21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौतीजलवायु परिवर्तन है। पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव आज देखे जा सकते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होने के नाते जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत पर भी पड़ने वाला है। भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए सवाल सिर्फ नीतियों का नहीं, निवेश और वित्त प्रवाह का भी है। क्या सचमुच हमारे द्वारा घोषित ‘ग्रीन’ निवेश और योजनाएं, जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप हैं? इन्हीं पहलुओं को सुलझाने के लिए भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के आर्थिक कार्य विभाग द्वारा पेश की गई ‘क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी’ (CFT) नई दिशा और आधार देती है।
जलवायु वित्त में पारदर्शिता और उद्देश्यपूर्णता तभी आ सकती है जब कोई भी सरकार, बैंक, निवेशक या कंपनी यह स्पष्ट जान सके कि “ग्रीन” की सही परिभाषा क्या है। अब तक ग्रीन टैग किसी परियोजना, ऋण या निवेश को मार्केटिंग टूल की तरह मिलता आया; कभी-कभी तो बिल्कुल बिना वैज्ञानिक साक्ष्य के! इससे दुनियाभर में ग्रीनवॉशिंग का नया संकट पैदा हुआ जहां कंपनियां और देश अपने को ग्रीन कहकर असलियत में जिम्मेदार निवेश की जगह भ्रम तथा पर्यावरण को नुकसान दे रही हैं।
यही वह जगह है, जहां ग्रीन टैक्सोनॉमी शक्तिशाली नीति-उपकरण बनकर उभरती है। ‘टैक्सोनॉमी’ शब्द का अर्थ है किसी चीज़ की वैज्ञानिक और तार्किक वर्गीकरण प्रणाली। जब हम ‘क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी’ की बात करते हैं, तो इसका आशय होता है – ऐसी स्पष्ट और मानकीकृत परिभाषा और मानदंडों की व्यवस्था जो यह तय करती है कि कौन-सी आर्थिक गतिविधियाँ वास्तव में जलवायु परिवर्तन के समाधान में योगदान देती हैं और उन्हें ‘ग्रीन फाइनेंस’ या ‘क्लाइमेट फाइनेंस’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। भारत जैसे विकासशील देश के संदर्भ में, जहाँ ऊर्जा सुरक्षा, गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास भी प्राथमिक उद्देश्य हैं, वहाँ यह आवश्यक हो जाता है कि कोई एक सुसंगत व्यवस्था हो जो यह स्पष्ट करे कि कौन-सी परियोजनाएँ जलवायु अनुकूल हैं और कौन-सी नहीं। इसी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इस फ्रेमवर्क की अवधारणा की गई।
भारत की क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी (CFT) का ड्राफ्ट फ्रेमवर्क औपचारिक रूप से केंद्रीय वित्त मंत्रालय के तहत Department of Economic Affairs (DEA) द्वारा जारी किया गया है। इसका निर्माण इस समझ के साथ हुआ है कि नीति, निवेश और क्रियान्वयन—तीनों स्तरों पर पारदर्शी और तुलनात्मक ‘ग्रीन’ मानदंड तय हों, ताकि न सिर्फ सरकारी एजेंसियां, बल्कि बैंक, NBFC, प्राइवेट निवेशक, MSMEs, और ग्राउंड-लेवल संस्थाएं इसका इमाल कर सकें।
भारत की क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी फ्रेमवर्क का मुख्य उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए स्पष्ट, पारदर्शी और प्रभावी मार्गदर्शन प्रदान करना है। इसका पहला उद्देश्य जलवायु शमन (Mitigation) है, जिसके तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को सख्ती से कम करने, स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के विकास और उनके व्यापक उपयोग को प्रोत्साहित करने पर ज़ोर दिया गया है। इसके साथ ही, फ्रेमवर्क जलवायु अनुकूलन (Adaptation) को भी उतना ही महत्त्वपूर्ण मानता है, जिसमें जल, कृषि, बुनियादी ढांचे और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से सुरक्षित रखने की रणनीतियाँ शामिल हैं।
फ्रेमवर्क का एक अन्य प्रमुख स्तंभ ट्रांजिशन (Transition) है, जिसमें उन क्षेत्रों की पहचान की गई है जहां तकनीकी और आर्थिक कारणों से तुरंत शून्य उत्सर्जन संभव नहीं है जैसे स्टील, सीमेंट और भारी उद्योग। इन क्षेत्रों को चरणबद्ध तरीके से हरित मार्ग पर लाना टैक्सोनॉमी की रणनीतिक प्राथमिकता है। साथ ही, यह ढांचा ग्रीनवॉशिंग पर भी रोक लगाने का प्रयास करता है, ताकि निवेश केवल दिखावे के तौर पर न किया जाए, बल्कि उसका वास्तविक प्रभाव हो। इस संदर्भ में आधारहीन ग्रीन दावे, झूठी प्रमाणिकता और केवल प्रतीकात्मक निवेश को समाप्त करने के लिए स्पष्ट मापदंड तय किए गए हैं।
एक और उल्लेखनीय उद्देश्य यह है कि इस फ्रेमवर्क को एमएसएमई (MSME) और ग्रामीण भारत से भी जोड़ा जाए, ताकि जलवायु वित्त के लाभ केवल बड़े कॉर्पोरेट्स तक सीमित न रहें बल्कि निचले स्तर तक पहुँचें। अंततः, यह फ्रेमवर्क अंतरराष्ट्रीय मानकों जैसे EU और ASEAN टैक्सोनॉमी से भी तालमेल बैठाने की कोशिश करता है, परंतु इसे भारत की स्थानीय सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के अनुरूप ढालने की भी विशेष योजना है। यही संतुलन इसे वैश्विक होते हुए भी देशज बनाता है।
क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी: ग्रीन टैक्सोनॉमी की बढ़ती भूमिका
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अभूतपूर्व मात्र में निवेश आवश्यक है। पर कहाँ और कैसे? वैश्विक शोध संगठन CPI (Climate Policy Initiative) के अनुसार, साल 2030 तक दुनिया को अपने घोषित जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप चलने के लिए हर वर्ष $7.5 ट्रिलियन की जलवायु फाइनेंसिंग चाहिए। सिर्फ भारत को ही 2030 तक $2.5 ट्रिलियन निवेश चाहिए अपने एनडीसी (Nationally Determined Contributions) पूरे करने के लिए।
विकासशील देश अकेले यह भार नहीं उठा सकते। ऐसे में ग्रीन टैक्सोनॉमी जैसे टूल्स यह सुनिश्चित करते हैं कि संसाधन उन परियोजनाओं तक पहुंचे, जो सचमुच कार्बन कटौती, जलवायु अनुकूलन या रीजनल ट्रांजिशन में अहम हैं। ये निवेशकों, नीति-निर्माताओं और हितधारकों को स्पष्ट, कट-टू-कट गाइडेंस देते हैं—नतीजतन फाइनेंस ज्यादा प्रभावशाली, फोकस्ड और जवाबदेह बनती है। विश्व बैंक के मुताबिक, अभी तक अत्याधुनिक देशों के लगभग 75% हिस्से में कोई न कोई ग्रीन टैक्सोनॉमी लागू है; वहीं विकासशील देशों में यह अनुपात 10% से भी कम है। यानि भारत का नया फ्रेमवर्क वैश्विक दक्षिण के लिए मिसाल और नेतृत्व का संकेत है।
भारत की क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी की संरचना
भारत की क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी को एक लिविंग डॉक्युमेंट के रूप में तैयार किया गया है, जिसका अर्थ है कि यह कोई स्थिर या जमी हुई नीति नहीं है। इसके विपरीत, यह दस्तावेज़ समय के साथ बदलती टेक्नोलॉजी, आर्थिक परिस्थितियों और पर्यावरणीय जरूरतों के अनुसार संशोधित किया जाएगा। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जलवायु वित्तीय नीति हमेशा प्रासंगिक, अद्यतन और कार्यान्वयन योग्य बनी रहे।
