हीटवेव और गर्मी के बचने का रास्ता क्या है

Heatwaves in India this summer.

मानवजनित जलवायु परिवर्तन ने आस पास के गर्मी को एक व्यापक पर्यावरणीय संकट में बदल दिया है। 2014 से 2023 तक का दशक, मानव इतिहास में अब तक का सबसे गर्म दशक रहा है, जिसमें वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 280 पीपीएम (औद्योगिक क्रांति से पहले के स्तर) से बढ़कर 425 पीपीएम तक पहुंच गया है।

हालाँकि पृथ्वी प्राकृतिक रूप से गर्म और ठंडी होने के चक्रों से गुजरती है, लेकिन वर्तमान 425 पीपीएम का स्तर 18वीं शताब्दी से 50% की वृद्धि को दर्शाता है। विशेष रूप से पिछले 60 वर्षों में यह वृद्धि पिछले प्राकृतिक परिवर्तनों की तुलना में लगभग 100 गुना तेज रही है। कार्बन उत्सर्जन ने वायुमंडलीय संरचना को अप्राकृतिक रूप से बदल दिया है, जिसका मुख्य कारण अनियंत्रित पूंजीवादी मानव गतिविधियाँ हैं। एक व्यापक सहमति यह है कि यह केवल जलवायु परिवर्तन ही नहीं, बल्कि एक खतरनाक जलवायु संकट है।

इस जलवायु संकट के कई गंभीर परिणाम हैं, लेकिन हीटवेव (लू) को सबसे घातक में से एक माना जाता है। सामान्य तापमान से कम से कम 4.5 डिग्री सेल्सियस अधिक होने पर इसे ‘हीटवेव’ कहा जाता है, और यह शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य और वन्यजीवों के लिए एक नियमित खतरा बन गई है। भारतीय मौसम विभाग (IMD) ने हाल ही में भविष्यवाणी की है कि इस साल अप्रैल से जून के बीच देश के 85% हिस्से में कई बार हीटवेव का सामना करना पड़ेगा। इस अवधि में तापमान सामान्य से 5°C या उससे अधिक बढ़ सकता है।

भारत (और संपूर्ण ग्रह) में रहने वाले जीव-जन्तु हीटवेव से प्रभावित हो रहे हैं। 1950-2015 की अवधि के दौरान, भारत में औसत तापमान में प्रति दशक 0.15 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है, और गर्म दिनों और गर्म रातों की संख्या क्रमशः सात और तीन दिनों की दर से बढ़ी है। इसका अर्थ यह है कि मानवजनित तापमान वृद्धि के कारण 2025 तक कम से कम 42 अतिरिक्त गर्म दिन और 18 अतिरिक्त गर्म रातें जुड़ गई हैं। भारतीय गर्मियों के संदर्भ में यह गणना बिल्कुल सटीक बैठती है—गर्मियां या तो पहले आ रही हैं या देर से खत्म हो रही हैं, या फिर दोनों ही हो रहा है।

इसके अलावा, ये ‘असामान्यताएँ’ 2050 तक दो से चार गुना बढ़ने का अनुमान है। भारत के मैदानी और तटीय क्षेत्र हीटवेव के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील माने जाते हैं, लेकिन पहाड़ी राज्य भी बढ़ते तापमान से अछूते नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश इसका एक उदाहरण है, जिसे कभी अपने सुहावने तापमान और जलवायु के लिए जाना जाता था, लेकिन अब यह लंबे समय तक भीषण गर्मी सहन कर रहा है।

गर्म होती दुनिया के खतरे

A small green plant sprouting from dry, cracked soil, surrounded by dead leaves and rough terrain, symbolizing resilience and hope in harsh conditions.

हीटवेव (लू) कोई सामान्य संकट नहीं है , बल्कि इसके कई दुष्प्रभाव व्यापक होते हैं, असावधानी की स्थति में इससे मृत्यु तक भी हो सकती है। अत्यधिक गर्म तापमान के कारण शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को नुकसान पहुंचता है और हृदय रोग, श्वसन संबंधी समस्याएँ और गुर्दे की बीमारियाँ जैसी दीर्घकालिक स्वास्थ्य स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। यदि पिछले साल के ही आंकड़ों की बात करें तो राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (NCDC) के आंकड़ों के अनुसार, 1 मार्च से 20 जून 2024 के बीच भारत में लू के कारण लगभग 200 लोगों की जान चली गई, जबकि हीटस्ट्रोक के 41,000 से अधिक मामले दर्ज किए गए।  

ध्यान देने वाली बात ये है कि हीटवेव का प्रभाव सभी पर समान रूप से नहीं पड़ता। अत्यधिक गर्मी के खतरे असमान रूप से महसूस किए जाते हैं। कुछ वर्गों के लोग सामाजिक-आर्थिक कारणों से अधिक प्रभावित होते हैं, बच्चे, बुजुर्ग, गरीब एवं महिलाओं पर हीटवेव का प्रभाव अधिक व्यापक रूप से पड़ता है। इसके अलावा हीट स्ट्रेस के कारण असहनीय कार्य परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुमान के अनुसार गर्मी के तनाव के कारण 2030 तक कुल कार्य घंटों का लगभग 5.8% प्रभावित होगा, जो लगभग 3.4 करोड़ नौकरियों के बराबर है।  

यह संकट आने वाले वर्षों में और गंभीर होगा। हीटवेव अधिक बार आएंगी, अधिक तीव्रता से प्रभावित करेंगी और लंबे समय तक बनी रहेंगी। शहरी क्षेत्रों में ‘अर्बन हीट आइलैंड’ जैसे कारक इनके असर को और बढ़ा देंगे। आईपीसीसी (IPCC) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट (AR6) “प्रभाव, अनुकूलन और संवेदनशीलता” में चेतावनी दी गई है कि जलवायु संकट के कारण जंगल की आग, बाढ़, हीटवेव और महामारी जैसे खतरों में वृद्धि होगी। रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि हमारे पास इन प्रभावों से निपटने के लिए आवश्यक उपकरण मौजूद हैं, लेकिन इस संकट की गंभीरता को देखते हुए बड़े पैमाने पर और तुरंत ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।  

रिपोर्ट के अनुसार बढ़ता तापमान दुनिया को और अधिक खतरनाक और महंगा बना देगा। जिन प्रमुख समस्याओं का जिक्र रिपोर्ट में है उसमें आपूर्ति श्रृंखला में रुकावटें, परिवहन बाधाएँ, आवास और बुनियादी ढांचे का नुकसान, खाद्य संकट, और जलवायु से जुड़ी बीमारियों के कारण आय में गिरावट जैसी समस्याएँ शामिल हैं। ये सभी कारक आर्थिक तंत्र पर भारी दबाव डालेंगे और सामाजिक अस्थिरता को बढ़ावा देंगे। हीटवेव के कारण ऊर्जा की खपत भी बढ़ेगी। एयर कंडीशनिंग और फ्रिज जैसी वस्तुओं की मांग में भारी इजाफा होगा। इससे गर्मी से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याएँ और मृत्यु दर भी बढ़ेगी जिससे उत्पादन क्षमता में गिरावट आएगी।

जलवायु परिवर्तन घटनाओं के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव अक्सर आपदा आकलनों में शामिल नहीं किए जाते, लेकिन हाल के शोध बताते हैं कि 1991-2018 के बीच वैश्विक स्तर पर एक-तिहाई से अधिक गर्मी से संबंधित मौतों का कारण जलवायु परिवर्तन था। हालाँकि कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने से स्वास्थ्य से जुड़े फायदे हो सकते हैं लेकिन रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि अनुकूलन (एडॉप्टेशन) के प्रयासों को तेज़ी से बढ़ाना बेहद जरूरी है, क्योंकि इनके सकारात्मक प्रभाव सामने आने में कई साल लग सकते हैं। ऐसा सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान में मौजूद अनुकूलन वित्तपोषण (Adaptation financing) की कमी को तुरंत दूर करना होगा, जिसके लिए सरकारों, निजी क्षेत्र, नागरिक समाज एवं आम लोगों को मिलकर प्रभावशाली नीतियाँ लागू करनी होंगी।

गर्मी से अनुकूलन की आवश्यकता

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ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के स्तर को नियंत्रित करना मुख्यतः तकनीकी सुधारों, स्वच्छ और कम प्रदूषणकारी ईंधनों के विकास तथा पर्यावरण के प्रति मानव व्यवहार में बदलाव पर आधारित है। चूँकि ये परिवर्तन धीरे-धीरे होते हैं और इनके असर दिखने में कई दशक लग सकते हैं, इसलिए जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए अनुकूलन को एक व्यवहारिक और त्वरित समाधान के रूप में माना जा रहा है।

इसके अलावा, कोपेनहेगन (COP 15) और इसके बाद कई अन्य जलवायु वार्ताओं की विफलता, ग्लोबल नार्थ द्वारा जलवायु वित्त पोषण प्रदान करने में असफलता, और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव से वैश्विक जलवायु कार्रवाई पर पड़े नकारात्मक प्रभाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हम न तो केवल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जलवायु न्याय के लिए निर्भर रह सकते हैं और न ही केवल उत्सर्जन नियंत्रण पर भरोसा कर सकते हैं। अपने साझा भविष्य की रक्षा के लिए हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए स्थानीय स्तर पर अनुकूलन की प्रक्रिया को एकीकृत करना होगा।

यही वह विषय है जहाँ हीट एक्शन प्लान (HAPs) महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। HAPs व्यापक क्लाइमेट एक्शन प्लान (CAPs) का हिस्सा होते हैं, जिन्हें विभिन्न स्तरों (राज्य, जिला और नगर) पर सरकारों द्वारा तैयार किया जाता है। इनका उद्देश्य अत्यधिक गर्मी के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना और समुदायों को तैयार करना है। ये हीट एक्शन प्लान योजनाएँ हीटवेव से बचाव, प्रतिक्रिया, और पुनर्प्राप्ति के लिए आवश्यक रणनीतियों और उपायों की रूपरेखा प्रस्तुत करती हैं। भारत में, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) 23 राज्यों के साथ मिलकर हीट एक्शन प्लान तैयार कर रहे हैं।

भारत में हीट एक्शन प्लान स्थानीय गर्मी प्रोफाइल का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करते हैं, जिसमें पिछले हीटवेव डेटा, तापमान रुझान, तथा भूमि सतह के तापमान (land surface temperature) जैसी जानकारी शामिल होती है। इसके आधार पर, ये योजनाएँ उन क्षेत्रों की पहचान करती हैं जो अत्यधिक गर्मी के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं और त्वरित उपायों की आवश्यकता रखते हैं। इसके बाद, इन क्षेत्रों में गर्मी से संबंधित खतरों को कम करने के लिए उपयुक्त प्रतिक्रिया रणनीतियाँ तैयार की जाती हैं।

भारत में HAPs इस बात को स्वीकार करते हैं कि हीटवेव अक्सर अन्य आपदाओं के साथ अथवा उनके परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं, जैसे कि जल संकट, सूखा, तेज़ हवाएँ, जंगल की आग आदि, जो गर्मी के प्रभावों को और अधिक बढ़ा देते हैं। इसके अलावा कई योजनाएँ इस बात पर भी प्रकाश डालती हैं कि हीटवेव के प्रभाव ऊर्जा और बिजली आपूर्ति, जल आपूर्ति, सार्वजनिक परिवहन, शिक्षा तथा पशुपालन जैसे विभिन्न क्षेत्रों पर किस प्रकार पड़ते हैं। इन जटिल प्रभावों को ध्यान में रखते हुए, हीट एक्शन प्लान का उद्देश्य समाज को इस जलवायु संकट के प्रति अधिक तैयार और सहनशील बनाना है।

हीट एक्शन प्लान (HAPs) की सीमाएँ

हालाँकि, कई भारतीय शहरों में हीट एक्शन प्लान (HAPs) लागू हैं, लेकिन वे अक्सर वित्तीय और प्रशासनिक संसाधनों की कमी, साथ ही राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण उतने प्रभावी नहीं होते हैं। इसके अलावा, भारत में हीट एक्शन प्लान अब तक गर्मी के संकट की बारीकियों को पूरी तरह समझने और इसे स्थानीय स्तर पर परिभाषित करने में पूरी तरह सफल नहीं हुए हैं।

आज की स्थिति में हीट प्रबंधन को प्रभावी बनाने के लिए, उपलब्ध वैज्ञानिक डेटा का उपयोग करके गर्मी के बदलते स्वरूप को समझने की जरूरत है। इसमें गर्मी और आर्द्रता के आपसी प्रभाव, गर्मी के अन्य आपदाओं के साथ जुड़े खतरे (जैसे कि सूखा और जंगल की आग) और मानव स्वास्थ्य से आगे विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभावों को शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, प्रशासनिक तंत्र की कुछ प्रमुख सीमाएँ जैसे विभिन्न विभागों के बीच समुचित समन्वय की कमी, सीमित तकनीकी क्षमताएँ, नौकरशाही में परस्पर प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं का होना, और यह प्रचलित सोच कि गर्मी महज़ एक सामान्य स्थिति है, कोई गंभीर नीतिगत मुद्दा नहीं है, राज्य स्तर पर दीर्घकालिक और प्रभावी योजना निर्माण की प्रक्रिया को गंभीर रूप से प्रभावित करती हैं।

