ईको फेमिनिज़म, नारीवाद यानि फेमिनिजम की ही एक शाखा है जिसमें प्रकृति और महिलाओं के संबंध में समानता स्थापित करते हुए उनकी परेशानियों को उजागर किया जाता है। ईको फेमिनिज़म संस्कृति, धर्म, साहित्य में महिलाओं और प्रकृति के बीच संबंधों की खोज करता है और साथ ही प्रकृति के क्षरण और महिलाओं के उत्पीड़न के बीच समानता को दर्शाता है।
यह महिलाओं और प्रकृति को संपत्ति या एक वस्तु के रूप में देखे जाने का विरोध करता है। ईको फेमिनिज़म में इस बात पर जोर दिया गया है कि स्त्री और प्रकृति दोनों का सम्मान किया जाना चाहिए।
इसके अलावा ईको फेमिनिज़म के माध्यम से हम यह भी समझ सकते हैं कि पर्यावरण प्रदूषण अथवा पारिस्थिकीकीय संकट का सामना पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को अधिक करना पड़ता है क्योंकि महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पुरुषों के मुक़ाबले कमजोर है।
ईको-फेमिनिस्ट आंदोलन 1980 के दशक के दौरान दुनिया भर में आगे बढ़ा। सन 1980 मे एमहर्स्ट में आयोजित सम्मेलन में “महिला और पृथ्वी पर जीवन: पारिस्थितिकतावाद” विषय पर पहली बार विचार-विमर्श किया गया था।
पारिस्थितिक नारीवाद यानि ईको फेमिनिज़म के अनुसार हमारा समाज स्त्री और प्रकृति को हमेशा उपभोग की दृष्टि से ही देखता है जिस कारण इन दोनों का ही शोषण होता रहा है।
ईको फेमिनिज़म को गढ़ने का श्रेय फ्रेंच नारीवादी चिंतक फ्रांस्वा द यूबोन को जाता है जिन्होंने साल 1974 में प्रकाशित ”ले फेमनिज़म ओ ला मॉर्ट” लेख में इसका उल्लेख किया था। उनके अनुसार वर्तमान के पारिस्थितिक संकट की समस्या मुख्यतः पुरुष केंद्रित है।
पर्यावरण क्षरण और स्त्री शोषण आज हमारे समय की चिंताओं में से एक है इसलिए आज के समय में इसकी प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ जाती है। प्राचीन समय में खेती करने का अधिकार स्त्री वर्ग के पास था लेकिन बाद में इस अधिकार का हस्तांतरण पुरुषों को कर दिया गया और महिलाओं को परिवार संभालने की जिम्मेदारी दे दी गई। इस पर नारीवादी यह तर्क देते हैं कि पुरुषों को खेती करने का अधिकार देना ही वह समय था जब पर्यावरण का संकट शुरू हुआ।
यदि भारत में ईको-फेमिनिस्ट आंदोलनों की बात करें तो चिपको जैसे उदाहरण भी इस बात का साफ़ संकेत देते हैं कि महिलाएं हमेशा पर्यावरण के सरंक्षण के पक्ष में रही हैं। चिपको आंदोलन अपने शुरुआत से लेकर अंत तक पूरी तरह महिलाओं से जुड़ा हुआ रहा और इस आंदोलन ने यह साबित किया कि महिलाओं की सक्रिय भागीदारी पर्यावरण संकट को हल करने में अत्यंत कारगर हो सकती है। ईको फेमिनिज़म महिलाओं के हाथ में नेतृत्व एवं उन्हे उचित प्रतिनिधित्व देने का सवाल भी उठाता है। इसमें एक ऐसे विश्व की कल्पना की जाती है जो महिलाओं के विश्व दृष्टि यानि वुमेन सेंट्रिक वर्ल्ड व्यू पर केन्द्रित है।
भारतीय संदर्भ का एक महत्व पूर्ण उदाहरण ‘नर्मदा बचाओ’ आंदोलन भी रहा है।
भारत में आज भी महिलाएं व्रत-त्यौहार के मौके पर या रोज़मर्रा के अपने जीवन में अनेक वृक्षों -पीपल, तुलसी, आंवला, अशोक, बेल, शमी, नीम, आम जैसे पेड़ पौधों को शामिल करती नज़र आती है।
यही नहीं जल-स्रोतों के प्रति भी संरक्षण की भावना महिलाओं में प्राचीन काल से ही चली आ रही है। संपूर्ण पारिस्थितिकी को संतुलित बनाए रखने के लिए महिलाएं हमेशा से ही अग्रणी रही हैं। हमारे देश में भी महिलाओं में प्रकृति-संरक्षण और पर्यावरण-संरक्षण की यह भावना पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आई है और आज भी देखने को मिलती है। इस तरह से ईको फेमिनिज़म की प्रासंगिकता को पहचाना जा सकता है और कहा जा सकता है कि आज के समय में इसका कितना अधिक महत्व है। यह विषय इतना ज्वलंत है कि इसको नकारना एक बड़ी प्राकृतिक आपदा और सामाजिक समस्या को जन्म देना है।
विशेष तौर पर विकासशील देशों में महिलाओं और अन्य हाशिए पर रहने वाले समूहों को जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय गिरावट के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करना पड़ता है। ईको फेमिनिज़म के अनुसार पर्यावरणीय समस्याएं सामाजिक-सांस्कृतिक कठिनाइयों के साथ-साथ सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों से भी जुड़ी हुई हैं।
उदारवादी पर्यावरण-नारीवादी विचारकों का मानना है कि किसी को स्त्री और प्रकृति के बीच संबंधों को समाप्त करने की दृष्टि से पितृसत्तात्मक वर्चस्व का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि पितृसत्तात्मक मानसिकता सस्ते श्रम और संसाधनों के लिए महिलाओं और प्रकृति के शोषण को प्रोत्साहित करती है।
दूसरी ओर, सांस्कृतिक पर्यावरण-नारीवाद, जो 1970 के दशक की शुरुआत में उभरा, वह महिला-प्रकृति संबंधों को प्रकृति की देखभाल करने की महिलाओं की क्षमता के स्वतंत्र और शक्तिशाली प्रतिनिधित्व को पुनः स्थापित करता है। कुछ कल्चरल ईको फेमिनिस्ट्स का तर्क है कि महिलाओं की प्रजनन शक्तियाँ प्रकृति के साथ एक जैविक संबंध प्रदान करती हैं, जिससे महिलाओं को पुरुषों की तुलना में “प्रकृति के करीब” रखा जाता है, उनका तर्क है कि इस तरह के संबंध महिलाओं को पर्यावरणीय पवित्रता और गिरावट के प्रति अधिक संवेदनशील होने में सक्षम बनाते हैं।
तो ये थी ईको फेमिनिज़म से जुड़ी वो तमाम बातें जो हमें जाननी चाहिए।