इस फ्रेमवर्क की सबसे उल्लेखनीय विशेषता इसकी दोहरी संरचना है, गुणात्मक (Qualitative) और मात्रात्मक (Quantitative)। गुणात्मक दृष्टिकोण के अंतर्गत यह स्पष्ट किया जाता है कि कोई गतिविधि या परियोजना जलवायु के अनुकूल क्यों और कैसे है, वह किन मूल्यों, प्राथमिकताओं और सिद्धांतों पर आधारित है। यह नीति निर्माताओं को एक दार्शनिक और रणनीतिक आधार प्रदान करता है। वहीं मात्रात्मक दृष्टिकोण, नीति को व्यवहारिक और मापनीय बनाने का कार्य करता है। इसमें हर गतिविधि के लिए स्पष्ट प्रदर्शन मानदंड तय किए जाते हैं, जैसे की ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कितने प्रतिशत की कमी लाई गई, ऊर्जा दक्षता कितनी बढ़ी, या जल संरक्षण के कितने आंकड़े प्राप्त हुए।
फ्रेमवर्क में परियोजनाओं और गतिविधियों को दो मुख्य वर्गों (या ‘बास्केट्स’) में बांटा गया है। पहला है Climate Supportive गतिविधियाँ, जिसे फिर दो स्तरों में विभाजित किया गया है। Tier 1 में वे परियोजनाएँ आती हैं जो सीधे और बड़े पैमाने पर जलवायु शमन या अनुकूलन में योगदान देती हैं, जैसे सौर ऊर्जा पार्क, ग्रीन बिल्डिंग्स, और क्लाइमेट-रेसिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर। Tier 2 में वे गतिविधियाँ शामिल हैं जिनमें तकनीकी या संसाधन सीमाएं मौजूद हैं, लेकिन फिर भी वे उत्सर्जन में कमी या संसाधनों की कुशलता में सुधार लाती हैं और आगे चलकर उन्हें अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है। दूसरा वर्ग है Transition Supportive गतिविधियाँ। ये वे क्षेत्र या परियोजनाएँ होती हैं जो वर्तमान में पूर्ण रूप से ग्रीन नहीं बन सकीं हैं, लेकिन वे सरकार की नीति और चरणबद्ध योजना के अंतर्गत हरित मार्ग की ओर अग्रसर हैं। जैसे स्टील और सीमेंट जैसे उद्योग जिनमें तकनीकी रूप से शून्य उत्सर्जन अभी संभव नहीं है, लेकिन इनमें सुधार की प्रक्रिया और निवेश की दिशा स्पष्ट है।
टैक्सोनॉमी की क्षेत्रीय और सेक्टोरल संरचना भी विशेष ध्यान देने योग्य है। इसकी शुरुआती प्राथमिकता कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर केंद्रित है जैसे ऊर्जा उत्पादन और ग्रीड प्रणाली, जिसमें सौर, पवन और जल विद्युत जैसे नवीकरणीय स्रोत और स्मार्ट ग्रीड तकनीक शामिल हैं। परिवहन क्षेत्र में इलेक्ट्रिक मोबिलिटी, सार्वजनिक परिवहन के विस्तार और लॉजिस्टिक्स की दक्षता को बढ़ाने पर ज़ोर है। निर्माण और आधारभूत संरचना क्षेत्रों में ऊर्जा-कुशल भवनों और स्मार्ट सिटी परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। कृषि, जल और खाद्य सुरक्षा क्षेत्रों में जलवायु-रेसिलिएंट खेती, सूखा-प्रतिरोधी बीज, जल संरक्षण और टिकाऊ खाद्य तंत्र का विकास शामिल है।
इसके अतिरिक्त, हार्ड-टू-अबेट इंडस्ट्रीज जैसे स्टील और सीमेंट उद्योगों को टैक्सोनॉमी में विशेष स्थान दिया गया है। भविष्य में एलुमिनियम, फर्टिलाइज़र और रासायनिक उद्योगों को भी इस ढाँचे में सम्मिलित किया जाएगा। यह संरचना यह भी सुनिश्चित करती है कि भारत का ट्रांजिशन समावेशी हो, इसलिए एमएसएमई, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और स्थानीय नवाचार को भी इस फ्रेमवर्क में स्थान दिया गया है। इस समावेशी दृष्टिकोण से देश में न केवल ग्रीन इनवेस्टमेंट को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि यह सामाजिक और आर्थिक समरसता के साथ एक टिकाऊ भविष्य की ओर भारत को ले जाने में सहायक होगा।
टैक्सोनॉमी के आठ आधारभूत सिद्धांत
- राष्ट्रीय जलवायु एवं विकास प्राथमिकताओं से समन्वय (Net Zero 2070, NDCs, समावेशी विकास)
- नुकसान न पहुँचाने का सिद्धांत (Do No Significant Harm)
- देश-विशिष्ट लचीलापन—हर सेक्टर/क्षेत्र के लिए समान मानक जरूरी नहीं।
- ग्लोबल-संगत, स्थानीय अनुरूपता (EU, ओईसीडी, ASEAN टैक्सोनॉमी से सामंजस्य, मगर भारतीय जरूरतों के मुताबिक)
- ट्रांजिशन का सपोर्ट—सिर्फ पूर्ण ग्रीन पर नहीं, व्यावहारिकता और सुधार को भी महत्त्व।
- स्थानीय तकनीक और R&D को बढ़ावा
- निगरानी (ट्रैकिंग), पारदर्शिता और मापन
- MSMEs और ग्रामीण/कृषि क्षेत्र को प्रासंगिक महत्व
ग्रीन टैक्सोनॉमी के प्रमुख लाभ
भारत की ग्रीन टैक्सोनॉमी जलवायु वित्त को सटीक दिशा देने का एक प्रभावी उपकरण बनकर उभरी है। यह सुनिश्चित करती है कि निवेश वास्तव में कार्बन कटौती और जलवायु लचीलापन लाने वाले प्रोजेक्ट्स में जाए, न कि सिर्फ दिखावे वाले ‘ग्रीन’ दावों में। टैक्सोनॉमी फाइनेंस को एक दिशासूचक कंपास की तरह मार्गदर्शन देती है, जिससे निवेशकों को पारदर्शिता और भरोसा मिलता है।
इस ढांचे की एक बड़ी भूमिका ग्रीनवॉशिंग पर लगाम लगाने की है। जब ‘ग्रीन’ की स्पष्ट और वैज्ञानिक परिभाषा मौजूद हो, तो कोई कंपनी बिना प्रमाण के हरित टैग नहीं ले सकती। इससे हर परियोजना की जिम्मेदारी और मापनीयता बढ़ती है। अंतरराष्ट्रीय और निजी निवेशकों के लिए भी यह फ्रेमवर्क बेहद उपयोगी है। ग्रीन बॉन्ड्स, विदेशी फंड और बैंकों को जब स्पष्ट नियम और रिपोर्टिंग फ्रेमवर्क मिलते हैं, तो निवेश का प्रवाह तेज होता है और भारत का ग्रीन इकोनॉमी में भरोसा बढ़ता है। साथ ही, यह टैक्सोनॉमी एमएसएमई, किसान और ग्रामीण उद्यमों के लिए भी रास्ता खोलती है। अब हर स्तर की इकाई ग्रीन फाइनेंसिंग में भागीदार बन सकती है, जिससे समावेशी और टिकाऊ विकास को गति मिलेगी।
भारत बनाम दुनिया
दुनिया के कई देशों जैसे यूरोपीय संघ, चीन, दक्षिण कोरिया, ब्राज़ील और ASEAN देशों ने पहले ही अपनी-अपनी ग्रीन टैक्सोनॉमी विकसित कर ली है। लेकिन भारत की टैक्सोनॉमी की खासियत यह है कि यह हमारी अर्थव्यवस्था, गरीबी उन्मूलन, समावेशिता, MSME आधारित ढांचे और विकास की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर तैयार की गई है। यह सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक यथार्थ से जुड़ी हुई है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, जहां विकसित देश टैक्सोनॉमी को व्यापक रूप से अपना चुके हैं, वहीं विकासशील देशों में यह प्रक्रिया अभी प्रारंभिक चरण में है। ऐसे में भारत का मॉडल लचीला, समयानुकूल अपडेट होने वाला और स्थानीय ज़रूरतों से जुड़ा होने के कारण अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक आदर्श बन सकता है।
अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में भी ग्रीन टैक्सोनॉमी की अहमियत तेजी से बढ़ रही है। COP29 और ‘Baku to Belem Roadmap’ जैसे वैश्विक मंचों पर लगातार यह कहा जाता रहा है कि अगर विकासशील देश जलवायु फाइनेंस चाहते हैं, तो उन्हें घरेलू ‘enabling environment’ और पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी। भारत की यह टैक्सोनॉमी उसी दिशा में एक ठोस कदम है। यह केवल घोषणाओं तक सीमित नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित प्रणाली की स्थापना है। इस तरह, भारत की मजबूत घरेलू तैयारी उसे न केवल अंतरराष्ट्रीय निवेश और सतत व्यापार के लिए तैयार करेगी, बल्कि अन्य उभरते देशों के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शक भी सिद्ध हो सकती है।
चुनौतियाँ
भारत की क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी भले ही एक मजबूत शुरुआत हो, लेकिन इसके सामने कई व्यवहारिक और संरचनात्मक चुनौतियाँ भी हैं। फिलहाल यह फ्रेमवर्क सीमित क्षेत्रों और सेक्टरों तक केंद्रित है, जैसे ऊर्जा, स्टील और सीमेंट। भविष्य में इसे एलुमिनियम, केमिकल्स, डिजिटल अर्थव्यवस्था, मत्स्य पालन जैसे अन्य क्षेत्रों तक विस्तार देना जरूरी होगा। इसके अलावा, जमीनी स्तर पर डेटा एकत्र करना, प्रगति को ट्रैक करना और विशेषकर MSMEs व दूरदराज़ के क्षेत्रों में कार्यान्वयन को सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।
एक और महत्वपूर्ण पहलू है स्पष्टता और थ्रेशहोल्डिंग। विशेष रूप से ‘transition supportive’ श्रेणी में अभी भाषा और मापदंडों में कुछ हद तक ओवरलैपिंग देखी जा रही है। जैसे-जैसे सेक्टोरल एनेक्सचर और मात्रात्मक पैरामीटर्स को शामिल किया जाएगा, यह अस्पष्टता घटेगी और टैक्सोनॉमी की सटीकता बढ़ेगी। भारत में ग्रीन इन्वेस्टमेंट का एक बड़ा हिस्सा विदेशी पूंजी से आता है, इसलिए टैक्सोनॉमी को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाए रखना अत्यावश्यक होगा। इसे EU, ASEAN जैसे वैश्विक ढाँचों के साथ लगातार ट्यून करते रहना पड़ेगा, ताकि भारत वैश्विक निवेश आकर्षण का केंद्र बन सके। अंततः, निगरानी और अनुपालन का एक ठोस ढांचा विकसित करना जरूरी है। इसके लिए स्पष्ट गवर्नेंस स्ट्रक्चर, रिपोर्टिंग गाइडलाइंस और नियमित फ़ीडबैक तंत्र की ज़रूरत होगी, ताकि टैक्सोनॉमी के प्रभाव को समय-समय पर परखा जा सके और आवश्यकता अनुसार नीतियों में सुधार किया जा सके। यह निरंतरता ही इस फ्रेमवर्क की सफलता की कुंजी होगी।
आगे का रास्ता
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ नई तकनीक या नीति ही काफी नहीं है—उस दिशा में सही, प्रमाणिक और बड़ी पूंजी प्रवाह की जरूरत है। भारत की क्लाइमेट फाइनेंस टैक्सोनॉमी उसी पूंजी प्रवाह को पारदर्शी, लचीला, जवाबदेह और वैज्ञानिक ढांचे में बाँधने की कोशिश है।
अपनी स्थानीय जरूरतों, समावेशिता, विकास प्राथमिकताओं के अनुरूप भारत ने जो मॉडल पेश किया है, वह न सिर्फ घरेलू निवेश, बल्कि ग्लोबल निवेशकों के लिए भी भरोसे का केंद्र बनेगा। इसके जरिए न केवल जनता का, बल्कि निवेशकों और नीति-निर्माताओं का भरोसा भी मजबूत होगा कि ग्रीन का टैग जुमला नहीं, बल्कि परिणामों, मापदंडों और पारदर्शिता का नाम है। जैसे-जैसे भारत का यह फ्रेमवर्क और sectoral annexures, तकनीकी विस्तार और पॉलिसी स्तर पर refinement पाएंगे, वैसे-वैसे यह मॉडल पूरी विकासशील दुनिया के लिए प्रेरणा बनेगा।
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