पर्यावरणीय नुकसान का प्रभाव सबसे अधिक उन पर पड़ता है। इसके विपरीत, पश्चिम में पर्यावरण संरक्षण अक्सर अभिजात वर्ग द्वारा संचालित रहा है।
आधुनिक समय में पर्यावरणीय चेतना:
गुहा का यह भी कहना है कि 1980 के दशक की तुलना में आज पर्यावरणीय मुद्दों को न तो सरकार से पर्याप्त प्रतिक्रिया मिलती है और न ही मीडिया से ध्यान। हालांकि, वह युवाओं की बढ़ती जागरूकता और वैज्ञानिक विशेषज्ञता के विकास को भविष्य के लिए सकारात्मक संकेत मानते हैं।
पुस्तक का प्रभाव और महत्त्व:
- भारत के लिए अद्वितीय दृष्टिकोण:
पुस्तक यह तर्क करती है कि भारतीय पर्यावरणवाद सामाजिक न्याय और पारिस्थितिकीय स्थिरता को साथ लेकर चलता है। यह दृष्टिकोण पश्चिमी पर्यावरणवाद की तुलना में अधिक व्यावहारिक और संवेदनशील है, क्योंकि यह पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ गरीबों और समाज के हाशिये पर मौजूद लोगों के अधिकारों को भी संबोधित करता है।
विचारशील गद्य:
रामचन्द्र गुहा की लेखन शैली गहन है। वह ऐतिहासिक घटनाओं, आंदोलनकारियों के जीवन, और उनके विचारों को जोड़कर एक व्यापक और रोचक कहानी पेश करते हैं।
महात्मा गांधी का प्रभाव:
हालांकि गांधी पर केंद्रित कोई अध्याय नहीं है, लेकिन पुस्तक में उनके विचारों की छाया हर जगह महसूस होती है। उनके सिद्धांत, जैसे सादगी, आत्मनिर्भरता, और अहिंसा, भारतीय पर्यावरणवाद के मूल सिद्धांतों में रचे-बसे हैं। गांधी के अनुयायियों ने पर्यावरणीय दृष्टिकोण को और भी प्रासंगिक बनाया।
पुस्तक की सीमाएं:
- विश्लेषणात्मक गहराई:
कुछ समीक्षकों का मानना है कि पुस्तक में समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों, जैसे कि नर्मदा बचाओ आंदोलन या वर्तमान के जलवायु परिवर्तन पर चर्चा अधिक गहराई से हो सकती थी।
विस्तार का अभाव:
पुस्तक में कई छोटे विचारकों और स्थानीय आंदोलनों पर चर्चा की गई है, लेकिन कुछ पाठकों को यह महसूस हो सकता है कि इन पर और अधिक विवरण दिया जा सकता था।
कुल मिलकर स्पीकिंग विद नेचर एक असाधारण पुस्तक है, जो भारतीय पर्यावरणीय सोच को ऐतिहासिक और सामाजिक संदर्भ में प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक न केवल पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे सामाजिक न्याय और पारिस्थितिकी एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं। रामचंद्र गुहा ने अपने विद्वतापूर्ण और विचारशील लेखन से यह साबित कर दिया है कि भारत का पर्यावरणवाद न केवल प्राचीन जड़ों से जुड़ा है, बल्कि वह आज भी वैश्विक पर्यावरणीय चिंताओं के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल पेश कर सकता है।
यह पुस्तक उन सभी के लिए अनिवार्य है जो भारत के पर्यावरणीय इतिहास, समकालीन मुद्दों और संभावित समाधानों को समझना चाहते हैं। यह न केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, बल्कि एक प्रेरक आह्वान भी है कि हम अपने पर्यावरण और सामाजिक संरचना को संतुलित करने की कोशिश करें।