युद्ध के पर्यावरणीय प्रभाव

युद्ध के पर्यावरणीय प्रभाव

युद्ध केवल हथियारों और सैनिकों के टकराव का नाम नहीं है। यह एक व्यापक सामाजिक, मानवीय और पारिस्थितिकीय आपदा है। जब सशस्त्र संघर्ष होते हैं तब नदियाँ सूखती हैं, जंगल जलते हैं, और मिट्टी जहरीली हो जाती है। युद्धों को आम तौर पर मानव जीवन, संपत्ति और भू-राजनीतिक स्थिति पर उनके प्रभाव के संदर्भ में देखा जाता है। किंतु एक महत्वपूर्ण पहलू जो प्रायः अनदेखा रह जाता है, वह है पर्यावरण पर युद्ध का प्रभाव। युद्ध केवल मनुष्यों और राष्ट्रों को ही नहीं, बल्कि पृथ्वी की पारिस्थितिकीय संरचना, प्राकृतिक संसाधनों तथा जैव विविधता को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। इस लेख में हम युद्ध के पर्यावरणीय प्रभावों को समझेंगे।

युद्ध से पहले 

युद्ध की तैयारी और सैन्य ढांचे को बनाए रखना स्वयं में एक अत्यधिक प्रदूषणकारी प्रक्रिया है। दुनिया की सेनाएँ मिलकर वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 5.5% उत्सर्जन करती हैं।सैन्य अभ्यास और प्रशिक्षण में तेल, जल, धातु और दुर्लभ पृथ्वी तत्वों की भारी खपत होती है। सैन्य बेस और प्रशिक्षण क्षेत्र अक्सर प्राकृतिक आवासों में स्थित होते हैं, जिससे पारिस्थितिकी को भारी नुकसान होता है। प्रशिक्षण के दौरान किए गए विस्फोट, रासायनिक उत्सर्जन और भारी वाहनों की आवाजाही से भूमि और जल स्रोत प्रदूषित होते हैं।

युद्ध के दौरान

युद्ध के दौरान प्राकृतिक संसाधनों का विनाश एक आम युद्ध रणनीति के रूप में सामने आता है, जिसमें दुश्मन को कमजोर करने के उद्देश्य से जल संयंत्रों, तेल भंडारों तथा कृषि व्यवस्था को जानबूझकर नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार की कार्रवाइयों से न केवल आर्थिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं, बल्कि व्यापक पैमाने पर वायु, जल और मृदा प्रदूषण भी होता है जो पूरे पारिस्थितिक तंत्र को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त, विस्फोटक तथा रासायनिक हथियारों का प्रयोग भूमि में रेडियोधर्मी तत्वों और विषैले रसायनों का संचय कर देता है जिससे मिट्टी की उर्वरता और जल स्रोत दोनों खतरे में पड़ जाते हैं। विस्फोटों से उत्पन्न मलबा और धूल न केवल पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, अपितु स्थानीय निवासियों के स्वास्थ्य पर भी दीर्घकालिक दुष्प्रभाव डालते हैं। 

इसके साथ ही युद्ध के दौरान वन्य जीवन और जैव विविधता पर भी गंभीर संकट उत्पन्न होता है। युद्ध प्रभावित वन क्षेत्रों में हथियारबंद समूहों की उपस्थिति से अवैध शिकार, अनियमित लकड़ी कटाई और खनन जैसी गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं। कांगो, कोलंबिया और यूक्रेन जैसे देशों में यह देखा गया है कि इन कारणों से जैव विविधता को अपूरणीय क्षति पहुँची है, जिससे कई प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर पहुँच गई हैं।

कब्जे के दौरान पर्यावरणीय उपेक्षा

युद्ध के दौरान कब्जा किए गए क्षेत्रों में पर्यावरण पर अनेक प्रकार के दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं। सैन्य ठिकानों से उत्पन्न कचरा, ईंधन का रिसाव और रासायनिक अपशिष्ट आसपास की भूमि, जल और वायु को गंभीर रूप से प्रदूषित करते हैं, जिससे स्थानीय पर्यावरण संतुलन बिगड़ जाता है। इसके अतिरिक्त, सुरक्षा के नाम पर बनाई गई दीवारें, बाड़ें तथा चौकियाँ वन्यजीवों के प्राकृतिक आवागमन मार्गों को बाधित करती हैं, जिससे उनकी प्रजनन प्रक्रियाएँ, भोजन की उपलब्धता और आपसी संपर्क प्रभावित होता है। यह स्थिति कई बार प्रजातियों के अस्तित्व पर भी संकट ला देती है। कब्जा किए गए क्षेत्रों में संसाधनों का दोहन भी अक्सर असमान और अनियमित होता है, जहाँ स्थानीय समुदायों को उनके अपने जल, भूमि और खनिज संसाधनों तक पहुंच नहीं मिलती, जबकि बाहरी शक्तियाँ इनका अंधाधुंध उपयोग करती हैं। इससे पर्यावरणीय असंतुलन के साथ-साथ सामाजिक असंतोष भी जन्म लेता है।

युद्ध के बाद की स्थिति 

युद्ध समाप्त होने के बाद मलबे और विषैले कचरे का प्रबंधन एक गंभीर चुनौती बनकर उभरता है। तबाह हुए शहरों और बस्तियों से निकलने वाला निर्माण मलबा, धातुएं और रासायनिक अवशेष यदि सही तरीके से निपटाए न जाएं तो यह न केवल पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, बल्कि जनस्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन जाते हैं। इसी के साथ जब विस्थापित लोग अपने घरों को लौटते हैं, तो उनके पुनर्वास और जीविका की आवश्यकताओं के चलते वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ता है। यह स्थिति पर्यावरणीय संतुलन को और भी अधिक कमजोर बना देती है। इसके अतिरिक्त, युद्ध के दौरान लोगों द्वारा जीविका के लिए अपनाई गई अनियंत्रित गतिविधियाँ, जैसे कि कच्चे तेल की अवैध रिफाइनिंग, न केवल उस समय प्रदूषण फैलाती हैं, बल्कि उनके प्रभाव लंबे समय तक मिट्टी, जल और वायु में जहर घोलते रहते हैं। इन गतिविधियों का असर वर्षों तक स्थानीय पर्यावरण और समुदायों पर बना रहता है।

यदि हम इतिहास को देखें तो ऐसे कई सारे उदाहरण मिलते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा किए गए परमाणु हमलों ने केवल मानव जीवन ही नहीं, बल्कि पर्यावरण को भी व्यापक स्तर पर क्षति पहुँचाई। इन हमलों से उत्पन्न रेडियोधर्मी विकिरण ने वर्षों तक मिट्टी और जल स्रोतों को प्रदूषित रखा, जिससे कृषि भूमि बंजर हो गई और वनस्पति एवं जीव-जंतु विलुप्ति के कगार पर पहुँच गए। इसके अलावा, यूरोप के विभिन्न हिस्सों में युद्ध के दौरान भारी बमबारी और सैन्य गतिविधियों ने वनों का सफाया कर दिया और औद्योगिक क्षेत्रों में जहरीले रसायनों का फैलाव किया, जो आज भी कई क्षेत्रों में पर्यावरणीय समस्याओं का कारण बना हुआ है। एक और प्रमुख उदाहरण वियतनाम युद्ध का है, जहाँ अमेरिकी सेना ने “ऑपरेशन रैंच हैंड” के तहत लाखों लीटर एजेंट ऑरेंज जैसे रासायनिक विकराल डिफोलिएंट का छिड़काव किया। इसका उद्देश्य जंगलों और फसलों को नष्ट करना था ताकि वियतनामी लड़ाकों को छिपने की जगह न मिले। लेकिन इसके परिणामस्वरूप लाखों हेक्टेयर वन नष्ट हो गए, मिट्टी और जल स्रोत जहरीले हो गए और जैव विविधता को भारी नुकसान पहुँचा। इसके दुष्परिणाम आज भी वियतनाम की पीढ़ियों को झेलने पड़ रहे हैं, जहाँ जन्म दोष, कैंसर और अन्य बीमारियाँ आम हो गई हैं। यह युद्ध पर्यावरणीय विनाश का एक भयावह उदाहरण है।

इस दौरान पर्यावरण संरक्षण के अंतर्राष्ट्रीय प्रावधान

  • जिनेवा कन्वेंशन (1949) और उसके प्रोटोकॉल- विशेष रूप से प्रोटोकॉल I (1977) में कहा गया है कि पर्यावरणीय नुकसान जो मानव स्वास्थ्य या जीविका को दीर्घकालिक रूप से प्रभावित करे, उसे युद्ध में वर्जित किया जाना चाहिए।
  • ENMOD कन्वेंशन (1977) Environmental Modification Convention- इसमें स्पष्ट किया गया है कि पर्यावरण को हथियार के रूप में प्रयोग करना (जैसे कि जलवायु में कृत्रिम परिवर्तन) अंतर्राष्ट्रीय अपराध माना जाएगा।
  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP)- UNEP युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में पर्यावरण पुनर्वास, निगरानी और सलाह का कार्य करता है।
  • International Committee of the Red Cross (ICRC) की गाइडलाइंस- रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति ने “Guidelines on the Protection of the Natural Environment in Armed Conflict” जारी की हैं जो सैन्य और असैन्य दोनों पक्षों के लिए लागू हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र महासभा का 6 नवंबर दिवस – हर साल 6 नवंबर को “युद्ध और सशस्त्र संघर्ष में पर्यावरण के शोषण की रोकथाम के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस” मनाया जाता है।

आगे का रास्ता क्या है 

पर्यावरण युद्ध का एक मूक शिकार है। यह केवल प्राकृतिक सौंदर्य का विनाश नहीं बल्कि मानव स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और जीवन के मूलभूत संसाधनों पर भी सीधा प्रहार है। यदि हमें आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित और समृद्ध धरती सौंपनी है, तो युद्धों में पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देना अनिवार्य है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने पाया है कि पिछले 60 वर्षों में लगभग 40 प्रतिशत आंतरिक संघर्षों का संबंध प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से रहा है, चाहे वह उच्च मूल्य वाले संसाधन हों जैसे कि लकड़ी, हीरे, सोना और तेल, अथवा दुर्लभ संसाधन जैसे उपजाऊ भूमि और जल। जिन संघर्षों में प्राकृतिक संसाधन शामिल होते हैं, उनमें फिर से भड़कने की संभावना दोगुनी पाई गई है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, नीति निर्माताओं एवं नागरिक समाज को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि युद्ध केवल हथियारों से नहीं, पर्यावरणीय नैतिकता से भी लड़ा जाए। हालांकि इस क्षेत्र में बहुत कुछ किए जाने  की आवश्यकता है।

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