नमस्कार दोस्तों आज हम आप के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं लोकज्ञान के पर्यावरण दर्शन से जुड़ी हुई देशज कहावतें।
आप देखेंगे की इन कहावतों को इस तरह गढ़ा गया है की ये किसी भी आम इंसान को आसानी से समझ आ जाती है और याद हो जाती है। आज जब हमारी पर्यावरण शब्दावली कठिन शब्दों, जारगंस और अंग्रेजी के उल्टे सीधे अनुवादों से भरती जा रही है ऐसे में ये कहावतें हमें एक रास्ता बताती हैं कि पर्यावरण की भाषा कैसी होनी चाहिये।
आइये इस लेख में पढ़ते हैं बीज की मात्रा और नक्षत्र से संबन्धित कहावतें। ये कहावतें महाकवि घाघ एवं भड्डरी के द्वारा कही गई हैं।
सावाँ सवा सेर के मान। तिल्ली सरसों अँजुरी जान।
बरै कोदो सेर बोवाओ। डेढ़ सेर बिगहा तीसी नाओ।॥
एक बीघे में सवा सेर सावाँ, एक अंजुली तिल्ली या सरसों, एक सेर बरैं या कोदो तथा डेढ़ सेर तीसी बोना चाहिये।
जौ गेहूँ बोवै सार पसेर । मटरके बिगहा साठै सेर।।
बोवैं चना पसेरी तीन। दो सेर बिगहा जोन्हरी कीन ॥
जौ-गेहूँ (गोजई) बीघे में पैंतीस सेर बोना चाहिये और मटर साठ सेर। चना पन्द्रह सेर तथा जोन्हरी दो सेर बोना चाहिये।
दो सेर मोथी अरहर मास। डेढ़ सेर बिगरा बीज कपास ॥
चार पसेरी बिगहा धान। तीन पसेरी जड़हन मान॥
अरहर, मोथी और उर्द एक बीघे में दो सेर और कपास बीघे में डेढ़ सेर बोना चाहिये। फी बीघा बीस सेर (कुआरी) धान और पन्द्रह सेर अगहनी धान (जड़हन) बोना चाहिये ।
डेढ़ सेर बजरा बजरी सावाँ। कोदो काकुन सवैया बोवा ।
येहि विधिसे जब बोवै किसान। दूने लाभकी खेती जान ॥
बजरा-बजरी और सावाँ एक बीघे में डेढ़ सेर बोना चाहिये। जो किसान इस हिसाब से बीज बोता है उसे खेती में लाभ होता है।
सावन सावाँ अगहन जवा। जितना बोवै उतनै लवा ॥
सावन में सावाँ और अगहन में जौ जितना बोया जायेगा उतना ही काटा जायेगा।
सन घना बन बेगरा, मेढक फंदे ज्वार ।
पैर पैर पर बाजरा, करै दरिद्रै पार ॥
सघन सनई, बीड़र कपास, मेढक की कुदान की दूरी पर ज्वार, एक कदम की दूरी पर बाजरा बोने से ये चीजें दरिद्र को उबार लेती है।
अखै तीज रोहिनी न होई। पौस अमावस भूल न जोई ॥
राखी श्रवनी हीन विचारो । कातिक पूनो कृतिका टारो ॥
महि माहीं खल बलहिं प्रकासै। कहत भड्डरी सालि बिनासै ॥
यदि वैसाख में अक्षय तृतीया को रोहिणी न हो, पूस की अमावस्या को मूल न हो, रक्षाबन्धन के दिन श्रवण और कार्तिक की पूर्णिमा को कृतिका न हो तो पृथ्वी पर दुष्टों का बल बढ़ेगा। भड्डरी कहते हैं कि उस साल धान नहीं होगा।
मग्घा मारै पुरुवा सँवारे। उत्तरा भर खेत निहारै ॥
मघा में धान की फसल जोतवा देनी चाहिये और पूर्व मे निरौनी करा देनी चाहिये। उत्तरा नक्षत्र में उस खेत की शोभा देखने योग्य हो जायेगी।
मक्का जोन्हरी और बजरी । इनको बोवै कुछ बिड़री ॥
मक्का, ज्वार और बाजरा-इन्हें बीड़र बोना चाहिये।
दाना अरसी, बोवै सरसी ।
पोस्ता और अलसी को सरस मिट्टी में बोना चाहिये ।
सौ बाहें मूर, पचास बाहें गूर ।
पच्चीस बाहें जवा, जो चाहे सो लवा ।
सौ बाहें सौ बाँह जोतकर मूली आदि बोने से, पचास बाँह करके ऊख बोने से और पचीस बाँह के बाद जौ बोने से पैदावार मुँह की माँगी होती है।
चना चित्तरा चौगुना, स्वाती जौवा होय ।
चित्रा नक्षत्र में चना और स्वाती में जौ बोने से पैदावार अच्छी होती है।
चित्रा गेहूँ आर्द्रा धान। न ओके गेरुई न ओके घाम।।
चित्रा में गेहूँ और आर्द्रा में धान बोने से गेहूँ में गेरुई और धान पर घाम का असर कम पड़ता है।
चना सींच हो जब हो आवै। उसको पहिले खूब खुंटावै ॥
जब चना सींचने योग्य हो जाय तब पहले उसे खँटवा देना चाहिये।
रोहिनि मृगसिर बोये मक्का। उरदी मड़वा दे नहिं टक्का ॥
मृगसिरमें जो बोवै चेना। जमींदार को कुछ नहिं देना ॥
बोवै बजरा आये पुख। फिर मन जिनि तुम चाहो सुख ॥
रोहिणी और मृगशिरा में मक्का, उरद और मडुआ बोने से कुछ नहीं मिलेगा। मृगशिरा में चना बोने से मालगुजारी भी नहीं दे पाओगे। पुष्य नक्षत्र में बाजरा बोने से किसान सुखी नहीं होगा।
बोवै बजरा आये पुक्ख। फिर मन कैसे भोगै सुक्ख ॥
पुष्य नक्षत्र में बाजरा बोने से किसान कैसे सुखी रह सकता है, बाजरा बोने का नक्षत्र तो श्लेषा है। यदि उपजाऊ खेत हो तो मघा में भी बोया जा सकता है।
हरिन फलागन काँकरी, पैरे पैर कपास ।
कहियो जाइ किसानसे,बोवै घन उखार ॥
हरिन के छलाँग भर दूरी पर ककड़ी और कदम भर दूरी पर कपास बोना चाहिये। जाकर किसान से कहो कि ऊख खूब घनी बोये ।
कर्क बुवावै काकरी, सिंह अबोलो जाय ।
ऐसा बोलै भड्डरी, कीड़ा फिर फिर खाय ॥
यदि कर्क राशि में ककड़ी बोयी जाये और सिंह में न बोयी जाये तो उसमें भड्डरी कहते हैं कि बारम्बार कीड़े लगेंगे।
आलू बोवै अँधेरे पाख, खेतमें डाले कूड़ा राख ।
समय समय पर करे सिंचाई, दूना आलू घरमें आई ॥
खेत में काफी खाद डालकर आलूको अँधियारे पक्ष में बोना चाहिये। समय समय पर उसे पानी देते रहना चाहिये। तभी दूनी पैदावार घर में आयेगी।
अगहन जो कोई बोवै जौवा। होइ तो होड़ नहिं खावै कौवा ।
अगहन में बोया हुआ जौ ही खा जायेगा। कुछ होगा तो होगा ही नहीं उसे कौआ
अगाई बोवाई । सवाई लवाई ॥
पहले की बोवाई से सवाया अन्न अधिक होता है।
पूस न बोवै, पीस खावे ।
पूस में बोवाई न करे बल्कि पीसकर खा जाय ।
दिवाली को बोये दिवालिया ।
दीवाली के दिन बीज नहीं बोना चाहिये।
कदम कदम पर बाजरा, मेढक कुदौनी ज्वार।।
ऐसे बोवै जो कोई, घर घर भरै कोठार ॥
कदम-कदम पर बाजरा और मेढक की कुदान भर पर ज्वार बोने से कोठार बर जाता है। अर्थात् पैदावार बहुत अच्छी होती है।
घनी घनी जब जनई बोवै। तब सुतरीकी आसा होवै।
खूभ सघन सनई बोने पर सुतली की आशा करनी चाहिये।
गाजर गंजी मूरी। तिनिउ बोवै दूरी ।
गाजर, शकरकन्द और मूली इन तीनों को ही दूर दूर बोना चाहिये।
ऊगी हरनी फूली कास । अब काबोये निगोड़े मास ॥
हस्त तारा उदित हो गया और कास भी फूल गया. अब किसान निगोड़ा उर्द क्या बो रहा है?
ऊख गोड़िके तुरत हेंगावै, तो फिर ऊख बहुत सुख पावै ।
यदि ऊख को गोड़कर तुरंत हेंगवा दे तो वह जोरदार होगी।
सरसै अलसी-निरसै चना ।
सरस खेत में अलसी (तीसी) और कुर्सी में चना बोना अच्छा है।
बोओ गेहूँ काटि कपास। ना हो ढेला ना हो घास ॥
कपास काटकर उन खेत में गेहूँ बो दो कोई चिन्ता नहीं, किन्तु उस खेत में ढेला और घास नहीं हो।
जब बर्र बरैठे आई । तब रबीकी होय बोआई।
जब बरें उड़ती हुई घर में आवे तब रबी की बोवाई होनी चाहिये।
जोंधरी बोवै तोड़ मरोड़। तब वह डारै कोठिला फोर॥
ज्वार को जोतवा देने से फसल अच्छी होती है।
थोरै जोते ढेर हेंगावै, ऊँची बाँधै बारी ।
एतने पर जो अन्न न हो तो देना घाघै गारी ॥
बाँह चाहे कम करो पर हेंगाई खूब करो। यदि इतने पर भी अन्न न हो तो घाघ को गाली देना।
कच्चा खेत न जोतै कोई। नाहीं बीज न अंकुर होई ॥
कच्चा खेत किसी को नहीं जोतना चाहिये। नहीं तो बीज से अंकुर भी नहीं निकलेगा।
रड़ है गेहूँ कुस है धान। गड़राकी जड़ जड़हन जान ॥
फुली घास से देय किसान। वामें होय आन का तान ॥
राढ़ा तोड़ने अर्थात् खूब जोतने से गेहूँ की, कुश काटकरबोने से . धान (कुआरी) की और गाड़र (जिसकी जड़को खस कहते हैं) काटकर रोपाई करने से जड़हन (अगहनी धान) की पैदावार अच्छी होती है। जिस खेत में घास विकसित रहती है उसमें कुछ भी पैदावार नहीं होती-किसान रो देता है।
जोतै खेत घास ना टूटै । तेकर भाग साँझ ही फूटै ।
यदि जोतने पर घास न नष्ट हुई तो उस किसान का भाग फूटा ही समझो।
मेंड़ बाँध दस जोतन दे। दस मन बिगहा मोसे ले ॥
मेंड बाँधकर कम से कम दस बाँध जोतने से बीघा पीछे दस मन अन्न होगा।
सातो पांच तृतीया, दसमी एकादसिमें जीव ।
एही तिथिन पर जोतऊ, तो प्रसन्न हो सीव ॥
सप्तमी, पंचमी, तृतीया, दशमी और एकादशी में जीव वास करता है। इन तिथियों में खेत जोतने से शिवजी प्रसन्न होंगे।
जौं ना जोतै मास असाढ़ । अब का बाहें बारम्बार ॥
यदि असाढ़ में एक बार बांह नहीं हुआ तो बाद में बार बार जोतने से कोई लाभ नहीं।
जोत न मानै अलसी चना । पोस न मानै हरामी जना ॥
अलसी और चने की फसलें अधिक जोतकर बोने से नहीं होती, जैसे हरामी पोस नहीं मानता।
खूब जौते औ नावै खाद । तब लेवै गेहूँ का स्वाद ॥
खेत को खूब जोते खूब खाद डालकर गेहूँ बोवे तब गेहूँ का मजा मिलेगा।
कातिक मास रात हल जोती। टाँग पसारे घर मत सुतौ ।
कार्तिक के महीने में रात को ही हल चलाना चाहिये, पैर पसार कर सोये रहना ठीक नहीं।
नौ नसी, एक कसी।
नौ बांह जोतने की अपेक्षा फरसे से एक बार खोदना लाभदायक है।
जो जौ चहै तो उत्तरा गहै। काँच पकै के जोतत रहै ॥
यदि जौ की फसल पैदा करना चाहो तो उत्तरा नक्षत्र में कच्चे खेत को पकाकर खूब जोतो ।
कहा होय बहु बाहें। जोता न जाय थाहें ।
यदि खेत गहरा न जोता जाय तो बहुत बार जोतने से क्या होगा ?
अगहन में ना दी थी कोर । तेरे बैल को ले गये चोर ॥
तुमने अगहन में ऊख के खेत को नहीं जोता। क्या तुम्हारे बैल चोरी गये थे? अर्थात अगहन की जोताई से ऊख अच्छी होती है।
छोटी बाल हुई काहें । असाढ़ के न बाहें।
आषाढ़ में जोत न होने से गेहूँ-जौ की बालें छोटी होती है।
मैदै गेहूँ ढेलै चना ॥
मैदे की तरह बारीक मिट्टी में गेहूँ और ढेलेदार खेत में चने की पैदावार अच्छी होती है।
चिरैया में चीरकार । श्लेषा में घर टार।
मघा में काँदो सार ॥
चित्रा नक्षत्र में जल्दी से चीर फाड़कर धान लगावें,श्लेषा में जोतकर और मघा में खाद डालकर लगावें ।
असुना गल भरनी गली, गलियो ज्येष्ठा मूर।
पुरबाषढ़ा धूल किन, उपजै सातो तूर ।
यदि अश्विनी, भरणी, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र में वर्षा हो जाये। । पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में चाहे धूल ही क्यों न उड़े-सातों प्रकार के अन्न अवश्य पैदा होंगे।