भारत के चुनावी विमर्श से पर्यावरणीय मुद्दे क्यों गायब हो जाते हैं?

भारत में चुनावी राजनीति में पर्यावरणीय मुद्दों की अनदेखी कोई नई बात नहीं है। हरियाणा में हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान पराली जलाने, भूजल के खारेपन, बजरी खनन, अरावली की दुर्दशा और शहरी जलभराव जैसी गंभीर समस्याएँ बिल्कुल भी चर्चा का केंद्र नहीं बनीं। अब महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव होने जा रहे हैं, जहाँ पानी, जंगल, जमीन और सूखे से जुड़े अनगिनत मुद्दे हैं, लेकिन राजनीतिक दल शायद ही इन्हें प्रमुखता से उठाएँ। दिल्ली में होने वाले चुनावों में अक्सर वायु प्रदूषण और यमुना नदी की स्थिति की बातें होती हैं, लेकिन पिछले कुछ चुनावों के परिणामों से ऐसा प्रतीत होता है कि ये मुद्दे मतदाताओं को किसी अलग विकल्प के लिए बाध्य नहीं करते। सवाल यह है कि क्या जनता को इन समस्याओं से वास्तव में फर्क नहीं पड़ता, या फिर जनता के पास चुनने के लिए ठोस विकल्प नहीं हैं?

वोट बैंक की राजनीति और पर्यावरणीय मुद्दों की उपेक्षा

भारत की राजनीति का सबसे बड़ा सच यह है कि वोट बैंक पर आधारित राजनीति में पर्यावरणीय मुद्दों का स्थान काफी कम होता है। मतदाताओं की प्राथमिकताएँ रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढाँचे पर केंद्रित होती हैं, जो तत्काल राहत प्रदान करते हैं। इसके विपरीत पर्यावरणीय समस्याएँ जटिल, दीर्घकालिक और दूरदर्शिता की मांग करती हैं। 

पर्यावरणीय समस्याएँ जैसे प्रदूषण, जल संकट, सूखा और वनों की कटाई से निपटने के लिए संरचनात्मक नीति की आवश्यकता होती है, जो कि किसी एक कार्यकाल में परिणाम नहीं दे सकती। जबकि चुनावी राजनीति में तत्काल परिणाम और लोकप्रिय कदम ही मतदाताओं को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, हरियाणा में पराली जलाने के संकट का समाधान आवश्यक है, लेकिन इसपर कोई भी पार्टी खुलकर गंभीर रुख अपनाने से बचती है। इसके बजाय, पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेती हैं।

पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान और राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी

राजनीतिक पार्टियों के पास पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए ठोस नीति का अभाव है। मान लीजिए कि जलभराव या वायु प्रदूषण आम जनता के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, तो जनता की समस्या यह है कि चुनाव लड़ने वाली किसी भी पार्टी के पास इसका कोई ठोस समाधान नहीं है। ऐसे में, मतदाता किसी भी पार्टी को चुन लें, समस्या जस की तस बनी रहती है। राजनीतिक दलों के बीच इस मुद्दे पर कोई ठोस नीति प्रस्ताव नहीं होने से मतदाता एक असहाय स्थिति में रह जाते हैं।

इसके अलावा, अक्सर राजनीतिक दल अपने शासित राज्यों में समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते, जबकि विपक्ष में रहते हुए यह वादा करते हैं कि सत्ता में आते ही वे इन्हें हल कर देंगे। यह राजनीति का एक हास्यास्पद खेल बन चुका है। पिछले 30-40 वर्षों में ऐसा कोई उदाहरण खोजना मुश्किल है जहाँ किसी राज्य की सरकार ने अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त कर दिया हो।

लोकलुभावनवाद और सतही राजनीति का चलन

हमारी सरकारें अक्सर ऐसी नीतियाँ अपनाती हैं, जो जनता को दिखाने के लिए होती हैं, जैसे कि पानी की ट्रेनें चलाना, तटबंध बनाना, या वायु प्रदूषण से निपटने के लिए स्मोग टॉवर लगाना। ऐसे कदम सिर्फ सतही समाधान होते हैं और दीर्घकालिक नीति निर्माण से कोसों दूर होते हैं। जबकि जलवायु संकट और पर्यावरणीय समस्याएँ एक स्थायी और दीर्घकालिक नीति की मांग करती हैं। सतही उपायों के बजाए जरूरत इस बात की है कि सरकारें दीर्घकालिक और टिकाऊ नीतियाँ बनाएं, जैसे कि जल संरक्षण, भूमि पुनःस्थापन, वन संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल कृषि नीतियाँ। इसके विपरीत, पार्टियां और सरकारें केवल तात्कालिक लाभ वाली नीतियों पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जिससे पर्यावरणीय मुद्दों का वास्तविक समाधान नहीं हो पाता।