वर्तमान में, HAPs को मुख्य रूप से प्रतिक्रियात्मक (reactive) उपायों के रूप में देखा जाता है, जबकि उन्हें प्रोएक्टिव और भविष्यसूचक बनाना आवश्यक है। इसके लिए, HAPs में केवल पिछले तापमान रुझानों पर ध्यान देने के बजाय भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की विस्तृत एवं अत्यधिक स्थानीय भविष्यवाणियों को भी शामिल करना आवश्यक है।

इसके अलावा, विभिन्न प्रशासनिक स्तरों के HAPs का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि उनमें कुशलता, व्यावहारिकता और नवाचार का बेहद अभाव है। कई HAPs ग्रीन रूफिंग, पेड़ लगाने और जागरूकता कार्यक्रमों जैसी रणनीतियों की वकालत करते हैं, लेकिन इन उपायों को लागू करने में कई चुनौतियाँ सामने आई हैं। उदाहरण के लिए, अत्यधिक गर्मी से बचाव के लिए पेड़ लगाने की नीति को हीट संवेदनशीलता आकलनों के साथ ठीक से जोड़ा नहीं गया। एक अन्य उदाहरण यह है कि घनी आबादी वाले गर्म और अनौपचारिक बस्तियों (झुग्गी-झोपड़ियों) में भूमि की कमी अथवा सामाजिक राजनीतिक जटिलताओं के कारण पेड़ लगाने में कठिनाइयाँ आती हैं।

इस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता लंबी अवधि के परिवर्तनकारी उपायों पर ध्यान केंद्रित करने की है, जैसे कि जलवायु-संवेदनशील शहरी नियोजन और फसल पैटर्न में बदलाव। हालाँकि इनका कार्यान्वयन महंगा हो सकता है, लेकिन ये गर्मी के संपर्क में कमी लाने और HAPs को अधिक प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

HAPs की क्षमता को एक परिवर्तनकारी और बहु-क्षेत्रीय (cross-sectoral) तंत्र बनाने की दिशा में बढ़ाना होगा, जिसमें स्वास्थ्य, निर्माण, और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सरकारी विभागों, नागरिक समाज और स्थानीय जलवायु अनुसंधान संगठनों के बीच सक्रिय सहयोग सुनिश्चित किया जाए।

हीट एक्शन प्लान (HAPs) को मजबूत बनाना

गर्मी से अनुकूलन में शहरों की विशेष भूमिका है, क्योंकि वे ऊर्जा के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं और वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा हिस्सा उत्सर्जित करते हैं। जलवायु संकट में शहरों की भूमिका केन्द्रीय होने के कारण शहरों का भविष्य यह तय करेगा कि इस संकट को कैसे देखा और समझा जाए। इसलिए, शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को हीटवेव और इसके विभिन्न प्रभावों के प्रति संवेदनशीलता कम करने और अनुकूलन की दिशा में प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। हीट एक्शन प्लान को शहरी नियोजन के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें नगर निगमों (Municipal Corporations) के साथ-साथ शैक्षणिक संस्थान, गैर-सरकारी संगठन, नागरिक समाज, और राज्य सरकार सभी एक साथ मिलकर काम करें।

इसके अलावा, केंद्र और राज्य सरकारों को स्थानीय सरकारों को स्पष्ट नीति निर्देश एवं वित्तीय प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है, ताकि वे हीट मिटीगेशन और अनुकूलन के उपायों को प्रभावी रूप से लागू कर सकें। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव स्थान और जनसंख्या समूहों के अनुसार अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न समुदायों के बीच ज्ञान का आदान-प्रदान (knowledge-sharing) भी अत्यंत जरूरी है।

इस उद्देश्य के लिए कुछ मंच पहले से काम कर रहे हैं जैसे- 

  • C40 Cities Climate Leadership Group-  यह लगभग 100 बड़े शहरों को जोड़ता है, जिससे वे जलवायु संकट के खिलाफ अपने शहरी प्रयासों को साझा कर सकें।
  • Local Governments for Sustainability (ICLEI)- यह 2500 से अधिक स्थानीय और क्षेत्रीय सरकारों का वैश्विक नेटवर्क है, जो सतत शहरी विकास के लिए कार्यरत है।
  • India Forum for Nature-based Solutions- यह भारत का पहला राष्ट्रीय गठबंधन मंच है, जिसे NIUA और WRI India द्वारा जलवायु अनुकूलन के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों को मुख्यधारा में लाने के लिए शुरू किया गया है।

हालाँकि, ऐसे मंचों का व्यापक विस्तार आवश्यक है। इसमें प्रमुख भूमिका केंद्र और राज्य सरकारों को निभानी होगी। इन योजनाओं को प्रभावी बनाने के लिए नीतिगत स्पष्टता, वित्तीय समर्थन, और विभिन्न हितधारकों के बीच समन्वय को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि हीट एक्शन प्लान को दीर्घकालिक और प्रभावशाली बनाया जा सके।

पारंपरिक ज्ञान एवं सामुदायिक प्रयास के लाभ 

शहरी जीवनशैली को भी संशोधित करना आवश्यक है ताकि इसे पर्यावरणीय रूप से ज़िम्मेदार व्यवहार (ERB) के अनुरूप बनाया जा सके। इस आवश्यकता को केंद्र सरकार द्वारा 2021 में शुरू किए गए मिशन LiFE (लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) पहल में परिलक्षित किया गया है, जो व्यवहारिक परिवर्तन तथा सामुदायिक प्रयासों को प्रोत्साहित करता है। हालांकि, इन कार्यक्रमों में पारंपरिक और स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों को बहाल करने की व्यवस्था होनी चाहिए, जो गर्मी के अनुकूलन और न्यूनीकरण से जुड़ी हुई हैं।  

भारत के विभिन्न हिस्सों में समृद्ध स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों की विरासत के कारण स्थानीय समुदायों ने जलवायु की चरम परिस्थितियों से निपटने के लिए कई अच्छे कौशल विकसित किए हैं। हालांकि, इन ज्ञान प्रणालियों को आधुनिक न्यूनीकरण और अनुकूलन रणनीतियों के डिजाइन में शायद ही कभी शामिल किया जाता है। उदाहरण के लिए, उत्तर-पश्चिमी भारत की जलवायु अत्यधिक तापमान और पूरे वर्ष शुष्कता की विशेषता रखती है, जिससे यह भारत का सबसे गर्म क्षेत्र बन जाता है।  

यहां रहने वाले समुदायों ने गर्मी के अनुकूलन के लिए कई रणनीतियाँ विकसित की हैं, जो कृषि और पशुपालन से लेकर आवास और पहनावे तक के दैनिक जीवन में देखी जा सकती हैं। इनमें सबसे उल्लेखनीय प्राथमिक रणनीति जल संरक्षण संरचनाओं जैसे तालाब, जोहड़, टांके आदि का विकास और संरक्षण है। ये संरचनाएँ कम वर्षा होने पर भी जल संग्रह कर पूरे वर्ष जल आपूर्ति सुनिश्चित करती हैं। साथ ही, ये भूजल स्तर को पुनः भरने तथा वर्षा जल अपवाह को रोकने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके अलावा, जोहड़ जैसी संरचनाएँ अचानक आई बाढ़ के दौरान अतिरिक्त पानी को इकट्ठा करने में सहायक होती हैं, जिससे गंभीर बाढ़ के प्रभाव को रोका जा सकता है।  

इन क्षेत्रों में घरों की प्लानिंग भी इस तरह से की जाती है कि गर्मी के प्रभाव को कम किया जा सके।  इसके लिए पारंपरिक रूप से मकान पूर्व दिशा की ओर बनाए जाते हैं, जिससे सुबह की ठंडी धूप तो घर में आती है, लेकिन दोपहर की तीव्र गर्मी से बचाव होता है। साथ ही, इन मकानों के निर्माण में बालू-पत्थर और चूना-पत्थर का उपयोग किया जाता है, जो गर्मी को अवशोषित नहीं करते। इसके विपरीत, भारत के विभिन्न शहरी केंद्रों में कांच की इमारतों का अनियंत्रित निर्माण देखा जा रहा है, जो पश्चिमी स्थापत्य शैली की बिना सोचे-समझे नकल मात्र हैं, जहाँ कांच का उपयोग दुर्लभ सूर्यप्रकाश को अधिकतम करने के लिए किया जाता है।  

हालांकि, समुदाय-नेतृत्वित प्रयास महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए आवश्यक व्यापक प्रणालीगत परिवर्तनों को संबोधित करने में सीमित हो सकते हैं। इसके विपरीत, बड़ी नीति पहलों में जलवायु न्यूनीकरण और अनुकूलन में परिवर्तनकारी बदलाव लाने की क्षमता होती है।

सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता 

जब हम समग्र कैपेसिटी बिल्डिंग के लिए नीतिगत प्रयासों की बात करते हैं, तो इसमें केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को प्रदान किए जाने वाले ब्याज-मुक्त ऋणों को देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, वित्त वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार ने राज्यों के लिए पूंजी निवेश हेतु विशेष सहायता योजना शुरू की, जिसके तहत कोविड लहरों से निपटने में सहायता के लिए 50 वर्ष तक के लिए ब्याज-मुक्त ऋण दिए गए। इस योजना के आवंटन में पिछले कुछ वर्षों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है—वित्त वर्ष 2020-21 में ₹12,000 करोड़ से बढ़कर वित्त वर्ष 2023-24 में ₹1.3 लाख करोड़ हो गया है।

इन ऋणों का उद्देश्य राज्यों में सुधार और पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देना है। इन ऋणों का लाभ उठाने के लिए राज्यों को आवास, शहरी नियोजन आदि में सुधार से जुड़ी कुछ शर्तों को पूरा करना आवश्यक होता है। जलवायु अनुकूलन और न्यूनीकरण में सहायक इन्फ्रास्ट्रक्चर को भी इन सुधारों की शर्तों में शामिल किया जा सकता है, ताकि राज्य सरकारों और संस्थानों की जलवायु परिवर्तन से लड़ने की क्षमता को बढ़ाया जा सके।

स्थानीय और राज्य सरकारें बढ़ते तापमान से उत्पन्न स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने के लिए भूमि उपयोग तथा शहरी डिज़ाइन को गर्मी के अनुकूल बनाने वाले उपाय लागू कर सकती हैं। साथ ही, ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों को बढ़ावा देकर भवनों और वाहनों से उत्पन्न अपशिष्ट गर्मी उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। भारत स्टेज (BS) मानकों जैसे सख्त वाहन उत्सर्जन मानकों को लागू करने का मुख्य उद्देश्य वायु प्रदूषण को कम कर वायु गुणवत्ता में सुधार करना है, लेकिन यह शहरी ताप न्यूनीकरण में भी योगदान दे सकता है। वाहन उत्सर्जन से बनने वाले द्वितीयक प्रदूषकों और सूक्ष्म कणों से शहरी क्षेत्रों में हीट आइलैंड प्रभाव (Heat Island Effect) बढ़ता है, जिसे ये मानक कम करने में सहायक हो सकते हैं। हालांकि, शहरी ताप प्रबंधन के लिए इस उपाय का प्रभाव सीमित होगा, लेकिन कूल रुफिंग, हरे भरे स्थानों तथा शहरी वनों को बढ़ावा देने जैसी रणनीतियों के साथ मिलकर यह दीर्घकालिक समाधान प्रदान कर सकता है।

इस वर्ष भारत में ग्रीष्मकालीन सूर्य की तीव्रता पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक रही है, और भारत का लगभग 90% हिस्सा हीटवेव प्रभाव के खतरे वाले क्षेत्र में है। दिल्ली सहित कई क्षेत्र भीषण गर्मी के प्रभाव के उच्चतम जोखिम में हैं। अहमदाबाद और जयपुर जैसे शहरों में गर्मी के कारण लोगों की मृत्यु के मामले सामने आए हैं, वहीं जंगलों में जलाशय सूखने से वन्यजीव प्रभावित हो रहे हैं, जिससे वे मानव बस्तियों की ओर पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं और मानव-पशु संघर्ष की घटनाएँ बढ़ रही हैं। जलवायु प्रभावों के इस बढ़ते संकट को देखते हुए भारत में हीट एक्शन प्लान (Heat Action Plan) को सुदृढ़ करने और उसके दायरे का विस्तार करने की आवश्यकता है।

लेखक – सुंदरम सक्सेना 

(Email ID: sunderam.saxena44@gmail.com)

Read this article in English: Heat Adaptation: The Why and How

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