भारतीय राजनीति में लोकलुभावनवाद से जल संसाधनों पर संकट

भारतीय राजनीति में लोकलुभावनवाद का बढ़ता प्रभाव आज कई गम्भीर प्रश्न खड़े कर रहा है, जिनका सीधा संबंध देश के प्राकृतिक संसाधनों, विशेष रूप से जल से है। भारतीय राजनीतिक दल अपने घोषणापत्रों में किसानों को आकर्षित करने के लिए कृषि उत्पादों पर विशेष समर्थन मूल्य (MSP) की घोषणा करते हैं, लेकिन इस होड़ में तात्कालिक लाभों को प्राथमिकता देते हुए दीर्घकालिक कृषि और पर्यावरणीय जरूरतों को अनदेखा कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति न केवल भारतीय कृषि की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है, बल्कि देश के जल संसाधनों को भी संकट की स्थिति में पहुँचा रही है।

जल संकट और भारतीय कृषि

भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक देश है और 140 से अधिक देशों को चावल का निर्यात करता है। यह आर्थिक दृष्टि से भले ही भारत की कृषि शक्ति को दर्शाता हो, लेकिन इसके पीछे जल संसाधनों की भारी कीमत चुकाई जा रही है। चावल एक अत्यधिक पानी खपत करने वाली फसल है, जिसके उत्पादन में प्रति किलोग्राम 2500 से 3500 लीटर पानी खर्च होता है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में, जहां चावल का उत्पादन अत्यधिक होता है, प्रति किलोग्राम चावल पर पानी की खपत इस औसत से भी अधिक है। 

वर्चुअल वाटर का निर्यात: जल संकट की अनदेखी

वाटर फुटप्रिंट नेटवर्क के अनुसार, “वर्चुअल वाटर” उस पानी की मात्रा को कहते हैं जो किसी उत्पाद में निहित होती है, जैसे कि चावल या मांस। भारत चावल जैसे पानी की अत्यधिक खपत करने वाले उत्पादों का निर्यात करके अरबों लीटर साफ पानी का अप्रत्यक्ष निर्यात कर रहा है। एक तरफ भारत में सिंचाई और पीने के पानी की भारी कमी है, वहीं हम कृषि उत्पादों के निर्यात के माध्यम से अपने जल संसाधनों को भी गँवा रहे हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में भूजल पर सबसे अधिक निर्भरता भारत की है, जहाँ विश्व की कुल भूजल मांग का 25% केवल भारत की मांग के लिए उपयोग होता है। ऐसे में चावल जैसी जल-संवेदनशील फसलों पर MSP के बढ़ते वादे और इनका निर्यात हमारे जल संसाधनों पर गहरा असर डाल रहे हैं।

हरित क्रांति और भारतीय कृषि की जल समस्या

1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान भारत में धान और गेहूँ जैसी फसलों का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ। इस नीति ने भारत को खाद्य सुरक्षा प्रदान की, लेकिन इसका पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ा। चावल और गेहूँ जैसी ज्यादा पानी खपत वाली फसलों की खेती को अत्यधिक बढ़ावा दिया गया, जिससे भारत में जल संकट और गंभीर होता चला गया। अब समय आ गया है कि हम हरित क्रांति की इस गलती से सबक लें और उन फसलों की ओर ध्यान दें जो पानी की कम खपत करती हैं, जैसे कि मोटे अनाज (मिलेट्स)।

मोटे अनाजों का महत्व और लोकलुभावन राजनीति का असर

मोटे अनाज जैसे बाजरा, ज्वार, और रागी की खेती में पानी की खपत चावल की तुलना में काफी कम होती है। मिलेट्स की फसल को एक किलो उपजाने में केवल 650 से 1200 लीटर पानी लगता है, जबकि चावल के लिए यह खपत लगभग तीन गुना अधिक होती है। जल संकट के इस दौर में कृषि नीति में मिलेट्स जैसी फसलों को बढ़ावा देना आवश्यक है। लेकिन लोकलुभावन राजनीति के चलते राजनैतिक दल इन फसलों की बजाय जल-संवेदनशील फसलों पर MSP बढ़ाने में ही रुचि दिखा रहे हैं। हालांकि केंद्र सरकार के प्रयासों से 2023 को इंटेरनेशनल मिलेट इयर घोषित किया गया था। इन प्रयासों को और अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है। 

आदिवासी क्षेत्रों में चावल पर MSP का वादा

झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में भी पारंपरिक अनाजों की बजाय चावल पर विशेष MSP का वादा कर राजनीतिक दल वोट बटोरने का प्रयास कर रहे हैं। हाल ही में हुए झारखंड विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने अपने घोषणापत्र में क्रमशः 3100 और 3200 रुपए प्रति क्विंटल MSP की घोषणा की। इसी तरह छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने जल-संवेदनशील फसलों पर MSP बढ़ाने के वादे किए थे। इससे किसान पारंपरिक अनाजों को छोड़कर अधिक पानी वाली फसलों की ओर रुख कर रहे हैं, जो भारत के जल संसाधनों के लिए गम्भीर चिंता का विषय है।

दीर्घकालिक हितों की अनदेखी

जब लोकतंत्र लोकलुभावनवाद का रूप ले लेता है, तो दीर्घकालिक हितों को छोड़कर तात्कालिक लाभ की ओर झुकाव बढ़ जाता है। राजनीतिक दलों की यह प्रतिस्पर्धा कृषि और पर्यावरण के वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटका रही है। जल-सघन फसलों पर MSP बढ़ाने की यह होड़ देश की जल और कृषि नीति के लिए खतरनाक साबित हो सकती है।

समाधान की दिशा में आवश्यक कदम

भारत में जल संकट को कम करने और कृषि नीति को सुधारने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले, कृषि नीति में स्थायित्व को अपनाते हुए जल-संवेदनशील फसलों की बजाय कम पानी की खपत वाली फसलों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके तहत सरकार मोटे अनाज जैसे मिलेट्स और अन्य पारंपरिक फसलों पर समर्थन मूल्य (MSP) बढ़ाकर किसानों को इन फसलों की खेती के लिए प्रेरित कर सकती है। साथ ही, किसानों में जन-जागरूकता फैलाना भी आवश्यक है ताकि वे जल- सघन फसलों जैसे चावल और गन्ना की बजाय कम पानी में उगने वाली फसलों की ओर रुख करें। इसके लिए सरकार और स्थानीय निकाय जागरूकता अभियान चला सकते हैं। इसके अलावा, भूजल पर निर्भरता कम करने के लिए वर्षा जल संग्रहण और सिंचाई के पारंपरिक तरीकों को बढ़ावा देना भी जरूरी है। भारत को वर्चुअल वाटर की खपत को ध्यान में रखते हुए कृषि निर्यात नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए, ताकि जल-संवेदनशील फसलों के निर्यात को कम किया जा सके और भारतीय जल संसाधनों का संरक्षण हो। साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों को सूखा-प्रभावित क्षेत्रों में जल संरक्षण के उपायों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए ।

भारतीय राजनीति में लोकलुभावनवाद ने तात्कालिक लाभों के लिए दीर्घकालिक कृषि नीतियों को बाधित कर दिया है। चावल और गन्ना जैसी जल-संवेदनशील फसलों पर MSP बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा ने भारत के जल संसाधनों पर गंभीर खतरा उत्पन्न कर दिया है। आवश्यक है कि हम अपने कृषि मॉडल में बदलाव करें और जल-संरक्षण को ध्यान में रखते हुए मोटे अनाज जैसी फसलों की ओर रुख करें। साथ ही, राजनीतिक दलों को भी इस जिम्मेदारी को समझना होगा कि तात्कालिक लाभों की बजाय दीर्घकालिक हितों को प्राथमिकता दें ताकि भारत का जल और कृषि दोनों सुरक्षित रहें।

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