जनता की उदासीनता और विकल्पों की कमी

एक अन्य महत्वपूर्ण कारण जनता की उदासीनता है। पर्यावरणीय मुद्दों पर जब जनता को किसी ठोस विकल्प का अभाव दिखाई देता है, तो वह इन मुद्दों से जुड़ाव महसूस नहीं करती। यह स्थिति तब और गंभीर हो जाती है, जब जनता को लगने लगता है कि चाहे वे किसी भी पार्टी को वोट दें, इन गहरे मुद्दों का समाधान नहीं होगा। 

इसके साथ ही, पर्यावरणीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने वाली पार्टियों की कमी भी बड़ी समस्या है। कई पश्चिमी देशों में पर्यावरण से जुड़ी पार्टियाँ अब बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। वे न सिर्फ जनता के सामने ठोस पर्यावरणीय एजेंडा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि उनके एजेंडे का असर भी जनता को दिखता है। भारत में ऐसी पार्टियों का अभाव है, जो पर्यावरणीय समस्याओं को अपना प्रमुख मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ें और इसका दीर्घकालिक समाधान प्रदान करें। 

मूल्य आधारित राजनीति का अभाव

भारतीय राजनीति में मूल्यों का ह्रास भी पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति उदासीनता का कारण है। किसी भी सभ्यता के विकास में धर्म, संस्कृति, अर्थनीति और राजनीति का मूल्य महत्वपूर्ण होता है। जब राजनीति में ये मूल्य पीछे रह जाते हैं और सत्ता की दौड़ प्रमुख हो जाती है, तब चुनावी विमर्श से ऐसे मुद्दे गायब हो जाते हैं, जो एक समाज के लिए दीर्घकालिक रूप से महत्वपूर्ण होते हैं। 

ऐसे में राजनीति में व्यवहारिकता का पलड़ा अक्सर इतना भारी हो जाता है कि मूल्यों से समझौता न करने वाले नेताओं को जनता भी अव्यावहारिक मानकर खारिज कर देती है। फिर जो भी पार्टी चुनावों में व्यवहारिक और लोकप्रिय मुद्दों को उठाती है, वही विजयी होती है। पर्यावरणीय समस्याएँ इस व्यवहारिकता से मेल नहीं खातीं, क्योंकि उनके समाधान में दीर्घकालिक नीति और राजनीतिक दृढ़ता की आवश्यकता होती है।

लंदन-पेरिस बनाने के खोखले वादे

भारतीय राजनीति में लंदन और पेरिस जैसे शहर बनाने के वादे करना एक नया ट्रेंड बन गया है। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि ऐसे शहरों का विकास उपनिवेशवाद और औद्योगिक क्रांति के समय हुआ था, जब इनके पास व्यापक संसाधन और शोषण के माध्यम थे। भारत का भूगोल, जनसांख्यिकी, आर्थिक स्थिति और सामाजिक संरचना इन देशों से बिल्कुल भिन्न हैं। 

पर्यावरणीय दृष्टिकोण से लंदन या पेरिस जैसे शहरों को बनाने के प्रयास तब तक सफल नहीं होंगे, जब तक कि उनके जैसी संरचनात्मक नीतियाँ, जल और प्रदूषण प्रबंधन, और आधुनिक शहरी योजनाएँ नहीं अपनाई जातीं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे यहाँ में इस तरह की बातों का कोई ठोस आधार नहीं होता और ये केवल जनता को दिखाने के लिए किए गए वादे बनकर रह जाते हैं।

पर्यावरणीय समस्याओं पर जनता की जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता

समस्या का समाधान केवल राजनीतिक दलों की ही नहीं, बल्कि जनता की भागीदारी पर भी निर्भर करता है। भारत में अधिकतर मतदाता अभी भी अपनी बुनियादी समस्याओं के समाधान के प्रति जागरूक होते हैं, लेकिन पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर उनकी जागरूकता अपेक्षाकृत कम है। यह आवश्यक है कि जनता भी पर्यावरणीय मुद्दों को राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनाए और इन मुद्दों पर ठोस नीति की माँग करे। 

वर्तमान समय में जागरूकता और शिक्षा के अभाव में पर्यावरणीय समस्याएँ जनता के लिए प्रमुख मुद्दा नहीं बन पातीं। इसके लिए जन जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है, जिनमें पर्यावरणीय समस्याओं और उनके प्रभावों को सरल और प्रभावी तरीके से बताया जाए। सरकार, शिक्षण संस्थाएँ, और सामाजिक संगठन इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 

सार्वजनिक संवाद में बदलाव की आवश्यकता

भारत में चुनावी विमर्श को बदलने की आवश्यकता है। दीर्घकालिक हितों को प्रमुखता देने और तात्कालिक हितों से हटकर पर्यावरणीय मुद्दों को चुनावी एजेंडा में शामिल करने का समय आ गया है। लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है, और यदि जनता ठोस पर्यावरणीय मुद्दों पर चर्चा की माँग करेगी, तो राजनीतिक दलों को भी इस दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। भारत में पर्यावरणीय मुद्दों के समाधान के लिए राजनीतिक दलों और जनता, दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक समर्पित और दीर्घकालिक पर्यावरण नीति के बिना हमारे देश की समस्याएँ जस की तस बनी रहेंगी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *