Extinct Animal को फिर से जिंदा करना – Ethical या Sin

Extinct Animals

हमारी धरती पर जीवन की शुरुआत तकरीबन 3.7 अरब वर्ष पहले हुई थी। इस दौरान इस धरती पर लाखों-करोड़ों प्रजातियाँ अस्तित्व में आईं और फिर Extinct हो गईं। वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी पर अब तक जितनी भी प्रजातियाँ जन्मी हैं, उनमें से 99% से भी अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। इस धरती पर पाँच महाविलुप्तियाँ हो चुकी हैं और वैज्ञानिकों के अनुसार अभी छठी विलुप्ति का दौर चल रहा हैं। हाल ही में हुए एक दिलचस्प प्रयोग ने इस बहस को नए सिरे से परिभाषित किया है। आज के आधुनिक विज्ञान और तकनीक ने एक ऐसा मोड़ ले लिया है जहाँ यह सवाल उठता है, क्या इन विलुप्त हो चुकी प्रजातियों को फिर से जीवित किया जा सकता है?

अप्रैल 2025 में अमेरिका की एक बायोटेक कंपनी कोलोसल बायोसाइंसेज ने एक बड़ा दावा किया। उन्होंने दो भेड़िए के पिल्लों रोमियोलस और रीमस के जन्म की घोषणा की। उनका दावा यह था कि ये पिल्ले हज़ारों साल पहले विलुप्त हो चुकी डायर वुल्फ़ प्रजाति की जेनेटिक पुनर्रचना से उत्पन्न किए गए हैं। डायर वुल्फ़ (Dire Wolf) एक विशाल भेड़िया था, जो 12,000 साल पहले अंतिम हिम युग के समाप्त होने के साथ विलुप्त हो गया था। तेज़ दाँत, शक्तिशाली जबड़े और भारी शरीर इसकी विशेषता थी। डायर वुल्फ़ की डीएनए जानकारी 72,000 साल पुरानी एक खोपड़ी और 13,000 साल पुराने दांत से प्राप्त की गई थी। इन प्राचीन डीएनए अणुओं को आधुनिक ग्रे वुल्फ़ के डीएनए से जोड़कर एक नए जीनोम की रचना की गई।

जीन एडिटिंग और क्लोनिंग: विज्ञान का चमत्कार या खतरा?

इस प्रयोग में ‘क्रिस्पर-कैस 9’ नामक तकनीक का उपयोग हुआ। यह एक एक ऐसी जेनेटिक सर्जरी तकनीक है जो डीएनए में सटीक बदलाव कर सकती है। यह तकनीक न केवल विलुप्त प्रजातियों को पुनर्जीवित करने में मदद कर रही है, बल्कि कृषि, चिकित्सा और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी क्रांति ला रही है। इन पिल्लों को एक पालतू कुत्ते के गर्भाशय में विकसित किया गया जिसे सरोगेट के रूप में इस्तेमाल किया गया। इन पिल्लों का डीएनए 100% डायर वुल्फ़ का नहीं है, लेकिन वैज्ञानिकों का दावा है कि वे “प्रॉक्सी डायर वुल्फ़” हैं। यानी वे उस प्रजाति के करीब हैं जितना आज की तकनीक उन्हें बना सकती है।

यहाँ पर नैतिकता का भी एक बड़ा सवाल पैदा होता है। कई लोग यह सवाल कर रहे हैं कि क्या इंसानों को यह अधिकार है कि वे प्राचीन जीवन को दोबारा बनाने की कोशिश करें? इस विषय पर नैतिकता के विशेषज्ञों की राय बँटी हुई है। कुछ का मानना है कि यह विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि है, जिससे जैवविविधता को बचाने में मदद मिल सकती है। वहीं कुछ अन्य कहते हैं कि यह ‘ईश्वर बनने की कोशिश’ है।

इसमें एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी उठता है कि किस प्रजाति को वापस लाया जाए? क्या प्राथमिकता प्रसिद्ध प्रजातियों को दी जाए जैसे मैमथ, डोडो, या डायर वुल्फ़? या उन प्रजातियों को जो पारिस्थितिक रूप से अधिक महत्वपूर्ण थीं? वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर किसी प्रजाति की वापसी से पारिस्थितिक तंत्र को लाभ हो सकता है तो उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

क्या भारत को इसकी ज़रूरत है?

भारत जैवविविधता के मामले में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है, लेकिन यहाँ भी कई महत्वपूर्ण प्रजातियाँ extinct हो चुकी हैं जैसे कि एशियाई चीता (हालांकि अफ्रीकी चीते को लाकर बसाने की कोशिश की गई है), गुलदार की कुछ उप-प्रजातियाँ, पिंक हेडेड डक, हिमालयी क्वागा, सुमात्रण गैंडा और हंगुल (कश्मीरी मृग) जो अब extinctि के कगार पर हैं। ऐसे में भारत को डीएक्सटिंक्शन यानी extinct प्रजातियों को दोबारा ज़िंदा करने की तकनीक से ज़्यादा प्रिवेंशन यानी रोकथाम पर ध्यान देना चाहिए, जिसमें जंगलों का संरक्षण, अवैध शिकार पर सख़्त नियंत्रण और स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी जैसे उपाय शामिल हैं।

संरक्षण बनाम पुनर्जन्म

Extinct प्रजातियों को दोबारा ज़िंदा करने की कोशिश में यह चिंता उठाई जा रही है कि इससे वर्तमान संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण प्रयासों को नुकसान पहुँच सकता है। अगर लोगों को यह विश्वास हो जाए कि किसी प्रजाति को भविष्य में फिर से ज़िंदा किया जा सकता है, तो वे उसके संरक्षण को प्राथमिकता नहीं देंगे। वहीं कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक वर्तमान संकटग्रस्त प्रजातियों के जीन पूल को समृद्ध बनाने में मददगार हो सकती है जैसे उत्तरी सफ़ेद गेंडा, पैसेंजर पिजन आदि। इन प्रजातियों के केवल कुछ सदस्य ही बचे हैं और प्राकृतिक प्रजनन असंभव होता जा रहा है।

महाविलुप्ति की ओर बढ़ती दुनिया

विलुप्ति इस धरती के लिए कोई नई घटना नहीं है। मनुष्यों के आने से पहले और आने के बाद भी दुनियाँ के न जाने कितने जीव जन्तु विलुप्त हो चुके हैं। अलग अलग कारणों से अब तक धरती पर पाँच बड़ी महाविलुप्ति की घटनाएँ हो चुकी हैं। आज छठी महाविलुप्ति का खतरा आज हमारे सामने है और इसका सबसे प्रमुख कारण मानव गतिविधियाँ है। प्रोफेसर डैनियल पिंचेरा डोनोसो के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, शिकार, प्रदूषण और प्राकृतिक आवास का विनाश, सभी मिलकर जैवविविधता के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। विशेष रूप से उभयचर प्राणी जैसे मेंढक तेज़ी से विलुप्त हो रहे हैं, और इनकी कमी से एक पारिस्थितिक श्रृंखला में असंतुलन पैदा हो रहा है।

क्या भविष्य में Extinct मैमथ भी लौटेगा?

मैमथ को फिर से ज़िंदा करने का विचार विज्ञान और पॉप-कल्चर दोनों में प्रसिद्ध है। साइबेरिया में जमी बर्फ़ में मिले कुछ मैमथ के अवशेषों से वैज्ञानिक उनके डीएनए को पुनर्निर्मित करने की कोशिश कर रहे हैं। पर समस्या यह है अधिकतर बार पुराना डीएनए खंडित और नष्ट हो चुका होता है। यह काम किसी नष्ट हो चुकी किताब के जले हुए टुकड़ों को जोड़ कर अर्थ निकालने जैसा है। फिर भी आज कई प्रोजेक्ट इस दिशा में कार्यरत हैं। एक विचार यह भी है कि मैमथ जैसे प्राणी को फिर से जीवित कर आर्कटिक के पेड़-पौधों को नियंत्रित किया जा सकता है जिससे बर्फ पिघलने की दर कम हो और जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगे।

Extinct Animal: विज्ञान और दर्शन की टकराहट

Extinct प्रजातियों की पुनर्रचना पर चर्चा करते समय एक दार्शनिक प्रश्न भी उठता है कि क्या हमें यह करना चाहिए सिर्फ इसलिए कि हम कर सकते हैं? यह प्रश्न केवल विज्ञान की शक्ति का नहीं, बल्कि जिम्मेदारी का भी है। कोई भी प्रजाति दुनिया से तभी विलुप्त होती है जब दुनिया उसके अनुकूल नहीं रहती है। क्या हम उन प्राणियों को ऐसी दुनिया में लाएँगे जो अब उनके अनुकूल नहीं रही? क्या हम उन्हें उसी अकेलेपन और विलुप्ति के खतरे में नहीं डालेंगे?

संभावनाएँ और सावधानियाँ

यह तकनीक यदि सही दिशा में प्रयोग की जाए तो यह संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण का एक कारगर माध्यम बन सकती है। परंतु यदि इस पर नियंत्रण न रहा, तो यह पारिस्थितिक असंतुलन का कारण भी बन सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी पुराने शिकारी प्रजाति को फिर से जीवित कर जंगल में छोड़ा जाए, तो वहाँ की वर्तमान जैविक व्यवस्था बिगड़ सकती है, इससे फूड चेन बिगड़ने का भी खतरा हो सकता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि विलुप्त प्रजातियों को दोबारा ज़िंदा करना विज्ञान का एक चमत्कारिक पहलू है, लेकिन यह केवल तकनीकी चुनौती नहीं है बल्कि यह एक नैतिक, पारिस्थितिक और सामाजिक चुनौती भी है। इस दिशा में काम कर रहे वैज्ञानिकों को केवल प्रयोग की सफलता ही नहीं, बल्कि इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। भविष्य हम मनुष्यों के हाथ में है। क्या हम इस तकनीक को एक ज़िम्मेदार औज़ार की तरह उपयोग करेंगे या फिर एक और महाविलुप्ति की नींव रखेंगे यह हम पर निर्भर करता है।

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