हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) द्वारा दिया गया परामर्शात्मक निर्णय, जिसमें जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों को ‘अवैध’ करार दिया गया है, भारत जैसे देशों के लिए एक मिश्रित प्रभाव लेकर आया है। यह निर्णय जहां एक ओर जलवायु न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम के रूप में देखा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भारत की ऊर्जा नीति और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भूमिका को नई चुनौती दे सकता है।
निर्णय का व्यापक जलवायु प्रभाव
भारत जैसे ग्लोबल साउथ के देश, जो चरम मौसम घटनाओं जैसे भीषण गर्मी, बाढ़, सूखा और समुद्र के बढ़ते जलस्तर से बुरी तरह प्रभावित हैं, उनके लिए यह फैसला वैश्विक जलवायु न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यह ऐतिहासिक रूप से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले विकसित देशों की जवाबदेही तय करता है। लेकिन साथ ही, भारत जैसे बड़े उत्सर्जक देशों पर भी अब अंतरराष्ट्रीय निगरानी और जवाबदेही बढ़ने की संभावना है, विशेषकर ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक वार्ताएं, जैसे UNFCCC की 30वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP30), होने वाली हैं। ऐसे में अगर देखा जाए तो यह निर्णय भारत के लिए एक चुनौती भी है और अवसर भी है।
भारत के लिए संभावित जलवायु प्रभाव
भारत, जो कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में तीसरे स्थान पर है, पर अब यह नैतिक और कानूनी दबाव बढ़ेगा कि वह कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधनों पर अपनी निर्भरता घटाए। इससे उसकी जलवायु नीतियों में अधिक पारदर्शिता, उत्सर्जन लक्ष्यों में स्पष्टता और ऊर्जा सब्सिडी नीति की पुनर्समीक्षा की आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है। हालांकि यह स्थिति कुल उत्सर्जन पर आधारित है; प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मामले में भारत आज भी विश्व के सबसे कम उत्सर्जन करने वाले देशों में शामिल है। इसके अतिरिक्त, यह फैसला भविष्य में जलवायु संबंधी न्यायिक मामलों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार वार्ताओं पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।
विकासशील की परिभाषा पर पुनर्विचार
आईसीजे के फैसले में यह स्पष्ट संकेत दिया गया है कि कोई भी देश स्थायी रूप से ‘विकासशील’ की श्रेणी में नहीं रह सकता। ऐसे में भारत की अंतरराष्ट्रीय स्थिति, जहां वह विकासशील देश के रूप में विशेष छूटों और लचीलेपन की मांग करता रहा है, अब वैश्विक जांच और पुनर्मूल्यांकन के दायरे में आ सकती है।
भारत ने अपने पक्ष में ‘संयुक्त लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों’ (CBDR) के सिद्धांत को दोहराते हुए विकसित देशों से जलवायु वित्त और तकनीकी सहयोग सुनिश्चित करने की मांग की थी। हालांकि, अब वैश्विक समुदाय की अपेक्षाएं भारत जैसे उभरते देशों से भी बढ़ेंगी, और उनसे अधिक सक्रिय, पारदर्शी व दीर्घकालिक जलवायु कार्रवाई की उम्मीद की जाएगी।
कार्बन से आगे का दृष्टिकोण
इस निर्णय का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह जलवायु चर्चाओं को केवल कार्बन उत्सर्जन तक सीमित नहीं रखता, बल्कि पूरे पर्यावरणीय तंत्र जैसे कि वायु गुणवत्ता, नदियों का स्वास्थ्य और जैव विविधता को ‘जलवायु प्रणाली’ के रूप में देखने का आग्रह करता है। इससे भारत में पर्यावरण से जुड़े नीतिगत फैसलों में संतुलन की नई माँग उठ सकती है।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का यह निर्णय भारत के लिए एक चेतावनी और अवसर दोनों के रूप में सामने आया है। अब भारत को अपने ऊर्जा और विकास मॉडल में ऐसे बदलाव लाने होंगे जो वैज्ञानिक तथ्यों, पर्यावरणीय न्याय और वैश्विक जिम्मेदारियों के अनुरूप हों। वैश्विक मंचों पर भारत की स्थिति अब एक पीड़ित देश के साथ-साथ एक उत्तरदायी साझेदार के रूप में देखी जाएगी। आगामी जलवायु सम्मेलनों में भारत से न केवल विकासशील देशों की आवाज़ उठाने की उम्मीद की जाएगी, बल्कि इस दिशा में ठोस और टिकाऊ कदम भी अपेक्षित होंगे।
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