भारत में विकास की गति के साथ बिजली की मांग तेजी से बढ़ रही है। अनुमान है कि आने वाले कुछ वर्षों में देश में कोयले से बिजली बनाने की क्षमता 280 गीगावॉट से ज्यादा हो जाएगी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या पर्यावरण को बचाने के लिए कोयले का इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर देना चाहिए?
रिपोर्ट क्या कहती है?
CSE के एक रिपोर्ट के अनुसार इस सवाल का जवाब है – नहीं।सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की एक नई रिपोर्ट बताती है कि कोयले का उपयोग एकदम से बंद करना भारत के लिए अभी संभव नहीं है। इसके बजाय, हमें कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को कम प्रदूषण वाले और ज्यादा कुशल बनाने पर ध्यान देना चाहिए। रिपोर्ट का नाम है: “डिकार्बनाइजिंग द कोल-बेस्ड थर्मल पावर सेक्टर इन इंडिया”।
CSE की महानिदेशक सुनीता नारायण कहती हैं कि भारत में कुल ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के उत्सर्जन का करीब 39% हिस्सा बिजली उत्पादन से आता है, और इसमें सबसे बड़ी भूमिका कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों की है। उनके मुताबिक, भारत जैसे देश में जहां हर घर और उद्योग को बिजली चाहिए, वहां कोयला पूरी तरह छोड़ना अभी संभव नहीं है। लेकिन हम कोयले का इस्तेमाल कम प्रदूषण के साथ कर सकते हैं। इसी प्रक्रिया को “डिकार्बनाइजेशन” कहा जाता है – यानी कार्बन उत्सर्जन को कम करना।
क्या अक्षय ऊर्जा काफी है?
भारत ने अब तक सौर, पवन और जल जैसे गैर-जीवाश्म स्रोतों से अपनी कुल स्थापित बिजली क्षमता का 46.3% हिस्सा तैयार कर लिया है। लेकिन असल में इन स्रोतों से सिर्फ 12% बिजली ही मिल रही है, क्योंकि यह बिजली हर समय उपलब्ध नहीं रहती (जैसे रात में सूरज नहीं होता, हवा नहीं चलती)। इसलिए, कोयले से बिजली बनाना अब भी जरूरी है – लेकिन यह ज्यादा साफ-सुथरे तरीके से किया जाना चाहिए।
2032 तक क्या होगा
रिपोर्ट के अनुसार, अगर वर्तमान स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया, तो कोयले से बिजली उत्पादन से होने वाला कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन तेजी से बढ़ेगा। वर्ष 2022–23 में यह उत्सर्जन करीब 1,076.7 मिलियन टन था, जो 2031–32 तक बढ़कर लगभग 1,332.7 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। लेकिन यदि देश में कोयले की हिस्सेदारी ऊर्जा क्षेत्र में 73 से 75 प्रतिशत के बीच बनी रही, तो यह आंकड़ा और भी भयावह हो सकता है — जो उत्सर्जन बढ़कर 1,838 मिलियन टन तक जा सकता है। यह स्थिति भारत के जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों और वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के प्रति हमारी प्रतिबद्धताओं के लिए एक बड़ी चुनौती बन सकती है।
क्या सिर्फ पुराने संयंत्र ही जिम्मेदार हैं
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) द्वारा किए गए विस्तृत विश्लेषण में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। रिपोर्ट बताती है कि 25 साल से अधिक पुराने 8 संयंत्र देश के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले संयंत्रों में शामिल हैं, जबकि इसके विपरीत, 20 साल से कम उम्र के 49 संयंत्र सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों की श्रेणी में आते हैं। इतना ही नहीं, कई अपेक्षाकृत नए संयंत्र औसत दक्षता से भी नीचे कार्य कर रहे हैं।
यह दर्शाता है कि किसी संयंत्र का प्रदर्शन केवल उसकी उम्र पर निर्भर नहीं करता, बल्कि उसकी तकनीकी संरचना, नियमित रखरखाव और संचालन की गुणवत्ता उसकी दक्षता और पर्यावरणीय प्रभाव को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
बेहतर तकनीक का उपयोग नहीं हो रहा
भारत में बिजली उत्पादन के लिए मौजूद आधुनिक तकनीकों — जैसे सुपर क्रिटिकल और अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल संयंत्रों — का उपयोग उनकी क्षमता के अनुरूप नहीं हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, 72 सुपर क्रिटिकल संयंत्रों में से 14 और 20 अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल संयंत्रों में से 8, वर्ष 2022–23 में अपनी कुल क्षमता का 50 प्रतिशत से भी कम उपयोग कर रहे थे। हैरानी की बात यह है कि सबसे अधिक प्लांट लोड फैक्टर (PLF) — यानी संयंत्र की कुल क्षमता के मुकाबले वास्तविक उत्पादन — पुराने सब-क्रिटिकल तकनीक वाले संयंत्रों का है, जो औसतन 68 प्रतिशत है। इसके मुकाबले सुपर क्रिटिकल संयंत्रों का PLF 62 प्रतिशत और अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल संयंत्रों का मात्र 54 प्रतिशत है। यह स्थिति दर्शाती है कि जो संयंत्र तकनीकी रूप से सबसे सक्षम और कुशल हैं, उनका उपयोग सबसे कम हो रहा है — जो कि न केवल संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि डिकार्बनाइजेशन के लक्ष्य के लिए भी बाधा बन सकती है।
तीन बड़े उपाय
CSE ने 2032 तक उत्सर्जन घटाने के लिए तीन मजबूत तकनीकी समाधान सुझाए हैं। मौजूदा संयंत्रों की कार्यक्षमता सुधारना, ताकि वे तय मानकों के अनुसार काम करें। सुपर और अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल संयंत्रों से ज्यादा बिजली पैदा करना तथा कोयले के साथ बायोमास (जैव ईंधन) मिलाकर जलाना, और इसकी हिस्सेदारी 20% तक बढ़ाना। CSE के पार्थ कुमार के अनुसार, यदि ये उपाय लागू किए जाएं, तो 2031-32 तक उत्सर्जन घटकर 900 मिलियन टन रह सकता है – यानी लगभग 32% की कटौती। यह कटौती भारत की स्टील और सीमेंट इंडस्ट्री के कुल उत्सर्जन से भी ज्यादा होगी।
नीतियों में जरूरी बदलाव
CSE की रिपोर्ट में कुछ अहम नीति सुधार भी सुझाए गए हैं:
- बिजली डिस्पैच नीति में उत्सर्जन मानकों को शामिल करना,
- बिजली खरीद समझौतों (PPAs) की समीक्षा करना,
- कोयला उपकर (coal cess) का उपयोग डिकार्बनाइजेशन के लिए करना,
- बिजली की मांग का बेहतर अनुमान लगाने की प्रणाली विकसित करना।
CSE के इंडस्ट्रियल पॉल्यूशन प्रोग्राम के निदेशक निवीत कुमार यादव के अनुसार, जो संयंत्र अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं, उन्हें सुधार और आधुनिकीकरण की नीति में शामिल किया जाना चाहिए।
कोयले को छोड़े नहीं, उसे बेहतर बनाएं
भारत के लिए कोयले को पूरी तरह छोड़ना न तो आसान है, न ही फिलहाल व्यवहारिक। लेकिन हम इसके इस्तेमाल को कम प्रदूषण वाला, अधिक कुशल और टिकाऊ बना सकते हैं। CSE की रिपोर्ट बताती है कि समझदारी से योजना बनाकर, हम कोयले से बिजली बनाते हुए भी कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती कर सकते हैं। यह भारत के ऊर्जा भविष्य और पर्यावरण सुरक्षा दोनों के लिए ही जरूरी है।
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