COP29: विकसित देशों ने जिम्मेदारी उठाने से किया इंकार 

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के पार्टियों के 29वें सम्मेलन (कॉप-29) का समापन बड़े विवादों और गंभीर असंतोष के साथ हुआ। सम्मेलन में विकासशील और विकसित देशों के बीच जलवायु वित्तपोषण और जिम्मेदारी को लेकर मतभेद स्पष्ट रूप से उभरे।

मुख्य उपलब्धि: नया जलवायु वित्त लक्ष्य

कॉप-29 में एक बड़ी उपलब्धि के रूप में नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) को अपनाया गया। इस लक्ष्य के तहत 2035 तक विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त को सालाना $300 बिलियन तक बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया। हालांकि, यह लक्ष्य विकासशील देशों की मांग $1.3 ट्रिलियन से काफी कम है।
भारत सहित अन्य विकासशील देशों ने इसे अस्वीकार करते हुए अपर्याप्त और अनावश्यक देरी वाला कदम बताया।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, विकासशील देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए 2030 तक $5-7 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी। लेकिन NCQG के तहत यह सहायता धीमी गति से मिलेगी, जिससे उनकी आवश्यकताओं पर गहरा असर पड़ सकता है।

विकसित देशों पर उठे सवाल

सम्मेलन के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि विकसित देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश कर रहे हैं। जलवायु वित्तपोषण का वादा करना एक बात है, लेकिन उस वादे को पूरा करना अलग। यह नया लक्ष्य विकसित देशों की मौजूदा सहायता से अलग नहीं है और इसमें स्पष्ट रूप से यह भी तय नहीं किया गया कि यह धन अनुदान होगा या कर्ज।

भारत के नेतृत्व में जी-77 और चीन ने स्पष्ट किया कि यह लक्ष्य वैश्विक दक्षिण की जरूरतों के अनुरूप नहीं है। भारत ने $1.3 ट्रिलियन के वित्तीय लक्ष्य और उसमें $600 बिलियन अनुदान की मांग की थी। हालांकि, अंतिम पाठ ने विकसित देशों की जिम्मेदारी कम कर दी और निजी क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ा दी।

जलवायु समानता और न्याय पर ध्यान

भारत ने पेरिस समझौते के अनुच्छेद 9 का हवाला देते हुए कहा कि विकसित देशों को जलवायु वित्तपोषण में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। लेकिन पाठ में विकसित देशों के ऐतिहासिक जिम्मेदारियों को कम करते हुए सभी देशों पर समान वित्तीय दायित्व डालने का प्रस्ताव दिया गया। इससे भारत और अन्य विकासशील देशों में असंतोष बढ़ा।

मीथेन और कार्बन बाजारों पर चर्चा

सम्मेलन में मीथेन उत्सर्जन को कम करने पर भी चर्चा हुई, लेकिन भारत ने इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। भारत का तर्क है कि मीथेन उत्सर्जन कम करने का दायित्व विकसित देशों का है, जिनका ऐतिहासिक योगदान अधिक है।

इसके अलावा, कार्बन बाजार समझौतों के तहत पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 को अंतिम रूप दिया गया। इसमें द्विपक्षीय और केंद्रीकृत कार्बन बाजार तंत्र को मजबूत किया गया। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि यह तंत्र भी विकसित देशों को लाभान्वित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

स्वदेशी समुदाय और लिंग समानता पर फोकस

कॉप-29 ने स्वदेशी समुदायों और लैंगिक समानता को जलवायु नीतियों का हिस्सा बनाने पर जोर दिया। बाकू कार्ययोजना के तहत स्वदेशी ज्ञान को जलवायु समाधानों में शामिल करने की पहल की गई। साथ ही, लैंगिक दृष्टिकोण पर लीमा वर्क प्रोग्राम (LWPG) को अगले 10 वर्षों तक बढ़ा दिया गया।

“उत्तर ने झटका दक्षिण का हाथ”: असंतोष के स्वर

कॉप-29 के दौरान हुए मतभेदों ने विकासशील देशों की कठिनाइयों को उजागर किया। छोटे द्वीपीय देश और अल्पविकसित देश (LDCs और SIDS) जलवायु वित्त पर स्पष्ट और पर्याप्त सहायता न मिलने से निराश होकर वार्ता से बाहर चले गए।

भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने समापन सत्र में स्पष्ट किया कि यह पाठ “विश्वास की कमी” को दर्शाता है। विकसित देशों ने केवल $300 बिलियन का वादा किया है, जोकि ग्लोबल साउथ की वास्तविक जरूरतों के मुकाबले बेहद कम है।

भारत की जलवायु नीति और वैश्विक नेतृत्व

भारत ने अपने बढ़ते ऊर्जा लक्ष्यों और जलवायु नीतियों का हवाला देते हुए विकसित देशों पर अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए दबाव डाला।

  • भारत ने पर्यावरण अनुकूल जीवनशैली (LiFE) और जलवायु हेतु मैंग्रोव गठबंधन जैसी वैश्विक पहल का नेतृत्व किया है। इसके अलावा भारत अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) जैसी पहलों की शुरुआत भी कर चुका है। 
  • भारत ने यह भी स्पष्ट किया कि NCQG जैसे कमजोर समझौते ग्लोबल साउथ के लिए टिकाऊ विकास और जलवायु न्याय सुनिश्चित करने में विफल रहेंगे।

विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु वित्तपोषण की यह धीमी गति विकासशील देशों की जलवायु रणनीतियों और परियोजनाओं को बाधित कर सकती है। साथ ही, यह अमीर और गरीब देशों के बीच जलवायु समानता की खाई को और बढ़ा सकती है।

कॉप-29 ने वैश्विक जलवायु शासन में एक बार फिर अमीर और गरीब देशों के बीच गहरी खाई को उजागर किया है। जहां विकासशील देश जलवायु वित्त और न्याय की मांग कर रहे हैं, वहीं विकसित देश इन मांगों को कमजोर करने में लगे हुए हैं। यह सम्मेलन विकसित देशों के लिए एक बड़ा अवसर था जिससे वे अपने हिस्से का योगदान कर सकते थे। लेकिन उनके कमजोर प्रस्तावों ने विश्वास की कमी को और गहरा कर दिया। अब सभी की निगाहें कॉप-30 (बेलेम, ब्राजील) पर हैं, जहां जलवायु न्याय और वित्त के लिए नए सिरे से प्रयास करने की उम्मीद की जा रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *