अमिताव घोष की पुस्तक “द ग्रेट डिरेंजमेंट” का सारांश

पुस्तक का परिचय:
अमिताव घोष का “द ग्रेट डिरेंजमेंट: क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल” पर्यावरण संकट, जलवायु परिवर्तन और इस पर समाज, साहित्य, और राजनीति की चुप्पी के बारे में एक गहन और विचारोत्तेजक पुस्तक है। घोष ने इसे तीन भागों में बांटा है— कहानी, इतिहास और राजनीति। इस पुस्तक में जलवायु परिवर्तन को केवल एक वैज्ञानिक समस्या नहीं, बल्कि मानवता के अस्तित्व के लिए सबसे बड़े संकट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसके अलावा, लेखक ने यह भी चर्चा की है कि कैसे हम, एक समाज के रूप में, इस संकट को पूरी तरह से नजरअंदाज कर रहे हैं। पुस्तक यह तर्क देती है कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, राजनीति, और मानव अस्तित्व के भविष्य से गहराई से जुड़ा हुआ है।

मुख्य विचार और संरचना:

1. कहानी (The Stories):

पहला भाग यह समझाने की कोशिश करता है कि जलवायु परिवर्तन के बारे में हमारे साहित्य, कहानियों और रचनात्मक अभिव्यक्तियों में इतनी कम चर्चा क्यों होती है।

  • घोष का मानना है कि जलवायु संकट का विषय आधुनिक साहित्य और कथा में अनुपस्थित है।
  • आधुनिक साहित्य में, मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंधों को महत्व नहीं दिया जाता है।
  • घोष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैसे बड़े मुद्दे को “अकल्पनीय” (Unthinkable) के रूप में देखा जाता है, और इसलिए यह हमारे साहित्यिक विमर्श से बाहर है।
  • वे जलवायु परिवर्तन को “असंभव कल्पना” के रूप में परिभाषित करते हैं, क्योंकि इसकी भयावहता इतनी बड़ी है कि लोग इसे साहित्य और कला में चित्रित करने से बचते हैं।

मुख्य बिंदु:

  • आधुनिक साहित्य में केवल मानव केंद्रित विषयों को महत्व दिया जाता है।
  • घोष का कहना है कि उपन्यास जैसी विधा ने औद्योगिक क्रांति के दौरान जन्म लिया और यह मनुष्य के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है, जो प्रकृति और जलवायु को नजरअंदाज करता है।
  • यह दृष्टिकोण उस युग से जुड़ा है, जब प्रकृति को नियंत्रण में रखने की कोशिश की जा रही थी।

2. इतिहास (The History):

दूसरा भाग हमें यह दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन केवल एक समकालीन संकट नहीं है, बल्कि इसके बीज हमारे औपनिवेशिक और औद्योगिक इतिहास में छिपे हुए हैं।

  • घोष बताते हैं कि उपनिवेशवाद, पूंजीवाद और औद्योगिकीकरण ने पर्यावरण पर जो प्रभाव डाला, वह जलवायु संकट का मूल कारण है।
  • 18वीं और 19वीं शताब्दी में, औद्योगिक देशों ने अपने विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन किया, और इसके नतीजे आज पूरे विश्व को झेलने पड़ रहे हैं।
  • लेखक विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका, और दक्षिण अमेरिका के देशों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े पीड़ित हैं, जबकि इसका अधिकांश कारण पश्चिमी देशों की गतिविधियां हैं।

मुख्य बिंदु:

  1. औपनिवेशिक इतिहास और जलवायु संकट:
    • औपनिवेशिक शक्तियों ने प्राकृतिक संसाधनों का भारी दोहन किया और पर्यावरणीय असंतुलन पैदा किया।
  2. औद्योगिकीकरण:
    • औद्योगिकीकरण के कारण जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक उपयोग हुआ, जिससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा।
  3. विकास और असमानता:
    • पश्चिमी देशों ने अपनी संपत्ति और समृद्धि बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया, जबकि विकासशील देशों को इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े।

इतिहास के साथ समाज की भूमिका:

घोष बताते हैं कि इतिहास में मानवता ने प्रकृति और पर्यावरण को कभी प्राथमिकता नहीं दी। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि जलवायु परिवर्तन की चर्चा में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य क्यों शामिल नहीं है।

3. राजनीति (The Politics):

तीसरा और अंतिम भाग इस बात की पड़ताल करता है कि राजनीति और सरकारी नीतियां जलवायु परिवर्तन से निपटने में क्यों विफल हो रही हैं।

  • घोष का तर्क है कि जलवायु संकट पर राजनीतिक विमर्श अक्सर इसे केवल वैज्ञानिक और तकनीकी समस्या मानता है, जबकि यह एक गहरा सामाजिक और नैतिक मुद्दा है।
  • विकसित और विकासशील देशों के बीच ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को लेकर बड़ा असंतुलन है।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना मुख्य रूप से गरीब और विकासशील देशों को करना पड़ता है, जबकि विकसित देश इसकी जिम्मेदारी लेने से बचते हैं।

पुस्तक के मुख्य बिंदु:

  1. राजनीतिक उदासीनता:
    • वैश्विक नेताओं और सरकारों ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को नजरअंदाज किया है।
    • कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौते जैसे पेरिस समझौता नाकाफी हैं।
  2. उद्योगों की भूमिका:
    • बड़े उद्योग और निगम अपने मुनाफे के लिए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।
  3. गरीब और विकासशील देशों पर असर:
    • जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर गरीब देशों और कमजोर वर्गों पर पड़ता है।
    • बांग्लादेश, भारत और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के लोग बाढ़, सूखा, और प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

राजनीति में समाधान की कमी:

घोष ने जलवायु संकट को लेकर राजनीतिक अनिच्छा की आलोचना की है। उन्होंने बताया कि कैसे राजनेता अल्पकालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक समाधान की अनदेखी करते हैं।

पुस्तक के प्रमुख संदेश:

1. जलवायु परिवर्तन को समझने की आवश्यकता:

अमिताव घोष का मानना है कि जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय या वैज्ञानिक समस्या नहीं है, बल्कि यह मानवता के अस्तित्व के लिए एक चुनौती है। हमें इसे केवल “भविष्य की समस्या” के रूप में देखने के बजाय इसे वर्तमान में गंभीरता से लेना होगा।

2. साहित्य और कला की भूमिका:

घोष ने साहित्य और कला की जिम्मेदारी पर जोर दिया है। उनका कहना है कि कहानी और कल्पना के माध्यम से जलवायु संकट के मुद्दे को बेहतर ढंग से समझा और लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।

3. पूंजीवाद और उपभोक्तावाद की आलोचना:

उन्होंने पूंजीवाद और उपभोक्तावाद को जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया है। बड़े पैमाने पर संसाधनों के दोहन और अनियंत्रित विकास ने पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है।

4. सामूहिक जागरूकता और कार्रवाई:

घोष का कहना है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए सामूहिक जागरूकता और सहयोग की आवश्यकता है। यह केवल सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि समाज के हर व्यक्ति को अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

5. प्राकृतिक आपदाओं से सबक:

उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, और चक्रवात को जलवायु परिवर्तन के परिणाम के रूप में देखा और इन्हें गंभीरता से लेने की अपील की।

पुस्तक के प्रभाव और प्रासंगिकता:

“द ग्रेट डिरेंजमेंट” केवल एक चेतावनी नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज और दुनिया को बदलने की एक अपील है। पुस्तक हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्यों हम जलवायु संकट को नजरअंदाज कर रहे हैं। घोष का तर्क है कि यदि हम अभी नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

यह पुस्तक खास तौर पर उन लोगों के लिए प्रासंगिक है, जो पर्यावरण, राजनीति, और समाज के बीच के जटिल संबंधों को समझना चाहते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *